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कोलाहल के बीच इस जनादेश से उपजे सबक को समझिए

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शशि शेखर

वह गुजरती फरवरी की आखिरी शाम थी। हम गोरक्षनाथ धाम पीठ में ठहाके लगाते योगी आदित्यनाथ के साथ बैठे थे। उत्तर प्रदेश का तूफानी चुनाव 70 फीसदी के करीब संपन्न हो चुका था पर वह चुनाव-चर्चा के मूड में नहीं थे। क्यों? चार हफ्ते पहले वह लखनऊ में युद्ध-मुद्रा में दिखाई दिए थे। 27 फरवरी की शाम वह इतना खिलखिला क्यों रहे हैं? क्या यह विजय-मुद्रा है?

मन में उठा यह सवाल मैंने पूछ भी लिया। खिलखिलाते हुए उनका जवाब था- ‘शशिजी, लोगों की उम्मीद से ज्यादा सीटें हम जीतेंगे। मैंने लगातार काम किया है, और अपने प्रदेश की भावना को खूब समझता हूं।’ 10 मार्च की दोपहर बीतते-बीतते उनकी बात सही साबित हो चुकी है। भाजपा गठबंधन दो-तिहाई बहुमत से सरकार बनाने की ओर बढ़ चला है। 37 साल बाद देश के सबसे बड़े सूबे में कोई पार्टी दोबारा सत्ता हासिल करने में सफल रही है।

यह चुनाव उनके लिए आसान नहीं था। पांच साल आप कितना भी काम कर लीजिए, कुछ न कुछ कमी रह जाती है। उनके विपक्षियों को लगता था कि कोरोना की दूसरी लहर के समय नदियों में बहती लाशें और उनके किनारे दफनाए गए शव मतदाता के मन में रिसते हुए नासूर की तरह रच-बस गए हैं। वे इसका बदला चुकाएंगे।

यही नहीं, महंगाई, बेरोजगारी और खेतों को रौंदते छुट्टा जानवर विपक्ष को मुद्दा देने के लिए काफी लग रहे थे। अपनी ही पार्टी के तीन मंत्रियों और लगभग एक दर्जन विधायकों का विद्रोह घातक साबित हो सकता था।

हालांकि, यह यक्ष-प्रश्न तब भी कायम था कि क्या इतना भर भाजपा को हराने के लिए पर्याप्त है?
इसकी वजह यह थी कि पिछले सात वर्षों में भगवा दल के रणनीतिकारों ने अति-पिछड़ों के साथ दलितों के बीच खासी दखल बनाई थी। उनमें टूट-फूट तो हो सकती थी, पर वे एकतरफा कहीं जाएंगे, इसकी संभावना शून्य थी। यही नहीं, कानून-व्यवस्था के मामले में योगी से सियासी रार रखने वाले लोग भी उनकी आलोचना करने से कतराते थे। वह अपने काम से ही नहीं, बल्कि चोले से भी बहुसंख्यक मतदाताओं के बड़े समूह को प्रभावित करते हैं।

क्या इतना दो-तिहाई बहुमत के जादुई आंकड़े तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त था?

यह सब शायद इतना कारगर न होता, अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद उत्तर प्रदेश की कमान न संभाली होती। आप काशी विश्वनाथ धाम के लोकार्पण से वहां के ‘रोड-शो’ तक के दिन-रात याद कीजिए। इस शानदार जीत का तिलिस्म खुलता चला जाएगा। प्रधानमंत्री की टीम ने सूक्ष्मतापूर्वक अभियान को गढ़ा था। उन्होंने 32 सार्वजनिक चुनावी रैलियां कीं और 12 वर्चुअल सभाओं के माध्यम से लोगों को संबोधित किया पर परदे के पीछे बड़ी टीम काम कर रही थी। अमित शाह, जे.पी. नड्डा, धर्मेन्द्र प्रधान और अनुराग ठाकुर की गहरी नजर हर ओर थी।

नरेंद्र मोदी के ‘क्रेज’ के स्थायित्व का यह अकेला रहस्य नहीं है। कोरोना के दौरान लोग भूखे न मरें, इसके लिए बिना भेदभाव के जो खाद्यान्न लोगों तक पहुंचा, उसने एक मुहावरा गढ़ दिया कि ‘हम मोदी से नमक हरामी नहीं करेंगे।’ पिछले सात सालों से लोगों को शौचालय, प्रधानमंत्री आवास, रसोई गैस और जो अन्य सुविधाएं केंद्रीय हुकूमत की ओर से मुहैया कराई जाती रहीं, मुफ्त राशन ने उनके प्रभाव को कई गुना बढ़ा दिया। इससे नए ‘वोट बैंक’ का उदय हुआ।

