Site icon अग्नि आलोक

भावुकता की आड़ में गवर्नेंस की अक्षमता नजरअंदाज नहीं की जा सकती

Share

सुधीर लाड

सन 1962 की जंग, हारी जा चुकी थी। नेहरू की लोकप्रियता पर ग्रहण लग चुका था। कभी डार्लिंग ऑफ मासेस कहे जाने वाले पंडित नेहरू चीन के हांथो शर्मनाक पराजय और सेना के प्रति अपने दृष्टिकोण के कारण तीखी आलोचना झेल रहे थे। उसी समय एक आयोजन में, लाल किले पर कविवर प्रदीप के लिखे अमर गीत, ऐ मेरे वतन के लोगों,’ का गायन लता मंगेशकर के स्वर में होना  प्रस्तावित था। यह कालजयी गीत लाल किले से गूँजा और लोगो की आंखे नम हो गयीं। खबर दूसरे दिन छपी कि, नेहरु वह गीत सुन कर रो पड़े थे। 
किसी भी व्यक्ति का रोना अस्वाभाविक नहीं होता है। हम सब कभी न कभी, कही न कहीं, किसी न किसी अवसर पर रोते भी हैं। यह दुःख की इंटेंसिटी पर निर्भर करता है। नेहरू भी उस भावुक गीत पर खुद को रोक नहीं सके होंगे, रो पड़े होंगे। वे भावुक और कल्पनाजीवी तो थे ही। 
महान समाजवादी नेता, डॉ राम मनोहर लोहिया तब जीवित थे। वे नेहरू की नीतियों के कट्टर आलोचक थे। 17 खंडों में डॉ कृष्णनाथ द्वारा संपादित पुस्तक ‘लोकसभा में लोहिया’, को पढ़ कर संसदीय प्रणाली का अध्ययन करने वाले मित्र पढ़ कर अपनी ज्ञानवृद्धि कर सकते हैं कि, सदन में सरकार की कैसे तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है। डॉ लोहिया भी उसी अयोजन में उपस्थित थे। नेहरू द्वारा रोने की बात पर लोहिया ने कहा था, ” यह रुदन सरकार की कमज़ोरी का रुदन है। सरकार इस पराजय के अपराध को आंसुओ से नहीं धो सकती है। सरकार को अपनी गलतियां, जिनकी वजह से हम जंग हारें है, स्वीकार कर के उनका परिमार्जन करना चाहिए, न कि सार्वजनिक स्थल पर इस प्रकार की कमज़ोरी दिखाना। यह अशोभनीय हो या न हो कमज़ोरी का प्रदर्शन है।” 
1962 की शर्मनाक पराजय के बाद ही सेना का महत्व बढ़ा। नए नए हथियार बनने शुरू हुए और ठीक तीन साल बाद 1965 के भारत पाक युद्ध मे सेना ने जो कमाल कर दिखाया, वह दुनिया की मिलिट्री हिस्ट्री का एक गौरवपूर्ण पृष्ठ है। उस समय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे। जिन्होंने गज़ब की दृढ़ता और इच्छाशक्ति दिखाई। 
आज पीएम का भावुक चेहरा, भरभराती आवाज़, कुछ को भावुक बना सकती है और कुछ, अतीत की अक्षमता को इन भावों में बहा देना भी चाहेंगे। पर जब प्रधानमंत्री जी द्वारा अतीत में किये गए प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा आप करेंगे तो, ● चाहे 2016 में लिया गया नोटबन्दी का निर्णय और तत्समय की गई प्रशासनिक भूले हों या, ● लॉक डाउन 2020 में किया गया हाहाकारी कुप्रबंधन हो, ● चाहे एक कर्नल सहित 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी चीन की घुसपैठ और उसके हमले को सिरे से नकार देना और यह कहना कि, न कोई घुसा था न घुसा है, का हैरानी भरा