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*प्रसंग~वश : ऋगवेदिक नाम है भारत*

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       ~ सुधा गुप्ता

ऋग्वेद में सप्त सिंधु नाम अनेक बार आया है ,कहीं सिंधु और उसकी सहायक कुल सात नदियों (सिंधु , झेलम , चिनाब , रावी , व्यास , सतलुज , सरस्वती ) के लिए और कहीं इन सातों नदियों की भूमि के लिए । आर्य जनों (कबीलों ) की जीविका का मुख्य साधन पशुपालन था और कृषि कर्म वे धीरे -धीरे सीख रहे थे।

      सिंधु घाटी की भूमि सपाट व  उपजाऊ थी जो खेती के लिए बहुत उपयुक्त थी। इसलिए सप्त सिंधु प्रदेश में उनका घुमन्तूपन कम हुआ और वे खेती करते हुए धीरे धीरे गाँव बसाकर भी  रहने लगे। जैसा कि रक्त संबंधों पर आधारित क़बीलाई समाज के लिए स्वाभाविक है , आर्य अपने जन (कबीले ) के नाम से जाने जाते थे और जिस भूक्षेत्र में बसते थे वह क्षेत्र भी अक्सर उनके कबीले के नाम से ही जाना जाता था और इस लिए वे उसे बहुवचन में बोलते थे।

     यह रिवाज बुद्ध काल और उसके बाद भी चलता रहा। कोसल और काशी को पालि भाषा में क्रमशः कोसलेषु और काशीषु कहा गया है।

      ऋग्वेद में बहुत से आर्य जनों के नाम मिलते हैं जिनमें प्राचीनतम जनों के नाम हैं – पुरु ,यदु , तुर्वसु , अनु , द्रुह्यु। यही पाँच आर्य जन सप्त सिंधु की भूमि पर बसे थे। आगे चल कर पुरु जन से तीन शाखाएँ – भरत , तृत्सु और कुशिक निकलीं। कुशिक के अग्रणी ऋषि विश्वामित्र हुए जो ऋग्वेदिक आर्य जनों की आपसी लड़ाई , जो ऋग्वेद में दाशराज्ञ युद्ध (दस राजाओं की लड़ाई ) के नाम से वर्णित है, में विजेता सुदास के परम सहायक बने थे ।भरत जन के मुखिया वर्ध्यश्व , दिवोदास और सुदास (पितामह , पिता और पुत्र )थे।चूँकि भरत जन का उद्भव पुरुओं से ही हुआ था , इस लिए सुदास को पुरु -भरत भी कहा गया है।

इन प्रमुख पाँच जनों के अतिरिक्त ऋग्वेद में पक्थ , भलानस , अलिन , विषाणि , शिवि जैसे अनेक  छोटे जनों का भी ज़िक्र है।आज के पाकिस्तान – अफ़ग़ानिस्तान के पख्तूनों के संबंध में अनुमान है कि वे ऋगवेदिक पख़्तों के ही वंशज हैं।

      कई सदियों से आते जा रहे और सप्त सिंधु प्रदेश में बसते जा रहे आर्य जनों की आपसी लड़ाई की पहली राजनैतिक परिघटना, जिसका संकेत ऋग्वेद में वर्णित दाशराज्ञ युद्ध से मिलता है। ऋग्वेद के मंडल 7सूक्त 18 में इस युद्ध का काव्य मय वर्णन वशिष्ठ ऋषि  ने किया है। विश्वास किया जाता है कि इस  युद्ध से पशुपालक आर्यों की जन (कबीलाई) व्यवस्था कृषिक सामन्ती व्यवस्था में बदलने लगी और बिखरे हुए जनों के  एकीकरण की प्रकृया शुरू हुई। इस युद्ध में भरत जन का नेतृत्व सुदास ने किया।

      अनुमान है कि यह लड़ाई परुष्णी नदी (वर्तमान रावी नदी )के तट पर सुदास और उसके शत्रु – तुर्वसु , यदु , अनु, द्रुह्यु , पुरु , कवष , भेद , वैकर्ण , मत्स्य , भृगु , पक्थ , अलिन विषाणि , अज , शिवि आदि जनों के मध्य हुई  थी। पुरुओं से निकले त्रित्सु जन ने भी इस युद्ध में सुदास की सहायता की थी। त्रित्सु दाहिनी ओर जूड़ा बांधते थे।

      दाशराज्ञ युद्ध में पुरोहितों ने भी हिस्सा लिया था।सुदास के पुरोहित वशिष्ठ उस वक्त के अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे कहते हैं कि उनके पुरोहित बनने के पहले भरत जन अनाथ बच्चे की तरह थे । वशिष्ठ कुल के लोग दाहिनी तरफ़ जूड़ा बांधते थे जिसके लिए उन्हें दक्षिणस्कपर्दा कहा गया है। इस कुल के लोग सुदास के लिए खुल कर लड़े भी थे। वशिष्ठ कहते हैं कि उनकी स्तुति की वजह से इन्द्र और वरुण ने सुदास की सहायता की और उसे विजय दिलाई।

