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‘लड़ें तो जीत भी सकते हैं, ना लड़ें तो हार तय है’!

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चंद्रप्रकाश झा

हम सब कॉमरेड सफदर हाशमी के पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि के लिए दिल्ली में यमुना तट पर निगमबोध घाट के इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम ले जाने के लिए विट्ठल भाई पटेल (वीपी) हाउस परिसर से रवाना होने वाले थे। मैं उस परिसर की बाउंड्री वाल से लगे यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया(यूएनआई) समाचार एजेंसी के अपने ऑफिस से सीधे आया था। अचानक लाल लिबास में वहाँ प्रगट हुए कुछ लोगों को देख हमने सबके साथ सफ़दर हाशमी शव-यात्रा में भाग लेने पहुंचे प्रख्यात साहित्यकार भीष्म साहनी (अब दिवंगत) से पूछा कि ये लोग कौन हैं? उनका जवाब था: रेड गार्ड्स हैं। हमने भी हिंदुस्तान में खुले आम सड़क पर पहली बार उतरे रेड गार्ड्स देखा है। वह हमको जानते थे, इसलिए शायद उन्होंने ये बताना जरूरी नहीं समझा कि रेड गार्ड्स क्या होते हैं। उन्हें पता था कि हम यूएनआई में पत्रकार बनने से पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र थे और वहाँ के शिक्षकों, छात्रों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारी लाल दस्ता को रेड गार्ड्स कहा जाता है। ये बात तीन जनवरी की है। वहाँ सफ़दर का शव राममनोहर लोहिया अस्पताल से लाया गया था। वह नववर्ष के पहले दिन रविवार एक जनवरी को दिल्ली के पास उत्तर प्रदेश में झंडापुर में हल्ला बोल नाम के नुक्कड़ नाटक खेलने के दौरान सत्ताधारी वर्ग के गुंडों द्वारा किये हमले में से गंभीर रूप से घायल हो गए। उनके सर को भारी चोट लगी थी। उन्हें दिल्ली लाकर अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। लेकिन अगली रात उनका निधन हो गया। हमले में गुंडों ने राम बहादुर नामक उस माईग्रेंट नेपाली मजदूर की गोली मार कर हत्या कर दी थी जिसने सफ़दर और उनकी टोली, जन नाट्य मंच (जनम) को नुक्कड़ नाटक खेलने के लिए आश्रय दिया था।

बहुत बाद में पत्रकार एवं हिंदी न्यूज पोर्टल मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक डॉक्टर पंकज श्रीवास्तव के साथ दोपहर बाद के अल्पाहार के लिए प्रेस क्लब ऑफ इंडिया (दिल्ली) आए इतिहासकारों के इतिहासकार लालबहादुर वर्मा (अब दिवंगत) ने घंटे भर की बातचीत में हमारे इस प्रसंग का जिक्र होने पर जो बताया वो चौंकाने वाला था। उन्होंने बताया कि रेड गार्ड्स के भारत में सड़क पर उतरने का यह पहली बार का ही नहीं बल्कि अभी तक का आखरी बार मौका था।

सफदर जनवादी क्रांति के लिए जिये, पढ़े, लिखे, गाये, संघर्ष किये और मारे भी गए। भीष्म साहनी जी, सफ़दर हाशमी की स्मृति में कायम सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के संस्थापकों में अग्रणी थे। सहमत का पहला कार्यालय सांसदगणों की रिहाइश के लिए प्रयुक्त वीपी हाउस में ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीएम) के एक सांसद को भूतल पर आवंटित कमरा में स्टूडेंट्स फ़ेडेरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के बने ऑफिस की बालकनी का उपयोग कर खुला था। सीपीएम के पूर्व राज्यसभा सदस्य एवं मौजूदा महासचिव सीताराम येचुरी तब एसएफआई के राष्ट्रीय पदाधिकारी थे। हम जेएनयू में चीनी भाषा एवं साहित्य एमए के पाँच साला पाठ्यक्रम की अधूरी रही पढ़ाई के दौरान एसएफआई के सदस्य थे और उसके वीपी हाउस कार्यालय जाते रहते थे। सीपीएम समर्थक कई संगठनों के कार्यालय वीपी हाउस में थे। सफदर हाशमी की मीलों लंबी चली अंत्येष्टि यात्रा वीपी हाउस से निकालने का ये बड़ा कारण था। सफ़दर सीपीएम के कार्यकर्ता थे।

