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पुरुष के स्पर्श की मंशा पहचानती हूँ

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सोनी कुमारी, वाराणसी

मैं एक स्त्री हूँ,
हर पुरुष के स्पर्श की
मंशा को पहचानती हूँ
और हर स्पर्श की
व्याख्या करने में
अब संकोच करूँ
ऐसी अब मेरे देश की स्थिति नहीं
मुझे बोलना पड़ेगा।
आज बेझिझक होकर
उन स्पर्शों का स्पष्टीकरण करती हूँ।

मेरे शीर्ष को चूमते हुए बाबा ने
मेरी सफलताओं की जब स्तुति की,
वो स्पर्श उनका मेरे प्रति
आश्वासन से परिपूर्ण था,
वो स्पर्श मेरा उनके प्रति
कृतज्ञता से सम्पूर्ण था,
वो स्पर्श हम दोनों में आशा का
आधार था,
वो स्पर्श एक लगाव था
एक निष्ठा थी, सद्भाव था।
हाँ ! मैं इस स्पर्श का
समर्थन करती हूँ।

बाबुल का घर छोड़ चली जब
भाई मेरा रोया था,
घर से बिदा कर मुझको,
जाने कितनी रात ना सोया था,
कस कर मुझको गले लगाया,
बोला बहना सुखी रहना।
उस स्पर्श से मैं सुरक्षित थी,
उस स्पर्श में कितनी तृप्ति थी,
उस स्पर्श में कोई पाखण्ड न था,
उस स्पर्श में कितनी भक्ति थी।
हाँ ! मैं ऐसे स्पर्श को हर जन्म की
स्वीकृति देती हूँ।

मैं अपने पति का स्पर्श भी जानती हूँ,
उस स्पर्श में जीवन भर का समर्पण है,
उस स्पर्श में अनुराग है
प्रणय है,
उस स्पर्श में एक सुभगता है
प्रेम का बंधन है,
वो मात्र स्पर्श नहीं मेरे लिए,
वो प्रतिस्पर्श है।
और इस स्पर्श के लिए
मैं उत्सुक हूँ,
हाँ ! मैं इस स्पर्श को
मंजूरी देती हूँ।

मैं अपने प्रेमी का
स्पर्श भी जानती हूँ,
जिसमे हो सकता है
समर्पण ना हो,
जिसमे जग की रुसवाइयाँ
सहनी पड़ें
पर उस स्पर्श में वात्सल्य है,
उस स्पर्श में प्रेम रस है
प्रेम प्रसंग है,
लालसा है, आभार है,
और उस स्पर्श के लिए
मैं व्याकुल हूँ,
हाँ ! मैं इस स्पर्श को
स्वीकृति देती हूँ।

कुछ कंधे रोने के लिए
ऐसे भी हैं
जो ना मेरे बाबा के हैं
ना भाई के,
कुछ अश्रुओं को पोंछने वाले
हाथ ऐसे भी हैं
जो ना मेरे पति के हैं
ना मेरे प्रेमी के हैं,
ऐसे कुछ मित्र हैं मेरे
जो पुरुष हैं लेकिन,
मैं उनके स्पर्श से
भलीभाँति परिचित हूँ,
उनके स्पर्श में एक आदर है,
उन स्पर्शों में सत्कार है
सम्मान है,
उन स्पर्शों का एक दायरा है,
उन स्पर्शों को अपनी
हद मालूम है,
हाँ ! मैं ऐसे मित्रों के
स्पर्श को रज़ामंदी देती हूँ।

पर बात यहाँ ख़त्म नहीं होती,
कुछ स्पर्श ऐसे भी हैं
जिनको मैंने कभी मंजूरी नहीं दी,
कुछ स्पर्श हाथ से भी ना थे,
पर उनकी कुदृष्टि के स्पर्श से,
मैंने खुद को नग्न पाया,
वो स्पर्श ना मेरे बाबा का था,
ना मेरे भाई का ,
वो स्पर्श ना मेरे स्वामी का था,
ना मेरे अनुरागी का,
वो स्पर्श करने वाला कभी कोई अंजान था,
कभी आस पास का,
वो स्पर्श , स्पर्श नहीं था,
वो स्पर्श मेरे स्त्री पैदा होने पर
सवाल था,
क्यूंकि वो स्पर्श, स्पर्श नहीं,
मेरे आस्तित्व पर आघात था,
वो स्पर्श स्त्री शरीर पाने पर प्रहार था,
वो स्पर्श घृणित कर देने वाला स्पर्श था,

उस स्पर्श से मैं विचलित
हो जाती हूँ,
उस स्पर्श से मैं टूट जाती हूँ।
जिस स्पर्श में विवशता हो,
जबरदस्ती हो,
जिस स्पर्श में लाचारी हो,
बंधन हो।
जो स्पर्श मुझे मेरी अनुमति ,
सहमति , स्वीकृति के बिना मिले,
उस स्पर्श से मैं खंडित हो जाती हूँ।
मैं एक स्त्री हूँ,
पुरुष के स्पर्श की मंशा को
पहचानती हूँ।

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