रविंदर
सार्वजनिक शिक्षा क्षेत्र का हाल दिन-ब-दिन बद-से-बदतर होता जा रहा है. केंद्रीय शिक्षा बजट 2022-2023 पेश करते समय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने ज़ुबानी-कलामी लॉकडाउन द्वारा शिक्षा क्षेत्र पर पड़े बुरे प्रभावों, हाशिए पर रह गए तबक़ों के छात्रों को लेकर चिंता जताई, पर सच्चाई यह है कि शिक्षा क्षेत्र का 2020 से पहले भी कोई बहुत अच्छा हाल नहीं था. 2020-21 दो साल लगातार शिक्षण संस्थान बंद रहे, जिसके कारण छात्रों का बड़ा हिस्सा शिक्षा से वंचित रहा.
मोदी सरकार दावा करती है कि लॉकडाउन के दौरान घर-घर शिक्षा पहुंचाई गई है, परंतु हक़ीक़त कुछ और है जिसे राज्य और केंद्रीय, दोनों सरकारों द्वारा अनदेखा किया गया है. मोदी सरकार लगातार ‘डिजिटल इंडिया’ का राग अलाप रही है, इसी के चलते शिक्षा के क्षेत्र में भी ऑनलाइन पढ़ाई को बढ़ावा दिया जा रहा है.
ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर मोदी सरकार दो काम कर रही है – शिक्षा का कुलीनीकरण और सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में निजी कंपनियों के मुनाफ़े के लिए रास्ता साफ़ करना. केंद्रीय वित्त मंत्री ने ‘प्रधानमंत्री ई-शिक्षा’ योजना के तहत ‘एक कक्षा – एक टीवी चैनल’ कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसमें पहली से लेकर बारहवीं कक्षा के लिए 12 से 200 चैनल चलाए जाएंगे.
अब हक़ीक़त देखें, जिसे देखते समय मोदी सरकार को लकवा मार जाता है कि हमारे भारत में 80% छात्रों के पास किसी भी प्रकार के डिजिटल बुनियादी ढ़ांचे तक कोई पहुंच नहीं है. 6 से 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए बुनयादी शिक्षा अनिवार्य है, किंतु यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार 42 फ़ीसदी बच्चों के पास बुनियादी तरीक़े से शिक्षा लेने के लिए भी कोई साधन मौजूद नहीं है, डिजिटल तो दूर की बात है.
एक बार के लिए मान भी लिया जाए कि सरकार चैनल चलाकर अच्छा कर रही है, परंतु अगला सवाल है कि क्या सरकार इसके लिए ख़र्च दे रही है, छात्रों तक क्या यह सहूलत मुफ़्त पहुंचेगी ? जवाब है – नहीं. सरकार ये सब निजी कंपनियों के हाथ सौंप रही है, जो घरों में पढ़ाई के नाम पर पैसा वसूलेंगे.
सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के ज़्यादातर शिक्षा माहिरों का मानना है कि केंद्र द्वारा लाई जा रहीं नीतियां ख़ासकर ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ शिक्षा क्षेत्र का क्रियाकर्म कर रही है. स्कूल के स्तर पर कम लागत, कम गुणात्मक और आम लोगों की पहुंच से दूर, महंगी उच्च शिक्षा का एजेंडा है. पिछले काफ़ी समय से 11 लाख अध्यापकों की नियुक्तियां लटक रही हैं, जिसके बारे में बजट में कुछ भी नहीं कहा गया.
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘मिड-डे मील’ जिसका नाम अब ‘प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण’ कर दिया गया है, के लिए लागत में लगातार कटौती की जा रही है. साल 2020-21 में इसका बजट 12,900 करोड़ रखा गया था, जिसे 2021-22 में घटाकर 11,500 करोड़ कर दिया गया और अब 2022-23 के केंद्रीय बजट में यह रक़म फिर से घटाकर 10,233.75 करोड़ रुपए कर दी गई है. मोदी अपने भाषणों में बच्चों के लिए अच्छे भोजन की ज़रूरत पर ज़ोर देता है, परंतु ‘प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण’ का बजट कम होता जा रहा है।.
