प्रिया सिंह
_एक तरफ से ‘सिगरेट पीती काली’ तो दूसरी तरफ से भारत रक्षक ‘जय मां काली’ ! इस समय यही सब हो रहा है, जो चिंताजनक है। कोई चौंकाने वाली बातें कहकर सस्ते में यश लूट रहा है और कोई सस्ते में अपनी सत्ता मजबूत कर रहा है, जबकि देश पर दुखों के पहाड़ टूटकर गिर रहे हैं!! त्राहि- त्राहि!!_
हिंदू देवी- देवता इस समय राजनीतिक खिलौने बना दिए गए हैं। एक न एक विवाद होना है, इस तरफ से नहीं तो उस तरफ से, ताकि माहौल गरम रहे।
_ताज़ा विवाद काली को लेकर है। लीना मणिमेकलई ने कनाडा में काली पर एक फ़िल्म बनाई है, जिसके एक पोस्टर पर काली टोरेंटो की सड़क पर सिगरेट पी रही हैं। फिर विवाद बढ़ाने के लिए उन्होंने एक दूसरा पोस्टर ट्वीट किया, जिसमें शिव- पार्वती सिगरेट पी रहे हैं।_
उनका कहना है कि उनके तमिल और तेलुगु गांवों में आम रीति है कि काली मांस खाती हैं, गांजा पीती हैं, देशी शराब पीती हैं, भयानक ढंग से नृत्य करती हैं, वह एक आत्मा हैं। लीना मणिमेकलई थोड़ा और आगे बढ़ती हैं, काली पूंजीवाद की विरोधी हैं और वे बिना भेदभाव के सबको अपनाती और अपनी बड़ी मानवता में स्थान देती हैं!
कनाडा के जिस थिएटर में सिगरेट पीती काली का पोस्टर लगा था, उसने तो धार्मिक भावना आहत होने का संदर्भ देकर पोस्टर हटा लिया।
_पर काली की पुनर्रचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर फ़िल्म के पक्ष में कुछ लोग खड़े हो गए। और हिंदू धार्मिक भावना के आहत होने के नाम पर फ़िल्म के विपक्ष में कई लोग, प्रधानमंत्री तक खड़े हो गए।_
भारत में न फ़िल्म आई, न किसी ने फ़िल्म देखी, न सेंसर बोर्ड से होकर गुजरी, बनी भी शायद अंग्रेजी में ही होगी, तेलुगु या तमिल में नहीं, फिर भी प्याले में तूफान आ गया!
बांग्ला की एक कहावत है, गाछ में कटहल अभी लगा भी नहीं कि मूंछ में तेल लगा लिया!
_सवाल है कि काली की मानवता या अपनी सेकुलर सोच प्रदर्शित करने के लिए क्या काली को सिगरेट पीते हुए दिखाना जरूरी है, खासकर जब देश में हिन्दू और मुस्लिम दोनों तबकों के कठमुल्लों ने धर्म को एक अति- संवेदनशील मामला बना रखा है और वे इसी की रसोई खा रहे हैं?_
करीब 45 साल पहले बांग्ला रंगकर्मी अरुण मुखोपाध्याय की संस्था ‘चेतना’ का एक नाटक ‘मारीच संवाद’ आया था। इसमें दिखाया गया था कि रावण हिंसा से उदासीन साधारण जीवन जी रहे मारीच का सीता हरण के लिए जिस तरह उपयोग करता है, अमेरिका देश की पूंजीवादी ताकतों को साथ लेकर मध्यवर्ग का उसी तरह उपयोग कर रहा है।
यह नाटक मैंने देखा था। दो स्तरों पर कथा चल रही थी। इसमें वाल्मीकि बीड़ी पीते दिखाए गए थे। उस समय माहौल कुछ और था, आज माहौल कुछ और है!
लीना मणिमेकलई निजी तौर पर bisexual हैं, उन्हें यह अधिकार है। पर काली को अपनी असामान्य रुचियों के अनुरूप queer बना कर उपस्थित करने को क्या सृजनात्मकता कहा जा सकता है? ‘आर्ट’ का अर्थ ‘आर्टिफिशियलिटी’ नहीं है।
_काली शाक्त परंपरा की देवी हैं, जिनका अस्तित्व 8वीं सदी से पहले का नहीं है। दुर्गा या महिषासुर- मर्दनी की कल्पना तीसरी- चौथी सदी की है, उस समय की मूर्तियों में उनके चार हाथ थे।_
बाद में इस बिंब का विकास हुआ और पौराणिक ग्रंथ देवी भागवत भी आया, भागवत पुराण के जवाब में।
काली की पूजा उत्तर भारत में ज्यादातर डकैत और हिंसक राजा करते थे। उनसे बलि प्रथा जुड़ी थी, नरबलि प्रथा भी। असम के कामाख्या मंदिर में नर बलि दी जाती थी। तो क्या आस्था के नाम पर इन सबका पुनरुत्थान हो?
_ये सब कुप्रथाएं हैं, क्या ये सब हिंदुओं की आस्था में मकड़े का झोल नहीं हैं? तमिल- तेलुगु गाँव में, बल्कि हिंदी क्षेत्र में भी यदि गरीब लोग काली या शिव- पार्वती बनकर भिक्षा मांगते हैं, थक जाने पर बीड़ी- सिगरेट पीते हैं तो ये धर्म के सामान्य रूप नहीं हैं, ये विकृतियां हैं। इन सब के पीछे गरीबी है।_
इनकी जगह काली के उदात्त बिंब भी हैं। बांग्ला का श्यामा संगीत सुनिए। निराला की कविता ‘एक बार बस और नाच तू श्यामा’ को याद कीजिए। काली के उदात्त चित्रों में काले ( ब्लैक) का लालित्य देखिए!
काली पूजा होती है। इसके बिंब में हम पाते हैं कि शिव हिंसा के लिए उन्मत्त काली के आगे सत्याग्रह में लेटे हुए हैं। काली के पैर का शिव से स्पर्श होने- होने को है कि ‘यह क्या कर रही हूँ मैं” सोचकर काली की जीभ अचानक अपराधबोध से बाहर आ जाती है।
इस मुहूर्त वे हिंसा की नहीं अहिंसा की देवी होती हैं। काली के आगे सत्याग्रह में लेटे शिव का बिंब हिंसा नहीं, अहिंसा का है। यदि काली की मानवता और अपना सेकुलर थॉट बताना है, तो इस दिशा में भी रास्ते हैं।
_सिगरेट पीने- पिलाने के अपने जो खतरे हैं, वे तो हैं ही, इस संवेदनशील समय में उकसाने वाले सभी तरह के कथनों का छिपा लक्ष्य है देश में धार्मिक कट्टरवाद को मजबूत करना! इस दौर में थोड़ी सामान्य बुद्धि की बेहद जरूरत है, असामान्य होने की जगह।_
एक जमाना था ‘यंग बंगाल’ का, और 60- 70 साल पहले का भी, जब गोमांस खाना लेखकों- बुद्धिजीवियों के लिए प्रगतिशीलता का चिह्न था!
ऐसे एलीटवर्गीय दिखावे ने बुद्धिपरकता और मानवता की बड़ी क्षति की है और कूपमंडूकताओं के पुनरुत्थान का सुअवसर प्रदान किया है!
_इस समय हमारा देश फिर दोतरफा पाखंडों से आक्रांत है, जबकि देश के कई हिस्से अतिवृष्टि से परेशान हैं, जानें जा रही हैं, घर बह रहे हैं। तभी विमर्श के लिए एक और गरम मसाला तैयार हो गया है।_
(चेतना विकास मिशन)