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असली पहाड़ देखना है तो ‘चले साथ पहाड़’!

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हिमांशु जोशी

हल्द्वानी और जोशीमठ को लेकर चर्चाओं में चल रहा उत्तराखंड इन दिनों एक और वजह से चर्चा में है.

पर्यटन मंत्रालय द्वारा पर्यटन से संबंधित विषयों पर मूल रूप से हिंदी में लिखी पुस्तकों को पुरस्कृत करने के लिए ‘राहुल सांकृत्यायन पर्यटन पुरस्कार योजना’ चलाई जा रही है, साल 2020-21 के लिए उत्तराखंड के यायावरी लेखक डॉ अरुण कुकसाल की किताब ‘चलें साथ पहाड़’ को इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के अंतर्गत प्रथम पुरस्कार के लिए चुना गया है.

यह पुस्तक आजकल लेखक Ashok Pande की किताब ‘तारीख में औरत’ के लिए चर्चित Sambhavna Prakashan से प्रकाशित होकर आई थी.

भूमिका ही असरदार.

Arun Kuksal ने अपनी इस किताब की ‘भूमिका’ लिखने के लिए वरिष्ठ लेखक Deven Mewari को चुना है और देवेंद्र किताब की भूमिका में ही यह पूरी तरह स्पष्ट करने में सफल रहे हैं कि किताब हमें पहाड़ की विशेषताओं के साथ-साथ पहाड़ की समस्याओं से भी परिचित कराएगी.

भूमिका में उन्होंने पहाड़ में रहने वाले दिनेश दानू की यह बात लिखी है “आप लोग पहाड़ों को देखते हैं और हम इनमें रहते हैं. मूलभूत सुविधाओं से अनछुए ये पहाड़ आपको दिखने में सुंदर लगेंगे ही पर जब आपको इनमें ही रहना हो तब आपका यह विचार, विचार ही रह सकता है.

‘अपनी बात’ में लेखक किसी व्यक्ति के जीवन में यात्राओं के महत्व पर प्रकाश डालते हैं.

 यह किताब लेखक द्वारा उत्तराखंड में की गई उनकी दस यात्राओं का संकलन है. लेखक के शब्दों में किताब का उद्देश्य उत्तराखंड की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक तस्वीर को सामने लाना है और वह इस तस्वीर को पाठकों के सामने लाने में पूरी तरह सफल भी रहे हैं.

लेखक ने ‘चलें साथ पहाड़’ की शुरुआत शिव की परण्यस्थली-मध्यमहेश्वर यात्रा से की है, इसे पढ़ते पाठकों को लगता है कि वह भी लेखक के साथ पहाड़ यात्रा पर हैं.

जैसा देखा वैसा लिखा.

लेखक ने यात्रा के दौरान उनके सम्पर्क में रहे लोगों की बातों को ठीक वैसे ही लिख डाला है जैसा उन लोगों ने बोला है, उदाहरण के लिए लेखक लिखते हैं कि जगत नाम के खच्चर वाले ने उनका हाथ पकड़ कर बोला “वन टू थ्री, तुम भी फ्री हम भी फ्री इसलिए बैठो”.

किताब पढ़ते आपको ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों को देखने के साथ बहुत से साहित्यों के बारे में भी जानकारी मिलती रहेगी जो लेखक को किसी जगह को देख याद आते रहते हैं.

इस किताब में वह कभी राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को याद करते हैं तो वह कभी चंद्रकुंवर बर्त्वाल की कविताओं को याद करते जाते हैं.

पहाड़ी शब्दों के साथ व्यवस्थाओं पर भी प्रहार करती यह किताब.

किताब में बारिश की ‘दणमण’ जैसे पहाड़ी शब्दों का प्रयोग भी किया गया पर इनका मतलब समझने में पाठकों को कोई परेशानी नही होती और वह इन्हें प्रकृति की तरह ही आत्मसात कर लेते हैं.

‘प्रकृति ने जितनी सुंदर जगह यहां दी है उतना ही कुरूप व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार यहां का शासन-प्रशासन है’ जैसी पंक्तियां लिखते हुए लेखक ने सरकारी व्यवस्थाओं पर भी चोट मारी है.

किताब उत्तराखंड के इतिहास और वर्तमान पर बहुत कुछ सिखाती है.

किताब पढ़ते यह भी महसूस होता है कि अगर उत्तराखंड यात्रा के दौरान आप इस किताब को अपने साथ रखेंगे तो आपको किसी से अपनी यात्रा के आगे का रास्ता पूछने की जरूरत नही पड़ेगी.

 लेखक द्वारा रानीखेत में गोदाम बन चुके अपने कॉलेज के बारे में बात करना यह याद दिलाता है कि हमने अपने पुरातत्व भवनों का कितना ध्यान रखा है.

किताब में उत्तराखंड के इतिहास से भी पर्दा उठाया है जैसे तिलाड़ीसेरा कांड शायद जलियांवाला बाग कांड से भी बड़ा था पर ‘अपने’ ही लोगों द्वारा किए जाने की वजह से इतिहास के इस काले अध्याय के बारे में ज्यादा बात नही की जाती.

किताब को आगे पढ़ते हम ‘पौंटी’ गांव के बारे में जानते हैं, जहां के लोग सड़क, बिजली, जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव में भी अपने में मग्न हैं पर ऐसे गांवों में इलाज के अभाव में दम तोड़ते लोगों की कहानी और स्कूलों की दुर्दशा मन विचलित करती हैं.

हिमाचल और उत्तराखंड में ‘विकास’ का इतना अंतर क्यों है, इसकी मुख्य वजह भी यह किताब आसानी से समझाती है.

सुंदरढुंगा इलाके में पर्यटकों ने प्रकृति को जो नुकसान पहुंचाया उसे पढ़ना जरूरी है.

देवाधिदेव केदारनाथ की 2019 में की गई यात्रा के दौरान लेखक 2013 आपदा के प्रभावों को भी पाठकों तक पहुंचाते हैं.

3 अक्टूबर 2020 को लिखा ‘तुंगनाथ के उतुंग शिखर पर’ वृत्तांत किताब का आखिरी हिस्सा है, लगातार दस घण्टे किताब पढ़ते रहने के बाद भी मैंने इसे पढ़ते उबाऊ महसूस नही किया.

उत्तराखंड की राजकीय किताब घोषित हो यह किताब.

लेखक ने यात्राओं को उनके समयानुसार क्रम से नही लगाया है पर फिर भी आपको यह अखरेगा नही.

कुत्ते और मुर्गे की बातचीत जबरदस्ती ठूसी हुई लगती है.

किताब पूरी पढ़ने के बाद आप यह चाहेंगे कि इसे उत्तराखंड की राजकीय किताब घोषित करने के बाद, उत्तराखंड में सत्ता चलाने वाले लोगों के हाथों में पकड़ा देना चाहिए और कहना चाहिए कि असली पहाड़ देखना है तो ‘चले साथ पहाड़’!

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