सम्बोधन हो, ● या महामारी की इस दूसरी लहर में जब हम एक दिन में संक्रमण से मरने वालों की संख्या में दुनिया मे शीर्ष पर आ गए हों,● अच्छे अस्पतालों में भी ऑक्सीजन की कमी से मरीज पटापट मर रहे हों तो, ऐसे अवसर पर पीएम द्वारा एक बार भी सामने न आकर, कोरोना आपदा प्रबंधन के बारे में जनता से रूबरू न होना, न ही कोई ट्वीट करना, और न ही जनता को आश्वस्त करना कि हम इस आपदा से निपटने के लिये क्या क्या कर रहे है, आज की भावुकता को हास्यास्पद और अभिनय ही बना देती है। 
भारत जैसे एक महान देश के प्रधानमंत्री का इस प्रकार भावुक हो जाना चिंता का काऱण भी है और अवचेतन में बसी कुछ कुछ अक्षमता का प्रदर्शन भी। यह बेबसी भी है और एक प्रकार की मजबूरी भी यह दिखती है। सरकार कहती है कि● उसने 20 लाख करोड़ का कोरोना राहत पैकेज 2020 में दिया। ● 35 हज़ार करोड़ रुपये टीकाकरण के लिये दिए। ● पीएम केयर्स फ़ंड से वेंटिलेटर के लिये पैसे दिए गए। फिर लोग क्यो इलाज की बदइंतजामी से मर रहे हैं ?
क्या यह सवाल उस भावुक मन मे भी कभी कौंधा था, कि इतने धन के बाद भी कोरोना से लड़ने में कहा चूक हो गई ? अगर कौंधा था तो क्या इसके बारे में सरकार ने कोई पड़ताल की कि, इतने व्यय के बाद भी आज गैर सरकारी आंकड़ो के अनुसार, 10 लाख लोग कैसे मर गए हैं और यह क्रम अब भी क्यों जारी है ? गंगा का विस्तीर्ण पाट एक सामूहिक कब्रिस्तान बन गया है। लकड़िया कम पड़ गयी पर मौत नहीं रुक रही है। 
शायद ही कोई मित्र हो जिसके घर परिवार, बंधु, बांधव, रिश्तेदारी, में कोई कोरोना जन्य मौत न हुयी हो। इसे सरकारी आंकड़ो में मत ढूंढिए, इसे अपने इर्दगिर्द पता लगाइए। आज सरकार को अगर उसका मन और आचरण इन आंसुओ से निर्मल हो गया हो तो, उसे हम सब को आश्वस्त करना होगा कि, ● पिछले एक साल में उसने इस महामारी को नियंत्रण में लाने के लिये क्या क्या कदम उठाए। ● दवाओं और ऑक्सीजन की उपलब्धता के लिये क्या क्या योजनाएं बनी और उनमे से कितनी लागू हुयी और जो लागू नहीं हुयी तो किसकी गलती थी।● टीकाकरण के लिये 35 हज़ार करोड़ की राशि तय होने के बाद भी अब अचानक यह फैसला क्यो ले लिया गया कि राज्य खुद खरीदेंगे ?● क्या राज्यो से यह फीडबैक लिया गया कि, उनके पास टीका के लिये कितना धन है ? ● केंद्र ही क्यो नही एक साथ खरीद कर जनसंख्या के अनुपात में राज्यो को टीका दे दे रहा है ? 
और भी बहुत से सवाल हैं जब इन पर गम्भीरता से सोचा जाएगा तो वे खुद ब खुद सामने आएंगे। पर यह सारे सवाल महज भर्राई हुयी आवाज़,नम आंखे, और पश्चाताप प्रदर्शन के पीछे छुपाए नही जा सकते। क्योंकि लोगों के घर मे मौतें हो रही है। बच्चे अनाथ हो रहे हैं। कमाने वाले पुरूष और महिलाएं मर रही है। और यह संख्या कम नही है, दिल दहला देने वाली है। आर्थिकी पर आगे क्या होगा, यह लोग अभी सोच नहीं पा रहे है।
सुधीर लाड

Exit mobile version