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ये जातिवाद नही तो और क्या है….दीपिका कुमारी बनी इसका शिकार

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संजय रोकड़े

मुझे बड़ा ही हास्यास्पद लगता है जब लोग ये कहते कि हिंदुस्तान में अब जातिवाद नही है।

सच तो ये है कि जातिवाद अब पहले से और ज्यादा घिनौने तरीके से होने लगा है।
जब से देश में पिछड़ी जाति, दलित और आदिवासी समाज की प्रतिभाएँ खुद के बल पे अपना एक मुकाम बनाने लगी है तब से ब्राह्मणवाद को बढावा देने वाले तथाकथित ब्राह्मणवादियों, राष्ट्रवादियों के सिने पे तलवारें चलने लगी है।

इसका एक जीता जागता प्रमाण दीपिका कुमारी है। दीपिका कुमारी पिछ्डें वर्ग की कुम्हार जाति से सरोकार रखती हैं। हालाकि यहां मेरा मकसद दीपिका की जाति को उजागर करना नही बल्कि मैं उन लोगों को बेनकाब करना चाहता हूँ जो दीपिका कुमारी महतो की जाति जानने के बाद उसकी उपलब्धि पर खामोश हैं।

दीपिका कुमारी महतो 2012 से इंटरनेशनल तीरंदाजी खिलाड़ी हैं। कल उसने तीरंदाजी विश्व कप प्रतियोगिता में तीन गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच दिया है।

दीपिका कुमार महतो द्वारा 2012 से 2021 के बीच जीते गए गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉन्ज मैडल की सूची भी आपके समक्ष रख रहा हूं । जो इस प्रकार है।

वर्ल्ड कप में – 10 गोल्ड, 13 सिल्वर और 5 ब्रॉन्ज.
एशियन गेम्स – 1 ब्रॉन्ज.
कॉमनवेल्थ गेम्स – 2 गोल्ड.
एशियाई चैंपियनशिप – 1 गोल्ड, 2 सिल्वर, गोल्ड 1.
वर्ल्ड चैंपियनशिप – 2 सिल्वर।

बता दूं कि अपने खेल जीवन में कुल 37 गोल्ड मेडल जीतने वाली दीपिका कुमारी महतो का जन्म झारखंड में एक साधारण कुम्हार परिवार में हुआ है।

दीपिका के पूर्वज ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मिट्टी के बर्तन बनाते थे और अब पूंजीवादी व्यवस्था में पिता शिवनारायण महतो ऑटो चालक है जबकि उसकी माता जी रांची मेडिकल कॉलेज में नर्स थीं।

पिछड़ी जातियों के परिवार में जन्में और पले बढे बच्चों को जन्म से ही सारी सुविधायें मुहैया नही हो जाती है। उन्हें एक सफल इंसान बनने के लिए अपनी हॉबी को ही केरियर के रुप में आगे बढ़ाना होता है।

दीपिका भी उनमें से एक है। दीपिका बचपन से ही आम खाने के लालच में आम के पेड़ों पर निशाना साधने लगीं थी। सटीक निशाना साधने के गुण ने दीपिका के दिलों दिमाग में तीरंदाज बनने की आकांक्षा को जन्म दिया।

हालाकि माता पिता की माली हालत इतनी अच्छी नही थी कि वे अपनी लाड़ली को एक सफल तीरंदाज बना सके।

इस परिवार की आर्थिक स्तिथि बेहद खराब थी। वे अपनी बेटी का उत्साह तो बढ़ा सकते थे लेकिन ओलंपिक जैसे खेल में लगने वाली गुणवत्तापूर्ण व महंगी धनुष-बाण खरीद कर देने में अक्षम ही थे।इसके अलावा भी तमाम दूसरी सुविधायें जुटा कर दे पाना उनके बस में नही था।

फिर भी दीपिका एकलव्य की तरह अपने धनुष बाण परंपरागत तरीके से बांस के बनाकर अभ्यास करती रही।

हालाकि तीरंदाज चचेरी बहन विद्या कुमारी की हौसला अफजाई से दीपिका को टाटा तीरंदाजी एकेडमी में दाखिला मिल गया। इसके बाद दीपिका कुमारी महतो ने अपनी काबिलियत के बल पर एक अलग मुकाम हासिल करने की ठानी।

मौका हाथ लगने के बाद दीपिका ने कभी पीछे मुड़ कर नही देखा। उसने देश का नाम रोशन करने वाली हर स्पर्धा में अपना बेस्ट से बेस्ट देने की भरपूर कोशिश की।

लेकिन दुखद ये है कि दीपिका को किसी ब्राह्मण बच्चें की तरह मिलने वाली सफलता के बाद मिलने वाली वाहवाही और प्रसिद्धि नही मिली।

वह दूसरे स्वर्ण खिलाडियों की तरह मान सम्मान प्यार और पब्लिसिटी नही पा सकी जिसकी वो हकदार थी।

विश्व कप तीरंदाजी में तीन गोल्ड मेडल जीतने के बाद भी मीडिया, सवर्ण समाज व सरकार ने वो उत्साह नही दिखाया जो उत्साह स्वर्ण बच्चों की उपलब्धि पे दिखाया जाता है।

दीपिका की सफलता को लेकर हर तरफ खामोशी पसरी है।

दीपिका की जगह अगर एक भी गोल्ड मेडल किसी ब्राह्मण लड़की ने जीता होता तो मीडिया उत्सव मनाता। सरकारें इनामों का अम्बार लगा देती। और तो और स्वर्ग से देवता भी फूल बरसाते लेकिन दीपिका के मामले में ऐसा कुछ भी नही हुआ।

दुखद बात तो ये कि पिछ्डों के हिमायती बनने वाले तथाकथित राष्ट्रवादियों ने भी चुप्पी साध रखी है। इनके बीच भी दीपिका को लेकर कोई उत्साह नही दिखाई दिया।

असल में इन राष्ट्रवादियों का चरित्र ही दौगलेपन से भरा है। जब किसी पिछड़े, दलित और आदिवासी बच्चें को कोई सफलता मिलती है तो ये अंदर के अंदर ही जल मरते है जबकि यही सफलता किसी ब्राह्मण बच्चें को मिलती है तो इनकी बाछें खिल जाति है।

जो लोग ये कहते है कि अब देश से जातिवाद मिट गया है उनको इस तरह का जातिवादी कृत्य क्यूं नही दिखाई देता है।

ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाले पिछडों की नजरों से भी इस तरह का जातिवाद ओझल क्यूं है। क्यूं वे ब्रामणवादी व्यवस्था के गुलाम बन कर हर समय अपमान बोध का घुट पीने को तत्पर रहते है।

बहरहाल इस देश से जातिवाद मिटा नही है बल्कि और गहरा हुआ है। अब जातिवाद के रुप बदल गये है। जातिवाद आज भी पूरी तरह से जिन्दा है। नही तो दीपिका के मामले में ऐसा नही होता। जातिवाद नही होता तो दीपिका को भी वही मान सम्मान, मिडिया में प्रसिद्धि और समाज से प्यार मिलता जो स्वर्णौं को मिलता है। खैर। जाते जाते।

जागो पिछ्डें जागो।
दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों से भाईचारा कायम कर
ब्राह्मणवाद की गुलामी से मुक्ति पाओ।

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