कहने को तो सरकार अनुसूचित जातियों/क़बीलों के साथ संबंधित छात्राओं के लिए फ़िक्रमंद है, परंतु इस फि़क्रमंद सरकार द्वारा इस योजना के लिए बजट के ख़र्चे को साल 2021 में 110 करोड़ से कम करके सिर्फ़ एक करोड़ रखा गया और साल 2022 में सरकार ने और ज़्यादा फि़क्रमंद होते हुए इसका बजट 0 रुपए रखा है. अपनी बयानबाजियों से बिलकुल उलटा अनुसूचित जातियों/क़बीलों से जुड़े छात्रों को उत्साहित करने के लिए बजट के ख़र्चे को बजट की सीटों में से निकाल दिया गया है. सरकार ने ग़रीब और कमज़ोर तबक़ों को शिक्षा देने की अपनी बुनियादी ज़िम्मेवारी से अपना पल्ला झाड़ लिया है.
केंद्र ने 15,000 ‘आदर्श विद्यालय’ (मॉडल स्कूल), लेह में एक नया केंद्रीय विश्वविद्यालय, संस्थानों के तालमेल के लिए ‘ग्लु ग्रांट’ और उच्च स्तर के विकास का ऐलान किया है, लेकिन शिक्षा फ़ंड में से लगभग 6% की कटौती की है. बजट के अनुसार शिक्षा मंत्रालय के लिए घोषित राशि 99,311 करोड़ रुपए से घटाकर 93,223 करोड़ रुपए कर दी गई है. राष्ट्रीय उच्च शिक्षा अभियान (रूसा) का बजट भी 3000 करोड़ से घटाकर 2042.95 करोड़ कर दिया गया है.
रूसा केंद्र द्वारा चलाई जा रही योजना है, यह राज्यों के उच्च शिक्षण संस्थानों को सहयोग देती है, ख़ासतौर पर पिछड़े जि़लों में शिक्षा को उत्साहित करती है. उच्च शिक्षा का क्षेत्र एक बड़ी मंडी है. उच्च शिक्षा के संपूर्ण भारतीय सर्वेक्षण 2019-2020 के मुताबिक़ भारत में उच्च शिक्षा में कुल दाख़िले का अनुपात 27.1% है. भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों की गिनती और गुणात्मकता, दोनों पक्षों से बुरा हाल है. इसका मुख्य कारण है सरकारी फ़ंड की कमी. भारतीय सरकार उच्च शिक्षा और खोज और विकास कार्यों पर और देशों से मुकाबलतन कम ख़र्च करती है.
इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत में शिक्षा देने का बड़ा हिस्सा निजी संस्थानों से पूरा किया जाता है, 78.6% कॉलेज निजी व्यवस्था के अधीन हैं. शिक्षा क्षेत्र मोटे मुनाफ़े का क्षेत्र है, जिसके ऊपर मंदी का ख़तरा भी कम होता है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति पहली ऐसी नीति है, जो सरेआम निजीकरण की हिमायत करती है. यह निजी संस्थान मात्र मुनाफ़ा कमाने की दुकानें हैं. सरकार शिक्षा के क्षेत्र की ज़िम्मेवारी से पल्ला झाड़ कर, निजी संस्थानों के लिए रास्ता साफ़ कर रही है.
असल में मौजूदा शिक्षा व्यवस्था, चाहे वो सरकार के हाथों में हो या फिर निजी हाथों में संपूर्ण सामाजिक ढ़ांचे का ही हिस्सा है. हमारा सामाजिक ढ़ांचा एक मुनाफ़ाखोर ढ़ांचा है, जहां हर चीज़ मंडी के मुनाफ़े के लिए पैदा होती है. इस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य भी मौजूदा ढ़ांचे के लिए मशीनों के पुर्जे तैयार करना है, जो सिर्फ़ इस मुनाफ़े की मशीनरी के अंदर-अंदर सोचें और उसके बाहर कुछ भी ना सोचें.
इस शिक्षा व्यवस्था का मक़सद बच्चों को अच्छे इंसान बनाना नहीं बल्कि स्वार्थी, लालची, मुनाफ़ाखोर और दूसरों को कुचलकर आगे निकल जाने वाले संवेदनहीन इंसान बनाने का काम करता है. आज के इस ढ़ांचे में शिक्षा व्यापार है. यहां स्कूली शिक्षा, इंसानियत की अगली पीढ़ी संभालने की प्रयोगशाला नहीं, पैसे लूटने का साधन है.
- रविंदर (मुक्ति संग्राम)