मोदी उत्तर प्रदेश में 2014 से अब तक हुए लोकसभा और विधानसभा के दो-दो चुनावों में जाति की जंजीरों को तोड़ने में इसीलिए कामयाब रहे हैं। यही वह मुकाम है, जहां उम्मीद जागती है कि जिस तरह जाति की बेड़ियां टूटीं, उसी तरह मतदान के मामले में धर्म की जंजीरें आज नहीं तो कल, अतीत का किस्सा बन जाएंगी।

उत्तर प्रदेश में मोदी का साथ देने के लिए योगी थे पर उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में उतने कद्दावर नेताओं का अभाव था। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री की हार के बावजूद दो-तिहाई बहुमत का श्रेय ‘मोदी मैजिक’ को जाता है। भाजपा गोवा और मणिपुर में भी सरकार गठित करने जा रही है।

अखिलेश यादव की मुसीबत भी यही थी। भारतीय जनता पार्टी के पास चेहरे, संसाधन, कार्यकर्ताओं और आनुषंगिक संगठनों का सहयोग था। इसके उलट वह अकेले थे, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने अल्पसंख्यकों, अति-पिछड़ों और जाटों में ऐसा तालमेल बनाया, जिसने भगवा दल के कर्ताधर्ताओं को शुरुआती दौर में हैरान कर दिया। उनके कंधों पर अपने वरिष्ठों द्वारा किए गए कुछ कामों का ऐसा बोझ था, जिससे हानि होने की संभावना थी। उन्होंने यह संदेश देने की हरचंद कोशिश की कि अब मैं दबाव-मुक्त हूं। यही नहीं, भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के चक्रव्यूह में फंसने के बजाय उन्होंने कर्मचारी, कृषक, कामगार महिला और छात्र-वर्ग पर जोर दिया। अखिलेश यादव की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ से उनके प्रशंसक समझ बैठे कि ‘भैया’ की बातें लोगों के दिल को छू रही हैं। तमाशा-पसंद हिन्दुस्तानियों के देश में सिर्फ भीड़ जीत की गारंटी नहीं हो सकती।

यहां मायावती की चर्चा जरूरी है। 2014 से लेकर अब तक जैसे-जैसे भाजपा चढ़ी है, वैसे-वैसे मायावती गिरती गई हैं। अब तक वह अपना वोट बैंक 20 से 25 प्रतिशत के बीच में रखने में कामयाब रहती थीं। इस बार इसमें फैसलाकुन गिरावट आई और वह महज एक सीट पर सिमट गई हैं। ऐसा अकारण नहीं हुआ। आगरा के एक नौजवान जाटव ने मुझे बताया था कि वह हमारे वोटों से वहां तक पहुंची हैं, पर टिकट सिर्फ अमीरों को देती हैं। हमारा उनकी पार्टी में कोई भविष्य नहीं है। मायावती चाहें, तो सबक ले सकती हैं, पर अब शायद देर हो चुकी है।

अब प्रियंका गांधी की बात। पार्टी का संगठन जर्जर और संसाधन सीमित हैं। इसके बावजूद वह ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के नारे के साथ जूझ पड़ीं। रणनीतिक तौर पर फैसला गलत नहीं था। सीएसडीएस और ‘हिन्दुस्तान’ ने एक सर्वे के दौरान पाया है कि पिछले चार चुनावों के दौरान ग्रामीण महिलाओं के मत-प्रतिशत में शहरी महिलाओं के मुकाबले लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। औरतें अब हुक्मरानों की भाग्य विधाता हैं पर कांग्रेस यह नहीं समझ सकी कि चर्चा और चुनाव-विजय में फर्क होता है। समूचे देश में कांग्रेस की दुर्दशा इसका सबूत है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी की धुआंधार जीत के बिना यह बातचीत निरर्थक होगी। अफसरी से सियासत में आए अरविंद केजरीवाल ने साबित कर दिया है कि वे राजनीतिक धूमकेतु नहीं, स्थायी नक्षत्र हैं। भाजपा और कांग्रेस के बाद आम आदमी पार्टी भी अब सत्तारोही दलों के उस क्लब में शामिल हो गई है, जो एक से अधिक राज्यों में हुकूमत करते हैं। पार्टी ने गोवा में भी दो सीटों के साथ खाता खोलने में सफलता हासिल की है। दस साल पुरानी पार्टी की यह यात्रा सम्मोहक है।

तय है, इस जनादेश ने सभी पार्टियों के समक्ष कुछ चुनौतियां, कुछ सबक रखे हैं। देखते हैं, वे इनसे क्या सीखते हैं। 

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