*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*
प्राण प्रतिष्ठा के साथ, अयोध्या में भव्य राम मंदिर खुल गया है। बेशक, यह मंदिर विशाल और भव्य है, हालांकि उसे और विशाल तथा भव्य बनाए जाने का काम, अभी कई बरस और जारी रह सकता है। बेशक, यह अयोध्या के राम से जुड़े सभी मंदिरों का ही सिरमौर नहीं है, अयोध्या का ही सिरमौर होगा और देश भर में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण राम मंदिर होगा। जाहिर है कि इस मंदिर की भव्यता में, जिस धूम-धड़ाके के साथ इसका उद्घाटन हुआ है, उससे चार चांद लग गए हैं। और इस धूम-धड़ाके के केंद्र में है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस उद्घाटन का मुख्य कर्ता होना। यह सवाल करने वाले बहुत गलत भी नहीं हैं कि यह मंदिर राम का है या मोदी का है। मंदिर मोदी का न सही, पर मोदी के राम का जरूर है! यह मंदिर कौशल्या नंदन का या दशरथ सुत का नहीं है ; यह मंदिर लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के भ्राता का भी नहीं है ; यह मंदिर सीतापति या मर्यादा पुरुषोत्तम का तो हर्गिज नहीं है। यह सबसे बढ़कर मोदी के राम का मंदिर है।
मोदी के राम का अर्थ नरेंद्र दामोदार दास मोदी नाम के व्यक्ति के ही राम का नहीं है, वह व्यक्ति भले ही देश के सबसे शक्तिशाली पद पर बैठा हुआ और इसलिए, मंदिर समेत किसी भी चीज के उद्घाटन शिलापट्ट पर अपना नाम नक्श कराने की हैसियत में ही क्यों नहीं हो! मोदी के राम यानी उस पूरी प्रक्रिया के राम, जिसने खुद मोदी को देश में सत्ता के सर्वोच्च पद पर भी पहुंचाया है और उनके माध्यम से अंतत: अभूतपूर्व धूम-धड़ाके तथा मान्यता के साथ, इस मंदिर को शब्द के सभी अर्थों में एक वास्तविकता बनाया है। इस पूरी प्रक्रिया का बीज शब्द है, मंदिर का ‘‘वहीं’’ बनना। इस मंदिर की असली महत्व इसके राम के जन्म स्थान पर बना मंदिर होने, आस्था या राम के बाल रूप का मंदिर होने आदि, आदि में नहीं है। इसकी सबसे ज्यादा महत्ता इस मंदिर के ‘‘वहीं’’ बनाए जाने के दावे में निहित है। ‘‘वहीं’’ यानी वहां, जहां बाबरी मस्जिद चार सौ साल से ज्यादा से खड़ी थी, जिसे सबने देखा था। यह दूसरी बात है कि ‘‘वहां’’ और भी पहले राम जन्म स्थल रहने के दावे छुट-पुट तौर पर ब्रिटिश हुकूमत के दौर में भी किए गए थे और इन दावों ने तब से और जोर पकड़ लिया था, जब 1949 के दिसंबर में एक मध्यरात्रि में मस्जिद का दरवाजा तोडक़र, उसके अंदर रामलला की मूर्ति ‘‘प्रकट’’ करा दी गयी।
इसके बावजूद, यह विवाद करीब ढाई दशक तक, मुख्यत: स्थानीय या ज्यादा से ज्यादा इलाकाई तथा कानूनी विवाद ही बना रहा, सिवा इसके कि मस्जिद पर अतिक्रमणकारी ‘‘हिंदू आस्था’’ का कब्जा बना रहा, हालांकि मस्जिद में जबरन बना दिया गया कथित मंदिर भी, पुजारी के सिवा आम श्रद्घालुओं के लिए बंद ही रहा ; उन्हें जंगले के पार दूर से ही ‘‘दर्शन’’ करना उपलब्ध था। दूसरी ओर, मुसलमानों के लिए मस्जिद में प्रवेश की पूरी तरह से मनाही कर दी गयी। यह स्थिति तब तक चली, जब तक कि 1984 में भाजपा के दो सीटों पर सिमट जाने के बाद, ‘‘गांधीवादी समाजवाद’’ के उसके नये-नये अपनाए गए मुखौटे को पूरी तरह से दफ्न ही नहीं कर दिया गया। अब आरएसएस से जुड़े मंचों/ संगठनों ने अयोध्या राम मंदिर के मुद्दे को हवा देने के लिए यात्राएं निकालनी शुरू कर दीं और अदालती लड़ाई में नयी तेजी आ गयी। इसी के सामने और संभवत: इसे जोर पकड़ने से पहले ही निपटा देने की तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की सवा-चतुराई में, 1986 में मजिस्ट्रेटी आदेश से मस्जिद में बने कथित मंदिर के दरवाजे लोगों के लिए खुलवा दिए गए।
