Site icon अग्नि आलोक

बहुत बाउम्मीद….कोई तो ऐसा रहनुमा आगे आएगा जो अँधेरे में रंग भरना सिखाएगा!

Share

ओम वर्मा

दुनिया में न जाने क्यों रंग अब अपनी रंगत खोने लगे है! सफ़ेद रंग का नाम आते ही मेरी पीढ़ी के लोगों की आँखों के सामने सबसे पहले जो छबि आती थी वह है खादी की धोती पहने चरखे पर सूत कातते बापू और राष्ट्रीय त्योहारों पर अपने हाथों से सफ़ेद कबूतर उड़ा उड़ाकर शांतिदूत बन चुके नेहरू जी या फिर श्वेत वस्त्रावृता व श्वेत कमल पर विराजित देवी सरस्वती या सफ़ेद साड़ी पहने “ऐ मेरे वतन के लोगों…” गाकर चाचू को द्रवित कर देने वाली सरस्वती कन्या लता! मगर आज सफ़ेद रंग अपनी मूल पहचान से बहुत दूर निकल चुका है।

सफ़ेद रंग का जिक्र छिड़ते ही आज लोगों के जहन में पहला सवाल यह पैदा होता है कि आखिर उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे? अब वह अपनी कमीज को सफ़ेद तो कर नहीं पाता लिहाजा दूसरे की कमीज गंदी करने में जी जान से जुट जाता है। आज लोगों के सामने सफ़ेद रंग को उच्चारते ही या तो शहीदों की विधवाओं या आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाओं की सफ़ेद साड़ियाँ लहराने लगती हैं। क्रिकेट के दीवानों के सामने सफ़ेद रंग पहले क्रिकेट खेलते खिलाड़ियों की तस्वीरें अवश्य उभरती थीं लेकिन अब खिलाड़ियों से ज्यादा चीयर लीडर्स बालाएँ दिमाग पर छाने लगी हैं!


पीले रंग का नाम लेते ही पहले ध्यान या तो सरसों व अमलतास के फूल या फिर निमंत्रण हेतु दहलीज पर रखे गए पीले चावल के दानों की ओर जाता था। अब रस्मों में पीले चावल आना तो डाक से आने वाली मित्रों की चिट्ठियों की तरह कभी के बंद हो चुके हैं अलबत्ता पीले रंग की बात चलते ही ध्यान उन चेहरों की ओर चला जाता है जो पिछले दिनों कभी प्याज खरीदते समय तो कभी तुअर की दाल के भाव सुनते समय देखे गए थे। आजकल पीला रंग उन भाई लोगों के चेहरों की याद भी दिला देता है जो उस समय देखे जाते हैं जब महज विरोध करने के जोश में आतंकवादियों के समर्थन में गला फाड़ने वालों का समर्थन भी कर बैठते हैं व अपने कुतर्कों से उसे जस्टिफ़ाई करने का प्रयास करने लगते हैं। पीले रंग की बात चले तो ध्यान हल्दी पर भी चला जाता है। हल्दी सामने धरी भी हो तो तमाम तरह की आजादी की बात करने वालों को हल्दी घाटी की याद भले न आए पर वे यह सोचकर मन मसोसकर रह जाते हैं कि वे चाहकर भी अपने विवाह के समय ‘गठबंधन से चाहिए…आजादी’’ का नारा क्यों नहीं लगा पाए थे।


लाल रंग इस समय ज्यादा ही सुर्खियाँ बटोर रहा है। लाल रंग का जिक्र होते ही पहले गुलाब, गुलमोहर, सुहागिनों की माँग, बिंदियों, चूड़ियों व मंदिरों में लहरा रही ध्वजाओं का ध्यान आता है। किन्तु अब लाल रंग का नाम सुनते ही एक आम आदमी तो लरज़ कर ही रह जाता है क्योंकि या तो उसके सामने उदयपुर उभरता है या बदायूँ! या राजधानी के वे नए उभरे ‘क्रांतिकारी’ जो इसलिए शर्मिंदा हैं कि एक आतंकवादी को सजा क्यों दे दी गई। आज लाल रंग का नाम लेते ही उन भ्रमित युवाओं का गले फाड़कर नारे लगाना दिखाई देता है जो अपने ही आज़ाद देश में आज़ादी ले के रहने की या देश के टुकड़े होते देखने की माँग कर रहे हैं।


नीले रंग पर बात हो तो सबसे पहले नीले आकाश, नीले मेघ और कभी नीली छतरी वाले की याद आने लगती है। पहले नीला रंग या तो सदियों से कागज पर उतारे जा रहे हर्फ़ों का स्मरण करवाता था या जहर पीकर कंठ में रख लेने वाले महादेव का। अब यह भी अपने अर्थ से भटकने लगा है। जहर पी लेने वालों को हमने सिर्फ तस्वीरों व मंदिरों में कैद कर रखा है जबकि जहर उगलने वालों के कुनबों में दिन दूनी-रात चौगुनी वृद्धि हो रही है। नीला झण्डा देखकर एक वर्ग विशेष को अपने धर्मग्रंथों की चिंता होने लगी है कि पता नहीं कब कुछ लोग आकर तहस नहस कर डालें।


हरे रंग का नाम लेते ही पहले दो चीजों पर ध्यान जाता था – सूफी संतों के आस्तानों व पैगंबरों के सीखों पर या वसुंधरा की हरियाली और पर्यावरण की चिंताओं- अभियानों का। मगर अब इन सबसे पहले एक राज्य में अलगाववाद की बातें करने वाली कुछ शक्तियाँ या देश में पंद्रह मिनट के लिए पुलिस हटाकर देखने की बात करने वाले पहले ध्यान खींचते हैं। और लास्ट बात नॉट द लीस्ट है ब्लैक यानी काला रंग! ब्लैक बोलो तो याद आती है संजय लीला भंसाली की फिल्म ब्लैक और उसकी अंधी, गूँगी व बहरी लड़की व उसके शिक्षक की मार्मिक कहानी। सहगल प्रेमियों के दिमाग में मधुर गीत ‘सुन सुन ऐ किशन काला…’ कौंधने लगता है। काले से याद आती है काली माँ या काला तिलक और अपने लाल को डिठौना लगाने वाली माँ। अब काला रंग ‘रेडिकलाइजेशन’ का पर्याय बनता जा रहा है। सच बोलने वाले का मुँह बंद करने में भी इसका प्रयोग अब वर्जित नहीं है। और हाँ खबरदार जो किसी ने काले धन को लाने की बात करी तो!


बहरहाल मैं बहुत बाउम्मीद हूँ कि सभी रंग अपने मूल अर्थ को शीघ्र चरितार्थ करेंगे। कोई तो ऐसा रहनुमा आगे आएगा जो अंधेरे में रंग भरना सिखाएगा और नई तितलियों से सुंदर और नए व इंद्रधनुष से ज्यादा सुगठित गुलदस्ते का निर्माण करेगा। जोनाथन स्विफ्ट ने गलत नहीं कहा था कि “दुनिया में सबसे बुद्धिमान लोग वे होते हैं जो रंगों के बारे में सर्वाधिक सोचते हैं।“ आओ प्रार्थना करें कि आकाश शीघ्र ही रंग-बिरंगे गुब्बारों और सफ़ेद कबूतरों से भरा हो जाए!

Exit mobile version