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कंगना को थप्पड़ के संदर्भ में अहिंसा का मतलब कायरता नहीं

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सुब्रतो चटर्जी

पिछले दो दिनों से सोशल मीडिया पर कंगना रानौत को थप्पड़ मारने वाली लड़की के समर्थन और विरोध में अधकचरे पोस्ट पढ़ रहा हूं. मुझे नहीं मालूम है कि कुलवंत कौर ने सचमुच थप्पड़ मारा या नहीं, क्योंकि ऐसी कोई वीडियो मेरे सामने नहीं आई है. हां, उस सिपाही लड़की को कंगना को कोसते हुए ज़रूर सुना और देखा है.

मान लेते हैं कि लड़की ने सचमुच थप्पड़ मारा है तो कौन सा बड़ा गुनाह कर दिया है ? जो गांधीवादी दिखने के लिए इसका विरोध कर रहे हैं, उनको गांधी दुबारा पढ़नी चाहिए. गांधी जी अहिंसा का मतलब कायरता नहीं समझते थे. गांधी जी शाब्दिक हिंसा को भी हिंसा की परिभाषा में शामिल करते थे.

इस लिहाज़ से धरने पर बैठे किसानों के प्रति जो शाब्दिक हिंसा का प्रयोग मोदी और उनके चाहने वालों ने किया वह भी निंदनीय है. ये बात ठीक है कि गांधी जी हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा से देना हमें नहीं सिखाया है, लेकिन अत्याचार के विरूद्ध आत्मसमर्पण करना भी हमें नहीं सिखाया है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधी जी का पाला कभी फ़ासिस्ट लोगों से नहीं पड़ा था. उनका सामना ब्रिटिश हुकूमत से हुआ. उस ब्रिटिश शासन से, जिसके अपने देश में लोकतंत्र की जड़ें उपनिवेशवाद के वावजूद गहरी होती जा रहीं थीं.

उन्नीसवी सदी का ब्रिटेन Victorian morality का ब्रिटेन था, जिसमें public and personal morality के बीच एक द्वंद्व स्पष्ट रूप से रेखांकित था. इसके फलस्वरूप, व्यक्तिगत तौर पर कोई अंग्रेज़ कितना भी बड़ा नस्लवादी क्यों न हो, जनता के बीच यह नहीं स्वीकार कर सकता था. Public censor का डर हमेशा लगा रहता था.

द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन का जर्मनी के नाज़ी सत्ता के विरुद्ध जाना सिर्फ़ औपनिवेशिक स्वार्थ के लिए नहीं था. अगर ऐसा होता तो ब्रिटेन जर्मनी के साथ lemon slicing of China जैसी नीति को अपना कर विश्व बाज़ार को आपस में बांटने की पहल भी कर सकता था.

दरअसल विश्वयुद्ध जैसे महाप्रलंयकारी घटनाएं बिना किसी मूलतः सैद्धांतिक अंतर्विरोधों के बग़ैर हो ही नहीं सकतीं हैं. उस पर फिर कभी. फ़िलहाल इतना समझ लें कि हिटलर या मुसोलिनी के खिलाफ लड़ाई की स्थिति में गांधी जी क्या करते इसके सिर्फ़ क़यास ही लगाए जा सकते हैं. आज भारत की लड़ाई फासीवादी ताक़तों से है, इसलिए दोनों स्थितियों की तुलना नहीं की जा सकती है.

अब आते हैं थप्पड़ कांड के दूसरे पहलू पर. कुछ लोगों का मानना है कि उस लड़की को अनुशासन नहीं तोड़ना चाहिए था. पहले बता दूं कि अनुशासन और ग़ुलामी में फ़र्क़ होता है. अनुशासन का अर्थ अंधा होकर अपने सीनियर को समर्थन देना नहीं होता है. अनुशासन का अर्थ सरकार के कहने पर या अपने उच्च अधिकारियों के कहने पर अपने ही देश के लोगों को गोलियों से भून डालना नहीं होता है.

अगर कोई भी राजसत्ता देश के सुरक्षा बलों को किसी धन्ना सेठ के हितों की रक्षा के लिए जनता के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है तो अनुशासन के नाम पर सुरक्षा बलों को ऐसे आदेश को मानना ग़ुलामी है, अनुशासन नहीं है.

इसी अनुशासन के नाम पर आदिवासियों और ग़रीबों, दलितों और किसानों के विरुद्ध सुरक्षा बलों को खड़ा कर दिया गया है, जबकि वे खुद भारी संख्या में उन्हीं वर्गों से आते हैं. वर्ग संघर्ष की मूल चेतना को छिन्न भिन्न करने का यह भी एक पूंजीवादी तरीक़ा है, लेकिन इस विषय पर फिर कभी.

सिपाही लड़की के साहस को अनुशासनहीनता की परिभाषा में सिर्फ़ ब्रिटिश शासन के समय बने सर्विस कोड के अनुसार ही माना जा सकता है, किसी स्वतंत्र देश के स्वतंत्र क़ानून के अनुसार नहीं. मुझे मालूम है कि कुछ लोग मेरी राय को अराजकतावादी भी मानेंगे.

ऐसे महानुभावों को बता दूं कि मोदी के शासन काल में भारतीय सेना पर दवाब बनाया गया था कि वह नक्सलियों के खिलाफ लड़ें. भारतीय सेना ने यह कह कर साफ़ मना कर दिया कि उनका काम देश की जनता की रक्षा बाहरी दुश्मनों से करना है, अपने ही देश वासियों पर गोली चलाना नहीं.

अब आप फ़ैसला करें कि हम सब लोगों से ज़्यादा अनुशासन भारतीय सेना में है या नहीं ? अगर है, तो इसका मतलब यह है कि भारतीय सेना को अनुशासन और ग़ुलामी के बीच का फ़र्क़ भी बेहतर मालूम है. मज़ेदार बात यह है कि आप जितना ही अधिक अनुशासित रहेंगे आप उतने ही बेहतर ढंग से इस अंतर को समझेंगे, इसके उलट नहीं होता है.

अब आते हैं एक और महत्वपूर्ण विंदु पर. पिछले अमरीकी चुनाव के बाद हारे हुए ट्रंप ने वाशिंगटन डी सी के पुलिस प्रमुख से आंदोलनरत विरोधियों से सुरक्षा मांगी. पुलिस प्रमुख ने साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि उनका समर्पण देश के संविधान के प्रति है, किसी राष्ट्रपति के लिए नहीं.

मुझे याद है कि उन दिनों भारत के तथाकथित अनुशासनप्रेमी बुद्धिजीवी उस पुलिस कप्तान को उसके संविधान के प्रति प्रतिबद्धता के लिए सलाम ठोंक रहे थे. आज वही दोगले एक अपमानित लड़की के स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन को नहीं सहन कर पा रहे हैं. वर्दी हो या कोई भी पद, उसके नीचे या ऊपर जो रहता है वह एक आदमी होता है और बिना किसी संवेग के आदमी मृत होता है.

मुझे अनुशासन की सीमित परिभाषा से बंधे हुए ग़ुलाम से अराजक स्पार्टाकाश भी पसंद है, क्योंकि ज़िंदा रूहें विद्रोह करतीं हैं, धारा के साथ बहती हुई लाशें नहीं. इसलिए मेरा सेल्यूट भारत की इस बेटी के लिए भी है और वैसे पत्रकारों के लिए भी जिन्होंने तथाकथित अनुशासन के घेरे को तोड़कर दुनिया के सबसे शक्तिशाली नेताओं की तरफ़ अपने जूते उछाल सकता है. आशा है कि आप समझ गए होंगे.

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