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अमेरिका में अगर वो नहीं जीते, तो देश का भविष्य अंधकारमय 

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सत्येंद्र रंजन

अमेरिका में कल, मंगलवार- पांच नवंबर- को अगला राष्ट्रपति चुनने के लिए मतदान होगा। वैसे वोट हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव (कांग्रेस यानी संसद के निचले सदन) और सीनेट (ऊपरी सदन) के एक तिहाई सदस्य, तथा कई राज्यों में गवर्नर एवं विधायिकाएं चुनने के लिए भी डाले जाएंगे।

मगर दुनिया की निगाहें स्वाभाविक रूप से राष्ट्रपति चुनाव पर टिकी हुई हैं, जिसको लेकर अब तक धुंध नहीं छंटी है। 

अगर दर्जनों सर्वे एजेंसियां चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण में जुटी हुई हों और सब अलग-अलग (संभवतः अपने राजनीतिक रुझान से प्रभावित होकर भी) अनुमान जता रही हों, तो जाहिर है, उनसे कोई संकेत मिलने के बजाय स्थिति और भ्रामक बन जाती है।

वैसे भी इन एजेंसियों का हालिया रिकॉर्ड भी ऐसा है, जिसकी वजह से उनके अनुमानों को लेकर अविश्वास बने रहना लाजिमी है। फिर अपने को ‘चुनाव गुरु’ बताने वाले अनेक विश्लेषक हैं, जिनके अनुमानों में भी मेल नहीं है। ऊपर से सट्टा बाजार है, जहां सुबह से शाम के बदलते तापमान की तरह अनुमान बदलते रहे हैं। 

फिर भी हमारे पास ये ओपिनियन पोल और विश्लेषकों के अनुमान ही वो उपलब्ध स्रोत हैं, जिनसे हम (भारतीय समय के अनुसार) बुधवार सुबह सामने आने वाले चुनाव परिणाम के बारे में कुछ अंदाजा लगा सकते हैं।

(वैसे चुनाव परिणाम जाहिर होने में इस बार देर भी हो सकती है। वजह यह है कि सात करोड़ से अधिक मतदाता डाक से अथवा ड्रॉप-इन बॉक्सों में मतपत्र गिरा कर मतदान कर चुके हैं। उनकी गणना में अधिक समय लग सकता है। उधर कानूनी चुनौतियां दी गईं, तो परिणाम की घोषणा में देर होगी। अनुमान है कि नौ से दस करोड़ और मतदाता मंगलवार को वोट डालेंगे।) 

realclearpolitic.com एक ऐसी वेबसाइट है, जो सभी सर्वेक्षणों को विस्तार से और फिर उनके निष्कर्षों का औसत पेश करती है। औसत के आधार पर वह दोनों दलों को इलेक्ट्रॉल कॉलेज में मिल सकने वाली सदस्य संख्या का अनुमान लगाती है। उसके मुताबिक, 

(बैटल ग्राउंड या टॉस अप या स्विंग स्टेट उन राज्यों को कहा जाता है, जहां हाल के चुनावों में रुझान बदलता रहा है। बाकी राज्यों में एक ट्रेंड स्थापित है, जहां से डेमोक्रेट या रिपब्लिकन की जीत तय मानी जाती है।)

इस तरह इस बार दोनों पक्षों के पास अपनी जीत के दावे करने के लिए अपने माफिक चुनावी ‘भविष्यवाणियां’ मौजूद हैं। नतीजतन, तीखे ध्रुवीकरण एवं कड़वाहट भरे सियासी माहौल का शिकार इस देश में (भारतीय समय के अनुसार) छह नवंबर की सुबह जो चुनाव नतीजे आएंगे, उन्हें दोनों पक्ष सहज स्वीकार कर लें, इसकी संभावना लगातार घटती चली गई है।

गौरतलब है कि दोनों प्रमुख दलों, डेमोक्रेटिक एवं रिपब्लिकन, ने काउंटी (जिला) से लेकर राज्य स्तरों तक चुनावी नतीजों को चुनौती देने की व्यापक कानूनी तैयारियां की हैं।  

यह गौर करने की बात है कि अभूतपूर्व कड़वाहट भरे माहौल में चले चुनाव अभियान के बीच दोनों उम्मीदवारों, उप राष्ट्रपतिअगर वो नहीं जीते, तो देश का भविष्य अंधकारमय के बीच सिर्फ एक बात पर सहमति रही। वो यह कि अगर वो नहीं जीते, तो देश का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