      अगाध नदियों को पार करने योग्य बनाने का दावा  वशिष्ठ और विश्वामित्र दोनों करते हैं। वशिष्ठ की तरह ही विश्वामित्र भी दाशराज्ञ युद्ध के वक्त एक प्रभावशाली पुरोहित की हैसियत से  एक ताकतवर हस्ती थे। ऐसा प्रतीत होता है कि युद्ध के प्रारम्भिक दौर में उन्होंने भी सुदास की सहायता की थी।  किन्तु जब सुदास ने उनकी जगह वशिष्ठ को अपना पुरोहित /मन्त्री नियुक्त किया तब वे युद्ध से अलग हो गए होंगे। युद्ध में विजय के बाद सुदास ने वशिष्ठ कुल को उचित सम्मान नहीं दिया जिसके कारण वशिष्ठ के पुत्र शक्ति ने सुदास का विरोध किया।फलस्वरूप शक्ति को  सुदास के हाथों अपने प्राण गँवाने पड़े।

     चूँकि युद्ध में विश्वामित्र ने भी सहायता की थी , इसलिए वशिष्ठ कुल से विमुख होने पर सुदास ने विश्वामित्र को अपना पुरोहित नियुक्त किया। विश्वामित्र ने ऋग्वेद के नदी सूक्त की रचना की है जो कि उत्कृष्ट श्रेणी का काव्य माना जाता है।ऋगवेदिक ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र के मध्य उक्त प्रतिद्वन्द्विता की झलक हमें पुराणों में विख्यात वशिष्ठ -विश्वामित्र संघर्ष में भी मिलती है।

      प्रतीत होता  है कि भरतों ने पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ते हुए परुष्णी (रावी ) और शतुद्रि (सतलुज ) नदी के बीच की दोआब भूमि पर क़ब्ज़ा कर लिया था ।पुरु , द्रुहयु , यदु आदि बाक़ी आर्य जनों को भरतों की यह बढ़त पसंद नहीं आई जिसके कारण उन्होंने सुदास पर आक्रमण किया। इस युद्ध में परुष्णी नदी के किसी कम जल वाले और पार किए जाने योग्य स्थान पर सुदास ने नदी पार कर परुष्णी (रावी ) के पश्चिमी तट पर जुटे अपने शत्रुओं को परास्त किया ।इस युद्ध में भारी नर संहार हुआ और त्रित्सुओं के अलावा बाक़ी आर्य जनों की अलग अलग पहचान समय के साथ समाप्त प्राय हो गई । या तो इनकी जन शक्ति इतनी कम हो गई थी कि उन्हें अपना अलग अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल हो गया.  उन्होंने भरतों के साथ विलय कर लिया या वे सप्त सिंधु के बाहर अन्य क्षेत्त्रों में जा कर बस गए।

     त्रित्सु पहले भरतों से संघर्ष रत रहे थे किन्तु दाशराज्ञ युद्ध में उन्होंने भरतों का साथ दिया था। आगे चल कर त्रित्सुओं का भी भरतों के साथ विलय हो गया ।विजय के बाद सुदास ने रावी के पश्चिम सिंधु नदी तक और पूर्व की ओर भी आगे बढ़ते हुए यमुना नदी तक अपना आधिपत्य क़ायम कर लिया।

    करीब 1000 ई पू तक पश्चिमोत्तर से नए आर्य समूहों का देशान्तरण रुक गया और भरतों का विस्तार यमुना व गंगा के दोआब तथा गंगा पार के गांगेय प्रदेश में होने लगा। कृषि के विस्तार के साथ आर्यों के  ग्राम , जनपद और महाजनपद बसते गए ।इसके साथ ही  आर्यों की पहचान उनके पुराने जन (कबीला ) से कम और कुल , ख़ानदान और  वास – स्थान से अधिक होने लगी। बुद्ध कालीन गांधार , काम्बोज कुरु , पांचाल , कोसल , काशी आदि महाजनपदों में इन्हीं भरत वंशियों का प्रभुत्व था। महाभारत महाकाव्य में कुरु, पांचाल आदि जनपदों के राजा भरत जन से ही संबंधित थे और वे भारत कहे जाते थे। ऋगवेदिक भरत जन के वंशजों की लड़ाई होने के कारण ही, इस लड़ाई को महाभारत नाम दिया गया।

      भरत जन के आर्यों की बहुलता , विस्तार और शक्ति की वजह से हिमवंत पहाड़ और विंध्य पर्वत श्रृंखला की  मध्यवर्ती सिंधु -गंगा बेसिन की गांधार से लेकर मगध और अंग तक की भूमि को आर्यावर्त कहा गया। महाभारत महाकाव्य में वर्णित राजा दुष्यंत को  भरत वंशी बताया गया है और उसके पुत्र का नाम भी भरत था।

इन्हीं भरतों के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा है।

      हमारे देश का हिंदुस्तान और इंडिया नाम जहां सिंधु नदी पर आधारित है ,वहीं भारत नाम ऋगवेदिक भरत जन के नाम पर आधारित है।

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