यहां से घटनाक्रम ने बहुत तेजी पकड़ ली। अब मस्जिद को हटाने की मांग ने जोर पकड़ा। विहिप आदि आरएसएस के अन्य आनुषांगिक संगठनों के बाद, 1988 से उसके राजनीतिक मोर्चे के रूप में भाजपा भी बाकायदा इसकी मांग में शामिल हो गयी कि बाबरी मस्जिद को हटाकर, ‘‘वहीं’’ एक ‘‘भव्य’’ मंदिर बनाया जाए। यहां से आगे घटनाचक्र और तेजी से घूमा। मस्जिद की जमीन पर, किंतु उसकी मुख्य इमारत से जरा हटकर, ‘‘शिलान्यास’’ के जरिए कंप्रोमाइज की एक और विफल कोशिश हुई। लेकिन, इसने मंदिर के मुद्दे के राजनीतिक उपयोग की भूख को बढ़ाने का ही काम किया। मंडल की काट के लिए 1990 के सितंबर में आडवानी के रथयात्रा पर निकलने और 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों की विशाल भीड़ों को जुटाकर और उस समय उत्तर प्रदेश में मौजूद भाजपा सरकार की मिलीभगत तथा सुप्रीम कोर्ट के साथ धोखेधड़ी से और एक हद तक केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार की मूक सहमति से भी, बाबरी मस्जिद के ढहा दिए जाने और ‘‘वहीं’’ एक अस्थायी मंदिर खड़ा कर दिए जाने के बीच, मुश्किल से दो साल का अंतराल रहा। एलान कर के, भीड़ें जुटाकर, सारी दुनिया के देखते-देखते, शासन-प्रशासन को पूरी तरह से पंगु करते हुए, बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना, बेशक उस धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था पर सबसे बड़ा प्रहार था, जिसे आजादी की समावेशी लड़ाई से निकले, इस देश ने अपनाया था और संविधान के जरिए बाकायदा स्थापित किया था।
इसके बाद करीब तीन दशक तक जो हुआ, उसे शासन की और उससे बढक़र न्यायपालिका की मिलीभगत से लेकर अनुमोदन तक से, धर्मनिरपेक्षता की व्यवस्था के तकाजों का भीतर-भीतर से खोखला किया जाना ही कहा जाएगा। पहले, तमाम साक्ष्यों तथा सार्वजनिक जानकारियां उपलब्ध होने के बावजूद, कानून के साथ तरह-तरह के खिलवाड़ों के जरिए, मस्जिद के ध्वंस के अपराधियों को बिना किसी सजा के, बल्कि बिना किसी दोषसिद्घि के ही छोड़ दिया गया। फिर, पुरातात्विक खुदाई के जरिए, इस आधार पर मस्जिद के ढहाए जाने को उचित सिद्घ करने की राह बनायी गयी कि, क्या ध्वस्त मस्जिद किसी मंदिर के ऊपर बनायी गयी थी? और अंतत: अदालतों ने मस्जिद ध्वस्त करने वाले ‘‘हिंदू पक्ष’’ की विवादित स्थल पर दावेदारी के पक्ष में फैसले देना शुरू कर दिया। 2010 के सितंबर में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित 2.77 एकड़ जमीन में से दो हिस्सा हिंदू पक्ष और एक हिस्सा मुस्लिम पक्ष में देने का फैसला सुनाया। इस निर्णय के खिलाफ अपीलों में 2019 के नवंबर में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जो फैसला सुनाया, उसमें पूरी विवादित भूमि हिंदू पक्ष को दे दी गयी और सरकार के लिए इसकी ओट की भी सुविधा जुटा दी गयी कि मंदिर तो, अदालत के आदेश से, इसके लिए गठित ट्रस्ट बनाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला इस माने में खासा बेतुका था कि खुद अदालत ने दो बातें मानी थीं। एक यह कि इसके कोई साक्ष्य नहीं थे कि मस्जिद, किसी मंदिर को तोड़कर बनायी गयी थी। दूसरे, मस्जिद का तोड़ा जाना, एक घनघोर अपराध था। इसके बावजूद, इस घनघोर अपराध के पीछे जो मंशा थी, उसे अदालत के इस फैसले ने इससे जुड़े पक्ष को विवादित जमीन देकर पूरा कर दिया। लेकिन, उक्त मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर, इस