अग्नि आलोक

“रंग, रस, गंघ, स्पर्श, नाद इनका यह आदमी इतना चहेता होगा इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी”

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*रचनाकारों की नजर में*लोहिया       *(भाग- 3)* 

     *प्रोफेसर राजकुमार जैन*

‘नई सभ्यता का सपना’ के लेखक ओम प्रकाश दीपक 21 वर्ष की आयु में 1948 में राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में बनी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए थे। 1949 आज़ाद हिंदुस्तान में लोहिया की प्रथम गिरफ़्तारी के वक़्त नेपाल की तानाशाही के खिलाफ़ प्रदर्शन करते हुए, लोहिया के साथ पत्नी कमला दीपक के साथ गिरफ्तार हो के दो महीने की कैद के अतिरिक्त जुर्माना न दे पाने की एवज में 6 हफ़्ते की अतिरिक्त केंद्र की सजा भी इनको मिली थी।

 दीपक की प्रतिभा के कारण इन्हें सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय कार्यालय से निकलने वाली अंग्रेज़ी पत्रिका “मैनकान्ड”, साहित्यिक पत्रिका कल्पना, बाद में दिल्ली में ‘जन’ साप्ताहिक तथा जयप्रकाश जी के आदेश पर “एवरीमैंस वीकली” के संपादक मण्डल वे शामिल रहे। “व्हील ऑफ हिस्ट्री” जैसे लोहिया के ग्रंथ का ‘इतिहास चक्र’ के नाम से अनुवाद भी किया। कहना न होगा, इतने बड़े बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ दीपक लोहिया के सत्याग्रह के सिपाही भी हमेशा बने रहे। उन्होंने लोहिया की वैचारिकी को बहुत अच्छे ढंग से समझा और अपने लेखन तथा शिक्षण शिविरों में पारिभाषित भी किया। 

      इन्दूमति केलकर द्वारा लिखित “डॉ० राममनोहर लोहिया जीवन और दर्शन”, लोहिया की एकमात्र विस्तृत जीवनी है, लोहिया पर लिखी गई अधिकतर किताबों में इसी पुस्तक का सहारा लिया गया है। जयप्रकाश नारायण ने इसके आशीर्वचन में लिखा है. “श्रीमती इंदू केलकर समाजवादी आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्ता रही है। डॉ॰ लोहिया से उनका निकट संबंध था, उन्होंने इस पुस्तक में लोहिया के जीवन तथा कार्यों को निष्ठापूर्वक प्रस्तुत करने का प्रयास किया है…. जिन पाठकों को लोहिया से मिलने का अवसर नहीं मिला, वे इस पुस्तक में लोहिया के उथल-पुथल भरे जीवन उनके अत्यंत मौलिक चिंतन की झलक पा सकेंगे।

 किताब में शामिल उनका लेख ‘लोहिया का अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन’ लोहिया की सियासत का सबसे विवादास्पद तथा चर्चित अंग था, जिसके कारण लोहिया को अंग्रेज़ी पढ़े लिखे भद्र समाज तथा शासन में बैठे उच्च अधिकारियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों तथा दक्षिण के नेताओं का भयंकर रोष का शिकार होना पड़ा था। लोहिया की भाषा नीति पर प्रकाश डाल रहा है। लोहिया ने लिखा था। “एक चीज़ याद रखना यह सब इसलिए नहीं है कि अंग्रेज़ी विदेशी भाषा है। यह तो है ही लेकिन खाली विदेशी भाषा होने से बात समझ में नहीं आती। विदेशी-भाषा लेकिन उनके साथ ही साथ बड़ा रोग है कि यह सामंती भाषा है। ठाट-बाट की, शान-शौकत की, बड़े लोगों की, धनवानों की, एक प्रतिशत लोगों की सामंती भाषा है और अपने देश पर संस्कृति का यह कोढ़ फूट रहा है – एक तरफ़ सामंती संस्कृति और दूसरी तरफ़ जनता की संस्कृति जो डेढ-दो हज़ार वर्ष से चली आ रही है।”

 मध्यप्रदेश के सोशलिस्ट नेता जगदीश जोशी ने अपने ‘खालीपन का गीतः एक संस्मरण’ में रीवा के पास ‘उचेहरा’ गाँव से लोहिया के लगाव का चित्र खींचा है। वह लोहिया की दादी का गाँव था, बचपन में ही माँ का साया उठने के कारण, उनका लालन- पालन दादी ने ही किया था। सतना के स्टेशन पर डॉ. लोहिया की दादी लोहिया से शादी करवाने के लिए किसी लड़की को दिखाने के लिए लाई थी। जोशी जी का अनुमान था कि ऐसा लगता कि जैसे दादी की इच्छा पूरी न कर पाने का खालीपन उनके अंदर रहा।

 पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे, एक लोकप्रिय मराठी लेखक, नाटककार, अभिनेता, कथाकार, पटकथा लेखक, गायक, संगीतकार जिनको अनेकों पदवी और पुरस्कारों से नवाजा गया, जिन्होंने रविन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध रचना गीतांजलि का मराठी अनुवाद भी किया, उन्होंने ‘लोहिया-एक रसिक तपस्वी’ में “अंग्रेजी हटाओ” का नारा देने वाले डॉ० लोहिया की अंग्रेज़ी की तारीफ़ करते हुए लिखा डॉ० लोहिया अंग्रेज़ी के पण्डित थे। अंग्रेज़ी लिखने या बोलने में व्याकरण की एक छोटी सी गलती भी झट से उनकी समझ में आ जाती थी वह लिखते है लोहिया जी में जो कवि है यह मैंने देखा । रंग, रस, गंध, स्पर्श, नाद इनका यह आदमी इतना चहेता होगा इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी।

 राजेश्वरी प्रसाद ने ‘लोहिया की इतिहास दृष्टि में’ लोहिया की पुस्तक ‘इतिहास चक्र’ को आधार बनाकर उसके दार्शनिक पक्ष की मीमांसा की है। लोहिया द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी पुस्तक ‘व्हील ऑफ हिस्ट्री’ जिसका हिंदी अनुवाद ‘इतिहास चक्र’ की शक्ल में प्रकाशित हुआ, के बारे में कहा जा सकता है कि लोहिया के वैचारिक दर्शन को जानने के लिए यह सबसे अच्छा मार्ग है। लोहिया ने इस किताब में बताया है कि सभ्यताएं किस रास्ते को अपनाकर मानवता को उत्थान-पतन, कष्टों से छुटकारा दिलवा सकती है। लोहिया इसमें चेताते है श्रेष्ठता, जोरावरी इतिहास में बदलती रहती है जो पहले शीर्ष पर है वह नीचे और जो नीचे है उसके ऊपर जाने की प्रक्रिया मुसलसल चलती रहती है। इसमें वे कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित रैखिक विकास, दर्शन की सीमाएँ भी गिनवाते हैं।

 मार्क्स और हीगेल के इतिहास दर्शन में बुनियादी एकरूपता भी दर्शाते है। हिंदुस्तानी संदर्भ में वर्ग और वर्ण का उदाहरण देकर ‘अस्थिर वर्ण को वर्ग कहते है और स्थायी वर्ग वर्ण कहलाते हैं, जो लोग मानव समाज के सभी वर्गों और वर्णों का अंत चाहते है, उन्हें मानव इतिहास की प्रेरक शक्तियों को समझना होगा। इसमें लोहिया जड़ और चेतन के संबध पर भी रोशनी डालते है। लोहिया इस पुस्तक में इतिहास चक्र तोड़ने और उसकी प्रक्रिया पर विचार करते है, परंतु क्या यह चक्र टूटेगा इसकी कोई भविष्यवाणी लोहिया नहीं करते परंतु उन संभावनाओं को टटोलते है जिसमें इतिहास चक्र टूट सके।

लोहिया मानव की मुक्ति और तरक्की के लिए कुछ बातों को बेहद ज़रूरी मानते हैं: दुनिया में जो भी उपलब्ध है वह सभी इंसानों के लिए हो। इसमें क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता, समूहों जाति, वर्ग, लिंग, रंग किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए।

 निज़ाम इस बात की गारंटी करे कि नागरिकों की मुकम्मल शख्सियत की हिफाजत के साथ-साथ उसकी इंसानियत के इजाफे की भी पूरी गूंजाइश हो, उसकी दिमाग़ी, रूहानी, पाक-साफ़ ज़रूरतें भी पूरी हो तथा उसकी इंसानियत से भरी इन तरंगों का विकास हो। लोहिया की नज़र में संपूर्ण कौशल पर टिका ही समाज ही सही होता है।

 काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे शिवप्रसाद सिंह हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे । ‘नीला चाँद’, ‘कोहरे में युद्ध’, ‘दिल्ली दूर है’, ‘गली आगे मुड़ती है जैसी उनकी रचनाओं पर व्याससम्मान, साहित्य अकादमी जैसे कई सम्मानों से सम्मानित किया गया था। बौद्धिक रूप से वे लोहिया से प्रभावित थे। जवाहरलाल नेहरू के भी वे प्रशंसक थे। नवंबर 1977 में धर्मयुग में उन्होंने ‘नेहरू की प्रासंगिकता’ लेख में लिखा : “नेहरू का सांस्कृतिक व्यक्तित्व अत्यंत मनोहारी था…. संस्कृतियों के हजारों फूल खिलते रहे, वे इसके लिए बड़े जागरूक और उत्सुक थे।”

 परंतु लोहिया से तुलना करते हुए शिवप्रसाद सिंह लिखते है: “सब कुछ होते नेहरू का सांस्कृतिक व्यक्तित्व एक स्वप्नद्रष्टा का व्यक्तित्व था, वे लोहिया की तरह ठोस धरती की बात नहीं करते और न तो उनके आचरण में ही यह प्रतिफलित नेहरू-छायावादी व्यक्तित्व के निकट थे, उनमें गरिमा थी, सांस्कृतिक प्रेम था, व्यक्ति- स्वातंत्र्य के प्रति निष्ठा थी, पर वे वायवी (पश्चिमी) दुनिया से अपना संबंध तोड़ नहीं पाये । किताब में शामिल किये गए लेख ‘लोहिया का सांस्कृतिक मानस’ में वे लोहिया की सांस्कृतिक दृष्टि में वे सभी बातें प्रमाण सहित पेश करते हैं। 

              *(जारी- है)*

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