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किसके पक्ष में हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान

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अबकी बार किसका दांव सफल होगा यह 4 जून को पता चलेगा लेकिन वर्तमान परस्थितियों में सामाजिक समीकरण और जातीय समीकरणों में मतदाता क्या प्रतिक्रिया करते हैं ये कुछ दिनों में साफ हो जायेगा। मायावती की लम्बी खमोशी और एन वक्त पर राजनीतिक चाल को कितना विश्वास दलित समाज से मिलता है और कितना दम मुस्लिम समाज लगाएगा, यही कारक निर्णायक हो सकता है। बहुजन समाज पार्टी की सक्रिय भूमिका और मायावती के साहस पूर्वक निर्णयों से निराश कुछ छिटका हुआ मुस्लिम मतदाता अब आनेवाले समय में अपने अस्तित्व के सवाल में उलझा हुआ है।

जगदीप सिंह सिंधु 

नई दिल्ली। 14 सीटों वाला पश्चिम उत्तर प्रदेश जाट किसान बहुल गन्ने की खेती का क्षेत्र है। खड़ी बोली का यह प्रदेश अभी भी खुद को एक चक्रव्यूह में फंसा हुआ पा रहा है। भारत की पहली क्रांति 1857 की जन्मभूमि में किसानों की राजनीतिक ताकत की पहचान यहीं से चौधरी चरण सिंह व महेन्द्र सिंह टिकैत ने दी। लेकिन आज भी इस क्षेत्र के हालत को सुधारने में राजनीतिक दल कुछ गंभीर कर नहीं पाए।

सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, नगीना, अमरोहा, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर, अलीगढ़ बुलंदशहर, हाथरस और मथुरा लोकसभा क्षेत्र इसमें आते हैं।

1989 से पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा कोई राजनीतिक ताकत नहीं थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए एक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला रही। भाजपा को यहां की हिन्दू आबादी ने भरपूर समर्थन दिया। लेकिन मोदी सरकार 10 साल में भी किसानों की समस्याओं का कोई स्थाई समाधान नहीं निकाल नहीं पाई। गन्ना किसान आज भी अपने पिछले भुगतान के लिए आंदोलनरत हैं। बार-बार ठगे जाने का दंश झेल रहे इस प्रदेश में अबकी बार एक नयी निर्णायक लड़ाई के आसार धरातल पर पसरने लगे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश सभी जातियों को समाहित किए हुए एक अनोखी विरासत लिए कृषि के उत्पादन का सबसे उपजाऊ गंगा-यमुना के बीच का मैदानी इलाका है। जाट, त्यागी, राजपूत, गूजर, सैनी, ब्राह्मण, बनिया, जाटव, वाल्मीकि, खटीक और गड़रिया के साथ-साथ एक बड़ी आबादी मुस्लिम समुदाय की भी है। कुछ भाग में ब्रज बोली का प्रभाव है। 2011 की जनगणना के अनुसार 72.29 % हिन्दू 26.31 % मुस्लिम आबादी यहां रहती है। सिख भी यहां काफी संख्या में हैं जो कृषि के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।

वर्तमान में 14 लोकसभा सीट में सहारनपुर, नगीना, बिजनौर, अमरोहा सहित 4 सीट बहुजन समाज पार्टी के पास है। जबकि 10 सीटें- मुजफ्फरनगर, बागपत, कैराना, मेरठ, बुलन्दशहर, अलीगढ़, गौतमबुद्ध नगर, गाजियाबाद, हाथरस और मथुरा भाजपा के पास है।

लोकसभा सीटों के समीकरण को समझने के लिए विधानसभा की स्थितियों को जान लेना आवश्यक होगा। सहारनपुर लोकसभा में 5 विधानसभा क्षेत्र बेहट, सहारनपुर, सहारनपुर नगर, देवबंद ,रामपुर मनिहारान आते हैं। 2022 के विधानसभा चुनावों में 3 सीट सहारनपुर नगर, देवबंद, रामनगर मनिहारान भाजपा के खाते में है जबकि 2 सीट सहारनपुर और बेहट समाजवादी पार्टी के खाते में। मुस्लिम जाट बहुल आबादी के इस क्षेत्र में जातीय व सामुदायिक समीकरणों पर चुनाव टिका रहता है। समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के इस गढ़ में भाजपा की सेंध अब ग्रामीण क्षेत्र में भी भीतर तक है। राष्ट्रीय लोकदल यहां अपनी राजनीतिक जमीन बना नहीं पाया। कांग्रेस कभी यहां मजबूत स्थिति में थी लेकिन उसकी जड़ें अब काफी कमजोर हो चुकी हैं।

2004 में समाजवादी पार्टी के रशीद मसूद 2009 में बहुजन समाज पार्टी के जगदीश राणा 2014 में भाजपा के राघव लखनपाल 2019 में हाजी फजलुर्रहमान बहुजन समाज पार्टी के यहां से सांसद चुने गये थे। यहां मुकाबला 2019 की पुलवामा लहर के चलते भी काफी कड़ा रहा और जीत का अंतर 22417 का ही था। 2014 के चुनाव में इमरान मसूद ने भाजपा प्रत्याशी को कड़ी टक्कर दी थी। कांग्रेस को कुल मतों में से 34.14 % मत प्राप्त हुए थे जबकि राघव लखनपाल को 39.53 % मत मिले थे।

2019 के चुनाव में बसपा के हाजी फजलुर्रहमान को 5,14139, भाजपा के राघव लखनपाल शर्मा को 4,91722 और कांग्रेस के इमरान मसूद के 2,07068 को वोट मिले थे। सहारनपुर में करीब 6.5 लाख मतदाता मुस्लिम, 5 लाख मतदाता दलित और 1 लाख मतदाता जाट समुदाय से हैं। भाजपा से एक बार फिर राघव लखनपाल को प्रत्याशी बनाया गया है तो कांग्रेस से इमरान मसूद मैदान में हैं। बहुजन समाज पार्टी ने मजीद अली को उमीदवार बनाया है। इस सीट पर सैनी-गुज्जर मतदाता निर्णायक स्थिति में होते हैं। दलित समाज के समीकरण को साधने के लिए बहुजन समाज पार्टी की भूमिका अहम हो जाती है।

सहारनपुर में अबकी बार किसका दांव सफल होगा यह 4 जून को पता चलेगा लेकिन वर्तमान परस्थितियों में सामाजिक समीकरण और जातीय समीकरणों में मतदाता क्या प्रतिक्रिया करते हैं ये कुछ दिनों में साफ हो जायेगा। मायावती की लम्बी खमोशी और एन वक्त पर राजनीतिक चाल को कितना विश्वास दलित समाज से मिलता है और कितना दम मुस्लिम समाज लगाएगा, यही कारक निर्णायक हो सकता है। बहुजन समाज पार्टी की सक्रिय भूमिका और मायावती के साहस पूर्वक निर्णयों से निराश कुछ छिटका हुआ मुस्लिम मतदाता अब आनेवाले समय में अपने अस्तित्व के सवाल में उलझा हुआ है।

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