सहमत

सहमत का ऑफिस अब दिल्ली में नाट्य संस्थाओं के केंद्र मंडी हाउस के पास फिरोजशाह रोड से लगे पंडित रविशंकर शुक्ल लेन पर स्थानांतरित हो गया है जहां सफ़दर हाशमी के बड़े भाई और जेएनयू के छात्र रहे इतिहासविद सोहेल हाशमी भी आते हैं। सहमत की स्थापना के तीन दशक से ज्यादा समय हो गए हैं। इसने फासीवादी ताक़तों के खिलाफ कला एवं संस्कृति के मोर्चे पर बहुतेरे लोगों को असरदार मंच दिया है। सहमत के संचालक,राजेन्द्र प्रसाद के मुताबिक देश की मौजूदा सियासत में समाज पर बहुमतवाद की रूढ़िवादी सोच थोपने  की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में सहमत, जनपक्षीय सांस्कृतिक अभियान चला रहा है।

सफ़दर की मृत्यु पर आक्रोश लहर उठी थी। देश के विभिन्न हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले इकट्ठा होते गए। सफ़दर की याद में बना संगठन, सशक्त हुआ और उसके साथ वामपंथी संस्कृतिकर्मी लामबंद होते गए। हर बरस पहली जनवरी को सहमत के वार्षिक कार्यक्रम में शास्त्रीय संगीत को अवामी प्रतिरोध का माध्यम बना उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत के रूप में पेश किया जाने लगा। सूफी संगीत, अनहद गरजै , दांडी मार्च, महात्मा गांधी, भारत का 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम , हबीब तनवीर, बलराज साहनी और मंटो , फैज़, भीषम साहनी, जवाहरलाल नेहरू, आज़ादी के बाद के साल जैसे विषयों पर कार्यक्रम आयोजित करके सहमत ने देश की सांस्कृतिक जमात को लामबंद किया।  

संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा

संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा का हमेशा से सक्रिय योगदान रहा है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन तो उसके पहले अध्यक्ष हिन्दी- उर्दू के बड़े लेखक, प्रेमचंद को बनाया गया। रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और इंडियन पीपुल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) का गठन हुआ। थियेटर के क्षेत्र में इन लोगों ने बहुत काम किया। यह जागरूकता 1947 में भारत की आजादी के बाद विभिन्न कारणों से कमज़ोर पड़ गई। सहमत के गठन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( आरएसएस ) की अगुवाई वाली दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक ताकतों को संस्कृति क्षेत्र में चुनौती दी जाने लगी। तब सहमत की करताधर्ता, सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं जो अब सहमत से अलग होकर कोई एनजीओ चलाती हैं।  

सफ़दर व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सफ़दर हाशमी का जन्म 12 अप्रैल 1954 को एक प्रगतिशील साम्यवादी परिवार में हुआ था। वह छोटी उम्र में ही साम्यवाद से परिचित हो गए। उन्होंने 1973 में जन नाट्य मंच ( जनम) की स्थापना की। और कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। उन्होंने पश्चिम बंगाल सरकार के दिल्ली स्थित सूचना केंद्र पर सूचनाधिकारी के रूप में भी काम किया। वे 1983 में उस नौकरी से इस्तीफा देकर सीपीएम के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए।  

उन्होंने सीटू जैसे मज़दूर संगठनों के अलावा जनवादी छात्रों, महिलाओं, युवाओं, किसानों के आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई। सन 1975 में आपातकाल के लागू होने तक सफ़दर हाशमी ‘जन ‘ के लिए नुक्कड़ नाटक करते रहे। उसके बाद आपातकाल के दौरान वे गढ़वाल, कश्मीर और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी साहित्य के व्याख्याता पद पर रहे। आपातकाल के बाद सफ़दर हाशमी सियासी तौर पर फिर सक्रिय हो गए। 1978 तक ‘ जनम ‘ भारत में नुक्कड़ नाटक के महत्वपूर्ण संगठन के रूप में उभरकर आया। ‘ मशीन ‘ नाटक करीब दो लाख मज़दूरों की सभा में खेला गया।

