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गुप्तकाल : हमारी धारणा का निहितार्थ

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सुधा सिंह 

बुद्ध के दौर में भाषा का अर्थ केवल मौखिक भाषा ही हुआ करता था। सोलह महाजनपदों की इतनी ही प्राकृत भाषाएं। राजा तब किसी ताकतवर मुखिया जैसा, जातियां कबीलों जैसी, लिपि कहीं बाएं से दाएं तो कहीं दाएं से बाएं दर्ज किए जाने वाले प्रतीकात्मक रेखाचित्रों जैसी और मुद्रा मोहर लगे चांदी के बेडौल टुकड़ों जैसी हुआ करती थी।

      इन नतीजों तक पहुंचने के लिए आपका इतिहासकार होना जरूरी नहीं है। इसके लिए कुछ म्यूजियमों में टहलने और आर्कियोलॉजी की मामूली जानकारी रखने के अलावा जातक कथाएं और बुद्ध के कुछ सहज उपलब्ध वचन पढ़ लेना ही काफी है।

       बुद्ध की बातों में जब चुंद लोहार या धानिया ग्वाले का जिक्र आता है तो ये चरित्र ऊंच-नीच वाले अभी जैसे किसी जड़ जातिगत ढांचे से बंधे हुए नहीं लगते। वहां ये लोग बहते पानी की तरह घूम रहे गौतम बुद्ध से पूरी मानवीय गरिमा के साथ, बराबरी के स्तर पर बहस करते दिखते हैं। आप इंटरनेट पर धानिया सूत्र या धानिया सुत्त डालकर सर्च करें और पढ़कर देखें।

     यह बरसात से पहले नदी किनारे खड़े एक गौरवशाली पशुपालक से बुद्ध का दिलचस्प दार्शनिक संवाद है। 

भारतीय समाज की हमारी पूरी समझ गुप्तकाल के दौरान या उसके ठीक बाद बनी व्यवस्थाओं और रचनाओं के साथ नत्थी है। क्योंकि इसी समय भारत में जातिगत ढांचा स्थायी हुआ। कॉस्मोपॉलिटन जुबान के तौर पर संस्कृत का फैलाव हुआ। लिपि, मुद्रा और राज्य का स्वरूप संस्थाबद्ध हुआ और हमारे ज्यादातर सांस्कृतिक उपादान निर्मित हुए।

     ऐसा हम किसी अटकलबाजी में नहीं कह रहे। कम से कम जाति के मामले में यह बात 2016 में संपन्न हुई जेनेटिक्स की एक मशहूर रिसर्च कह रही है, जिसके मुताबिक भारत में जाति से बाहर जोड़ा न बनने की बात 500 ईसवी से पीछे हरगिज नहीं जाती। 

       अपने अतीत गौरव को हम गुप्तकाल के बाद गुजरे डेढ़ हजार वर्षों की नजर से, उसी काल में हुए परिवर्तनों के साथ जोड़कर देखने के आदी हो चुके हैं। हमारी ग्रंथ-दृष्टि भी उससे पीछे नहीं जाती। लेकिन ध्यान रहे, बुद्ध का चिंतन गुप्तकाल बीतने तक एक हजार वर्ष की अवधि पूरी कर चुका था, जो संसार में किसी भी विचार की जीवंतता का अधिकतम समय माना जाता है।

       और तो और, भारत-बांग्लादेश-पाकिस्तान और बर्मा, ईरान, अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से पर लगभग ढाई सौ साल तक चले गुप्तकाल की छाप इससे पहले के समूचे अतीत पर- यहां तक कि वैदिक अतीत पर भी मौजूद है। 

       मसलन, कालिदास कृत नाटक विक्रमोर्वशीयम असल में उर्वशी और पुरुरवा की वैदिक कथा का ही सुसंस्कृत रूप है। और इसी दौर में समुद्रगुप्त द्वारा संरक्षित भागवत धर्म की एक प्रस्थापना ‘अवतारवाद’ को बाद में पीछे ले जाकर वेद-उपनिषदों तक ठूंस दिया गया है, जिसके लिए वहां कोई गुंजाइश ही नहीं बनती। जाहिर है, हमारी संस्कृति की कथित ‘शाश्वतता’ भी घूम-फिर कर गुप्तकाल से ही बंधी हुई है।

      यही वजह है कि गौतम बुद्ध और उनके जीवन दर्शन को समझने के लिए हमें एक हद तक ‘अ-संस्कृत’ (डि-कल्चराइज) होना पड़ता है, जो डि-क्लास होने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।

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