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*प्रसंगवश : सौ पचास साल में एक बार लिखा जाता है पृथ्वीराजरासो जैसा महाकाव्य

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 पवन कुमार

      _एक ताजा बॉलीवुड मसाला फिल्म की वजह से कुछ लोग पृथ्वीराजरासो और चंदबरदाई पर भी नादानी भरी नुक्ताचीनी कर रहे हैं। महान रचनाओं पर बनी फिल्में अक्सर मूल कृति की बराबरी नहीं कर पातीं। एक तरह से यह साहित्य के शाश्वत औचित्य को प्रमाणित करता है। पृथ्वीराजरासो हमारे बीच मौजूद, भाखा में रचा गया सबसे पुराना कालजयी महाकाव्य है।_

         कवि चंदबरदाई ने यथार्थ और कल्पना के सम्मिश्रण से ऐसा साहित्य रचा, जो अमर हो गया।  

        _जिन्हें हिन्दी से प्रेम है और अपनी भाषा में कुछ शानदार पढ़ना चाहते हैं उन्हें यह किताब पढ़ने का प्रयास करना चाहिए। रासो की हिन्दी आधुनिक हिन्दी से उतनी ही अलग है जितनी आधुनिक इंग्लिश से शेक्सपीयर की इंग्लिश अलग है। जबकि रासो की रचना शेक्सपीयर के नाटकों से या तो पहले या समकाल में हुई होगी।_

          शेक्सपीयर का किंगलीयर जितना इतिहाससम्मत है, उतना या उससे ज्यादा ही रासो भी है। 

चंदबरदाई ने अपनी रचना से यह भी स्थापित किया कि कलम तलवार से ज्यादा गहरा वार करती है। हो सकता है कि भूलोक में गोरी जीता हो, काव्यलोक में वह आज भी शब्द-भेदी बाण से मारा जा रहा है। वह शब्द-भेदी बाण खुद रासो है जिससे गोरी हत हुआ, जिसे कवि चंद ने गढ़ा तो खुद, लेकिन चलवाया अपने प्रिय पृथ्वीराज के हाथों।

       _इस तरह कवि चंद ने अपने मित्र को लोकमानस में अजय-अमर कर दिया। गोरी भूलोक में युद्ध जीतकर जितना बड़ा नायक नहीं बना, चंद एवं उनके पुत्र जल्हण ने काव्यलोक में उससे बड़ा नायक पृथ्वीराज को बना दिया।_

        लम्बी गुलामी और अल्पज्ञान ने हमें भारतीय मनीषा की श्रेष्ठ उपलब्धियों के प्रति अवज्ञा भाव से भर दिया है। हम कृतघ्न वारिस साबित हुए हैं। उदरजीवी होकर बुद्धिजीवी होने का अभिनय करते रहते हैं। हो सकता है कि चंद्रप्रकाश द्विवेदी और पंजाबी भाइयों ने चंदबरदाई के महान महाकाव्य के संग न्याय न किया हो लेकिन यह तो कई ख्यात लेखकों की शिकायत रही है कि सिनेमा उनके साहित्य के संग न्याय नहीं करता। कुछ लोग तो यह तक कहते हैं कि औसत साहित्य पर ज्यादा बेहतर सिनेमा बनता है। 

        _एक पूरी इंडस्ट्री का काम भारतीयों के मन में हीनता और कुंठा भरना है। झूठा अहंकार या अभिमान भी मत पालिए लेकिन जिस तरह भारत के गुलामजहन ‘किंग लीयर’ खेलते हैं उसी तरह पृथ्वीराजरासो को भी खेलने दीजिए। हम सबको समझना होगा कि लम्बी गुलामी ने हमारी आत्मा तक को कोलोनाइज कर दिया है।_

          वरना, भारतीय नाट्य जगत में विश्व का सबसे पुराना नाट्य सिद्धान्त लिखने वाले भरत मुनि से ज्यादा चर्चित नाम शेक्सपीयर नहीं होता। 

         _मेरठ के  रहने वाले विशाल भारद्वाज को अपने इलाके के नायक नहीं दिखते लेकिन शेक्सपीयर के ड्रामों को लोकलाइज करके वो तीन फिल्में बनाते हैं। दरअसल विशाल भारद्वाज जैसे लोग शेक्सपीयर को लोकलाइज नहीं कर रहे होते बल्कि शेक्सपीयर ब्रिटिश सूरज डूबने के बावजूद आज भी मेरठ के ब्राह्मण को कोलोनाइज कर रहा होता है।_

        जाहिर है कि शेक्सपीयर भी चंदबरदाई के टक्कर का रचनाकार था। ब्रिटिश शासन का सूरज डूबने के बावजूद भी उसने अपने राजा की ध्वजा थाम रखी है। कभी सुना था कि ब्रिटिश सरकार के किसी बन्दे ने बीबीसी के किसी कर्ताधर्ता से पूछा कि आपको हम फ्री में फण्ड क्यों देते रहें तो भाई ने जवाब दिया था कि शेक्सपीयर और बीबीसी ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आखिरी दो निशानियाँ हैं इसलिए उस याद को जिंदा रखने के लिए इन दोनों को बचाए रखना जरूरी है। भारत को भी अपनी निशानियों की चिन्ता करनी चाहिए।

दुनिया का कोई महाकाव्य थाने का रोजनामचा नहीं होता, न मुंशी का बहीखाता होता है जिसकी हर इंदराज का फैक्ट से मिलान किया जाना जरूरी है। यहाँ जिन पुस्तकों को दुनिया में धर्मग्रन्थ समझकर पूजा जाता है उनका फैक्ट से मिलान मुश्किल है, फिर कविता-कहानी की क्या बात करना। किसी साहित्यिक रचना को देखने की यह नितान्त असाहित्यिक रूखी-सूखी दृष्टि है। 

         _पद्मावत, रासो, किंगलीयर तो पाँच-सात सौ साल पुरानी रचनाएँ हैं। आपको एक ताजा उदाहरण देना चाहूँगा। जर्मन लेखक हरमन हेस ने 1922 में जर्मन में उपन्यास लिखा – सिद्धार्थ। उसकी पहली पँक्ति में लिखा कि सिद्धार्थ ब्राह्मण-पुत्र था। उपन्यास में सिद्धार्थ और गौतम बुद्ध को दो चरित्र के रूप में दिखाया गया है।_

          सिद्धार्थ गौतम को श्रेय तो मानता है लेकिन उनका शिष्य नहीं बनता। किताब के अंग्रेजी संस्करण के फ्रंटकवर पर गौतम बुद्ध की तस्वीर लगी रहती है। यह मानना मुश्किल है कि हरमन हेस को नहीं पता था कि गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ भी था। उन्हें यह भी भलीभाँति पता रहा होगा कि सिद्धार्थ क्षत्रिय थे।

        _फिर भी उन्होंने सिद्धार्थ नाम का एलीगैरिकल नॉवेल लिखा। पद्मावत और रासो भी एलीगैरिकल रचनाएँ हैं। उन्हें इतिहास के हथौड़े से पीट-पीटकर पटरा कर के पढ़ेंगे तो उनका रस नीरस हो जाएगा। अच्छी-बुरी फिल्में बनती रहती हैं।_

         रासो जैसा कालजयी महाकाव्य सौ पचास साल में एक बार लिखा जाता है। इसलिए उसका सम्मान करें। उसे इतिहास नहीं, कालजयी साहित्य की तरह पढ़ें।

     {चेतना विकास मिशन)

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