सफदर हाशमी, कम्युनिस्ट नाटककार, कलाकार, निर्देशक, गीतकार, कवि और कलाविद थे। उन्हे नुक्कड़ नाटक से उनके जुड़ाव के लिए ज्यादा जाना जाता है। सफ़दर हाशमी ने जनम की नींव 1973 में रखी थी। 12 अप्रैल 1954 को सफदर का जन्म दिल्ली में हनीफ और कौमर आज़ाद हाशमी के घर पर हुआ था। उनका शुरुआती जीवन अलीगढ़ और दिल्ली में गुज़रा, जहां एक प्रगतिशील मार्क्‍सवादी परिवार में उनका लालन-पालन हुआ, उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा दिल्ली में पूरी की। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अंग्रेज़ी में स्नातक की शिक्षा पूरी कर दिल्ली विश्वविद्यालय अंग्रेजी में एमए किया। उनका सीटू जैसे मजदूर संगठनों के साथ जनम का अभिन्न जुड़ाव रहा। जनवादी छात्रों, महिलाओं, युवाओं, किसानों इत्यादि के आंदोलनों में भी उनकी भागीदारी रही। सफदर की मृत्यु तक जनम 24 नुक्कड़ नाटकों को 4000 बार प्रदर्शित कर चुका था। इन नाटकों का प्रदर्शन मुख्यत: मजदूर बस्तियों, फैक्टरियों में किया गया था।

सफदर ने 1979 में नुक्कड़ कर्मी मलयश्री हाशमी से विवाह किया। उन्होंने न्यूज एजेंसी, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) और अंग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स में बतौर पत्रकार काम किया।

4 जनवरी 1989 को मलयश्री हाशमी ने जनम की टोली के साथ झंडापुर जाकर अधूरे छूट गए नाटक को पूरा किया। बताया जाता है कि इस घटना के 14 साल बाद गाजियाबाद की एक अदालत ने 10 लोगों को हत्या के मामले में आरोपी करार दिया जिनमें कांग्रेस का एक समर्थक शामिल था। जन नाट्य मंच 1989 की उस घटना के बाद से हर बरस पहली जनवरी को झंडापुर के उसी जगह पर कार्यक्रम करता है।https://www.youtube.com/embed/kBdYTkESF-U?feature=oembed

सफदर ने टेलीफ़िल्म स्क्रिप्ट लिखी, रंगमंच और फिल्मों पर लेख लिखे, क्रांतिकारी कविताओं और नाटकों का हिंदी अनुवाद किया। सफ़दर ने बच्चों के लिये भी नाटक,गीत और कविताएं, लिखीं। उन्होंने 1986 में दिल्ली के सरदार पटेल विद्यालय में अपनी पत्नी माला की एक सहकर्मी के कहने पर सफ़दर ने एंथन चेखोव की एक कहानी पर ‘गिरगिट’ नाटक लिखा। विद्यालय के बच्चों द्वारा इस नाटक का पहला प्रदर्शन देखने सफ़दर खुद भी गए थे। सफ़दर हाशमी ने कई वृत्तचित्रों और दूरदर्शन के लिए एक धारावाहिक ‘ खिलती कलिया ‘ का निर्माण भी किया। उनकी मृत्यु तक जनम 24 नुक्कड़ नाटकों को 4000 बार प्रदर्शित कर चुका था। इन नाटकों का प्रदर्शन मुख्यत: मज़दूर बस्तियों, फैक्टरियों और वर्कशॉपों में किया गया था। सफदर ने नुक्कड़ नाटक को सामाजिक बदलाव का एक सशक्त माध्यम माना था। वे नाटक को सभाग्रह से निकलकर सड़क और नुक्कड़ों पर ले आये। सफदर के लिए कला लोगों की बेहतर जिंदगी जीने का माध्यम रही। उनका नारा था: बेहतर विचारधारा, बेहतर नाटक, बेहतर कविता, बेहतर गीत।

उसी जगह पर चार जनवरी को खेला गया नाटक।

सफदर ने मजदूर, किसान , भोजन, आवास, रोजगार, साम्प्रदायिक सद्भाव , शिक्षा आदि मुद्दों पर नाटक लिखे और उनका नुक्कड़ मंचन किया। उनके लिखे नाटकों में मशीन, औरत, गांव से शहर तक, राजा का बाजा, हत्यारे, समरथ को नही दोष गोसाईं,  ‘ गांव से शहर तक ‘, सांप्रदायिक फासीवाद पर ‘ हत्यारे ‘ और अपहरण भाईचारे का , बेरोजगारी पर ‘ तीन करोड़ ‘, मंहगाई पर ‘ डीटीसी की धांधली और घरेलू हिंसा पर नाटक ‘ औरत ‘  शामिल है। 

