ना दिवाली होती,
और ना पठाखे बजते
ना ईद की अलामत,
ना बकरे शहीद होते
काश तू भी इंसान होता,
काश मैं भी इंसान होता,
काश कोई धर्म ना होता !
काश कोई मजहब ना होता
ना अर्ध्य देते,
ना स्नान होता
ना मुर्दे बहाए जाते,
ना विसर्जन होता
जब भी प्यास लगती,
नदियों का पानी पीते
पेड़ों की छाव होती,
नदियों का गर्जन होता
ना भगवानों की लीला होती,
ना अवतारों का नाटक होता
ना देशों की सीमा होती ,
ना दिलों का फाटक होता
ना कोई झूठा काजी होता,
ना लफंगा साधु होता
इंसानियत के दरबार में,
सबका भला होता
काश तू भी इंसान होता,
काश मैं भी इंसान होता,
काश कोई धर्म ना होता !
काश कोई मजहब ना होता !
कोई मस्जिद ना होती !
कोई मंदिर ना होता !
कोई दलित ना होता !
कोई काफ़िर ना होता !
कोई बेबस ना होता !
कोई बेघर ना होता !
किसी के दर्द से कोई
बेखबर ना होता !
ना ही गीता होती !
और ना कुरान होती !
ना ही अल्लाह होता !
ना भगवान होता !
तुझको जो जख्म होता,
मेरा दिल तड़पता.
ना मैं हिन्दू होता,
ना तू भी मुसलमान होता
काश तू भी इन्सान होता,
काश मैं भी इन्सान होता ।
साभार-सुप्रसिद्ध कवि स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन
संकलन -निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र