दोनों के प्रचार अभियान का सार है, ‘अमेरिका एक मोड़ पर है, और मेरी हार हुई, तो देश अभी जैसा नहीं रह जाएगा।’ इसी भावना से प्रेरित होकर दोनों पक्षों से बार-बार कहा गया है कि ‘पांच नवंबर हमारे देश के इतिहास का सबसे अहम दिन है।’ संदेश यह है कि ‘अगर मेरी जीत नहीं हुई, तो देश बर्बाद हो जाएगा।’

डेमोक्रेटिक पार्टी ने यह डर फैलाते हुए चुनाव अभियान चलाया है कि ट्रंप जीते, तो देश में लोकतंत्र का खात्मा हो जाएगा। इस पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस ने ट्रंप की तुलना हिटलर से की है और उनकी जीत के साथ फासीवाद के आगमन की चेतावनी दी है।

उधर ट्रंप ने बार-बार कहा है कि जो बाइडेन, कमला हैरिस ने अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया है, अवैध आव्रजकों को बुलाकर अमेरिकियों की सुरक्षा एवं भविष्य को खतरे में डाल दिया है, विदेशों में अमेरिका की प्रतिष्ठा नष्ट कर दी है। ऐसे में हैरिस जीतीं, तो अमेरिका निश्चित रूप से तीसरी दुनिया का देश बन जाएगा।

ट्रंप और उनके समर्थक आज भी मानते हैं कि 2020 में उनकी जीत को डेमोक्रेट्स ने चुरा लिया था। अब उन्होंने चेतावनी दी है कि हैरिस जीतीं, तो उसके बाद देश में कभी स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं हो पाएगा।  

इन कथानकों ने देश में अविश्वास, टकराव और ध्रुवीकरण को अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ा दिया है। वैसे तो 2016 के बाद से देश ऐसे ही राजनीतिक वातावरण में है, लेकिन इस बार दोनों दलों, डेमोक्रेटिक और रिपब्लकिन की तरफ से जैसा नकारात्मक चुनाव अभियान चलाया गया, उससे माना जा रहा है कि ये माहौल अब खतरनाक सीमा तक पहुंच गया है।

यह आशंका गहरी है कि पराजित पक्ष ना सिर्फ कानूनी स्तर पर, बल्कि सड़कों पर उतर कर भी चुनाव नतीजों को चुनौती दे सकता है। 

दरअसल, दूसरे पक्ष को देश के लिए खतरा और देश का दुश्मन बताते हुए अगर चुनाव अभियान चलाया जाए, तो में फिर किसी सकारात्मक बहस की गुंजाइश नहीं बचती। 20वीं सदी के मध्य दशकों में अमेरिका में राष्ट्रपति उम्मीदवारों के बीच टेलीविजन पर होने वाली सार्वजनिक बहस से देश और विदेश के लिए उनका एजेंडा सामने आता था।

मगर ताजा ट्रेंड यह है कि अब या तो बहस होती ही नहीं है, या फिर बहस तू तू-मैं मैं, बल्कि सियासी गाली-गलौच में तब्दील हो जाती है। इस बार की पहले बाइडेन-ट्रंप और फिर हैरिस-ट्रंप के बीच हुई बहसें इस बात की मिसाल हैं। 

ताजा माहौल का परिणाम है कि दोनों उम्मीदवारों को करोड़ों समर्थक प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार को देश का दुश्मन मानते हैं। उसकी जीत उनकी राय में देश के दुश्मन की जीत होगी। ऐसे में चाहे जो जीते, उसे करोड़ों लोग देश का दुश्मन समझेंगे। 

वैसे हकीकत यह है कि यह माहौल दोनों दलों के लिए सुविधाजनक है, क्योंकि दोनों ही प्रमुख पार्टियों के पास आज के गहराते आर्थिक संकट से अमेरिका को निकालने का कोई व्यावहारिक कार्यक्रम नहीं है। जब ऐसी स्थिति विमर्श का स्तर गिरना और आशंकाएं फैलाना उनकी सियासी रणनीति बन गई है। बढ़ता सामाजिक टकराव उसकी स्वाभाविक परिणति है। 

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