निजी प्रसंग

मुझे जेएनयू में पढ़ाई के दौरान 1980 में कैंपस के एक ग्रुप द्वारा सफ़दर हाशमी के खेले गए नुक्कड़ नाटक औरत में शराबी पति का किरदार निभाने का मौका मिला। इसका निर्देशन तब स्पेनिश भाषा एवं साहित्य की छात्र और अब जामिया मिलिया में प्रोफेसर सोनिया सुरभि गुप्ता ने किया था। उन्होंने घरेलू हिंसा और महिला अधिकार पर केंद्रित इस नाटक का रिहर्सल देखने एक बार सफ़दर हाशमी को भी बुलाया। उन्होंने हमारे उच्चारण दोष को इंगित कर बड़ी डाँट लगाई और कहा : और सब तो ठीक है लेकिन औरत को बिहारी तरह से ‘ औड़त ‘ नहीं बल्कि औरत ही बोलने का रियाज करो। हमने वही किया और अपने कैंपस में इसका पहला सार्वजनिक मंचन प्रोफेसर नामवर सिंह ( अब दिवंग ) की उपस्थिति में सेंटर फॉर रसियन स्टडीज के बड़े ऑडिटटोरिम में बिन उच्चारण दोष के कर लिया। बाद में आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्सेज ( एम्स ) नई दिल्ली ने जब इंटर यूनिवर्सिटी ड्रामा आयोजित किया तो औरत के मंचन को सर्व श्रेष्ठ नाटक का पुरस्कार प्रदान किया गया। सफ़दर ये जान बहुत खुश हुए थे। मुझे लगता है ये पुरस्कार हमारे ग्रुप के छात्रों के अभिनय आदि की वजह से नहीं बल्कि उस नाटक की स्क्रिप्ट की बदौलत ही मिल सका।

कई बरस तक सहमत के सालाना कार्यक्रम मंडी हाउस क्षेत्र में ही आयोजित किये जाते रहे जहां की एक सड़क का नाम उन पर रखा जा चुका है। बाद में ये कार्यक्रम संसद भवन के पास कांस्टिच्यूशन क्लब परिसर में होने लगे। कोरोना कोविड महामारी से निपटने के सरकारी गाईडलाइन के कारण पिछले बरस से ये कार्यक्रम प्रत्यक्ष नहीं बल्कि ऑनलाइन होते हैं। इस साल भी कार्यक्रम ऑनलाइन ही हैं जिसका विवरण आयोजकों से प्राप्त संलग्न ग्राफिक में है।

बहरहाल , हमें याद है 2018 में नववर्ष के पहले दिन सहमत के का सालाना जलसे में प्रख्यात कवि-चिंतक मनमोहन ने दो नई किताबों “ दो सरफ़रोश शायर : अशफ़ाक़उल्ला , बिस्मिल “ और “ आज़ादी के सत्तर साल 1947 -2017 ” के लोकार्पण के मौके पर कहा था कि हम अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब की विरासत को जन-जन तक पहुंचाए बिना मौजूदा वक़्त की वैचारिक लड़ाई न तो लड़ सकते है न ही जीत सकते हैं। बाद में किसी श्रोता ने सफ़दर हाशमी की किताब पर चर्चित कविता का जिक्र कर कहा: लड़ें तो जीत भी सकते हैं। ना लड़ें तो हार तय है।

किताबें

सफ़दर हाशमी की लिखी कविताओं में से एक ‘किताबें ‘ बहुतों को बेहद पसंद है।  

किताबें कुछ कहना चाहती हैं

तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

किताबें करती हैं बातें

बीते ज़मानों की

दुनिया की, इंसानों की

आज की, कल की

एक-एक पल की।

ख़ुशियों की, ग़मों की

फूलों की, बमों की

जीत की, हार की

प्यार की, मार की।

क्या तुम नहीं सुनोगे

इन किताबों की बातें ?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं।

तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं

किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं

किताबों में झरने गुनगुनाते हैं

परियों के किस्से सुनाते हैं

किताबों में राकेट का राज़ है

किताबों में साइंस की आवाज़ है

किताबों में कितना बड़ा संसार है

किताबों में ज्ञान की भरमार है।

क्या तुम इस संसार में

नहीं जाना चाहोगे?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं

तुम्हारे पास रहना चाहती हैं

(चंद्रप्रकाश झा स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं।)

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