पूरे दौर में देश में उत्तरोत्तर बढ़ायी गयी बहुसंख्यकवादी हिंदूवादी राय को देखते हुए और इस आम राय के फलस्वरूप देश में तथा उत्तर प्रदेश समेत अनेक राज्यों में इस विवाद में बहुत पहले से ही एक पक्ष बन चुकी भाजपा के ठसके से सत्ता में आने से, न्याय पालिका पर बढ़ते दबाव को देखते हुए, इस तरह का बेतुका फैसला आश्चर्यजनक भी नहीं है। यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि मोदी सरकार, जो अब करीब-करीब खुलकर राम मंदिर बनने के श्रेय के लिए दावे कर रही है और ‘‘जो लाए हैं राम को’’ के नारे लगा रही है तथा पोस्टरों में मोदी को रामलला को उंगली पकड़कर लाते दिखा रही है, 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही उच्चतर न्यायपालिका पर नकेल डालने के लिए भिड़ी रही है और उस पर हमेशा सरकार की इच्छा के अनुकूल फैसले न देने के लिए, खुलेआम हमले भी करती रही है। बहरहाल, अगर बाबरी मस्जिद का ध्वंस, भारत की धर्मनिरपेक्षता पर सबसे बड़ा हमला था, तो बाबरी मस्जिद के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला, भारतीय राज्य की ओर से, न्यायपालिका जिसका बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है, धर्मनिरपेक्षता का बाकायदा त्यागा जाना था।
और 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में और वास्तव में सचेत रूप से देश भर में फैलाकर जो किया गया है, वह धर्मनिरपेक्षता के विधिवत त्याग के बाद का अगला तार्किक कदम है — बहुसंख्यकवादी हिंदुत्ववादी राज यानी हिंदू राज का एलान। बेशक, प्रधानमंत्री मोदी ने कथित प्राण प्रतिष्ठा के बाद के अपने संबोधन में उदारता दिखाने की सचेत कोशिश की है। और तो उन्होंने यह याद दिलाने का जिम्मा भी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर ही छोड़ दिया कि आखिरकार, राम मंदिर ‘‘वहीं’’ बना है; उन्होंने बस सैकड़ों साल के संघर्ष, तपस्या आदि के अपेक्षाकृत गोल-मोल हवाले से ही काम चला लिया। और तो और, प्रधानमंत्री मोदी ने प्रकटत: मंदिरवादियों को ठंडा करने की कोशिश में, उन्हें यह भी याद दिलाया कि यह विजय का ही नहीं, विनय का भी समय है! लेकिन, प्रधानमंत्री के संबोधन की कम-से-कम दो बातों से एकदम साफ था कि अब उनसे एक हिंदू राज के प्रमुख के आचरण की ही अपेक्षा की जाए। एक तो प्रधानमंत्री ने कश्मीर के मामले में उनके शासन द्वारा बार-बार सुनाए जाने वाले इस टॉन्ट को इस मामले में पूरे देश के लिए और संभवत: उनके हिसाब से मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए दोहराया कि कहा जाता था कि अयोध्या में मंदिर बना तो आग लग जाएगी, पर कुछ भी नहीं हुआ! दूसरे, मोदी ने जिस तरह ‘‘देव से देश’’ और ‘‘राम से राष्ट्र” तक चेतना के विस्तार की बात बार-बार कही, एक धर्माधारित राष्ट्र/ राज्य के एलान के सिवा और कुछ नहीं है। इसे देखते हुए, इसमें हैरानी की रत्तीभर बात नहीं है कि केंद्र तथा राज्यों की भाजपा सरकारों ने, इस आयोजन के सिलसिले में शासन और धर्म को खुलेआम मिला दिया है बल्कि इसे शासन का धर्म ही बना दिया है।
नहीं राष्ट्रपति मुर्मू जी, आप सही नहीं हैं। ‘‘हम सब अपने राष्ट्र के पुनरुत्थान के एक नये काल-चक्र के शुभारम्भ के साक्षी’’ हर्गिज नहीं बन रहे हैं। फिलहाल तो हम धर्मनिरपेक्ष भारत के पीछे, हिंदू राज में, खिसकने के ही साक्षी बन रहे हैं। हां! देश की जनता ही अगर पहले ही मौके पर इस काल चक्र को पलट दे, तो बात दूसरी है।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*