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कई अंतर्विरोधों में फंसता जा रहा है इंडिया गठबंधन

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शुरुआती राजनीतिक बढ़त के बाद इंडिया गठबंधन कई तरह के अंतर्विरोधों में फंसता जा रहा है। और ये अंतर्विरोध कुछ राजनीतिक हैं तो कुछ वैचारिक और कुछ सत्ता पक्ष की नई पहलकदमियों से पैदा हुए हैं। जिस तरह का मोर्चा है उसमें इस तरह के संकटों का होना स्वाभाविक है। लेकिन गठबंधन की सफलता उसमें कही जाती है जब वह समय के आगे बढ़ने के साथ ही इनको हल करते हुए चलता है। इस बात में कोई शक नहीं कि रणनीतिक तौर पर गठबंधन ने आक्रामकता का जो रुख अपनाया था उससे सरकार बेहद परेशान थी। उसके नेता लगातार इंडिया गठबंधन को घेरने की कोशिश कर रहे थे लेकिन कहीं भी किसी मौके पर वह अपने मंसूबों में सफल होते नहीं दिख रहे थे। लेकिन गठबंधन के अपने अंतर्विरोध खुद उस पर भारी पड़ रहे हैं।

मसलन कोआर्डिनेशन कमेटी को लेकर ही एलायंस एक राय पर नहीं पहुंच पाया। 14 सदस्यीय कोऑर्डिनेशन कमेटी में छोटे दल तो नहीं ही जगह पाए थे। अब उसके प्रमुख दलों में से एक सीपीएम ने उसमें शामिल होने से इंकार कर दिया है। यह फैसला सीपीएम की पोलित ब्यूरो की बैठक में लिया गया है। और इसका गठबंधन की सेहत पर बहुत अच्छा असर नहीं पड़ने जा रहा है। आम तौर पर देखा गया है कि इस तरह के गठबंधनों में लेफ्ट की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। और वह तमाम दलों के बीच एक सीमेंट का काम करता रहा है।

नब्बे के दशक में संयुक्त मोर्चा का मामला रहा हो जब हरिकिशन सिंह सुरजीत और सीताराम येचुरी उसकी धुरी हुआ करते थे। या फिर यूपीए के दौर में जब लेफ्ट ने बाहर से समर्थन देकर मनमोहन सिंह की सरकार चलवायी। दोनों मौकों पर लेफ्ट की भूमिका बेहद कारगर रही। इसी का नतीजा है कि यूपीए के दौरान लेफ्ट के दबाव में पास हुए तमाम कानूनों को कांग्रेस आज भी अपनी उपलब्धि बनाकर पेश करती है।

लेकिन नये गठबंधन में लेफ्ट को वह स्थान नहीं हासिल हो पाया है। और केरल तथा बंगाल में गठबंधन में शामिल दलों कांग्रेस तथा टीएमसी के साथ अपने प्रमुख अंतर्विरोधों के चलते भी वह अपनी कोई निर्णायक भूमिका नहीं तलाश पा रहा है। ऐसे में सीपीएम की कोआर्डिनेशन कमेटी में गैरमौजूदगी इस पूरे गठबंधन की ऊर्जा और उसकी पहल को प्रभावित कर सकती है। हालांकि पार्टी ने कहा है कि वह गठबंधन का अभिन्न हिस्सा बनी रहेगी। इसके साथ ही दूसरी तमाम कमेटियों में उसकी भूमिका जारी रहेगी। वैसे सीपीआई और सीपीआई-एमएल दोनों गठबंधन के साथ पूरी मजबूती से खड़े हैं। और उनके सामने सीपीएम जैसा अंतर्विरोध भी नहीं है। सीपीआई को छोड़ दिया जाए तो सीपीआई एमएल को कोआर्डिनेशन कमेटी में स्थान भी नहीं मिला है। हालांकि दूसरी कमेटियों में वह ज़रूर शामिल है। लेकिन कुल मिलाकर सीपीएम की उस कमी को दोनों नहीं पूरा कर सकते हैं जो उसकी मौजूदगी से होता। 

ऐसे दौर में जबकि फासिज्म का खतरा देश के सामने है। और तमाम राजनीतिक दलों की गोलबंदी और मोर्चा वक्त की जरूरत बन जाती है और लेफ्ट पार्टी से किसी और के मुकाबले ज्यादा सक्रिय पहल की उम्मीद की जाती है। ऐसे मौके पर सीपीएम का यह रुख बताता है कि पार्टी के भीतर मोदी सरकार के वैचारिक-सैद्धांतिकी को लेकर जारी अंतर्विरोध अभी हल नहीं हो पाया है। और पार्टी अभी भी इस सरकार को किसी फासीवादी ताकत के तौर पर नहीं देखती है। वरना इस दौर में जब लालू यादव जैसे मध्यमार्गी नेता तक अपना नुकसान सहकर बीजेपी के खिलाफ लड़ाई के मोर्चे को मजबूत करने की बात करते हैं। तब सीपीएम जैसे वाम प्लेटफार्म से इससे ज्यादा की उम्मीद की जाती है। 

लेफ्ट के नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि फासिज्म का खतरा किसी और से ज्यादा उनके लिए है। देश के भीतर लेफ्ट के लोगों को चुन-चुन कर उत्पीड़ित किए जाने की घटनाएं इसकी मिसाल हैं। और आने वाले दिनों में जब स्थितियां और उनके पक्ष में होंगी तो पहला निशाना लेफ्ट को बनाया जाएगा।

अनायास नहीं परसों ही पुणे की एक सभा में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने लेफ्ट इकोसिस्टम को देश के लिए खतरे के तौर पर चिन्हित किया और एक उस किताब का विमोचन किया जिसमें लेफ्ट को दीमक के तौर पर पेश किया गया था। और उसी सभा में जेएनयू की वीसी ने अपने पद की गरिमा को ताक पर रखते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पर हमले से परहेज नहीं किया। उन्होंने कहा कि देश में लेफ्ट इकोसिस्टम अभी भी खत्म नहीं हुआ है। वरना सीजेआई रात के समय तीस्ता सीतलवाड़ के लिए कोर्ट नहीं बैठाते। उन्होंने सवालिया लहजे में पूछा कि क्या यह हम लोगों के लिए संभव है?

बहरहाल गठबंधन के कमजोर होने का यह एक पक्ष था। इसका दूसरा पक्ष उस समय सामने आया जब कोआर्डिनेशन कमेटी की बैठक में घोषित किए गए भोपाल की रैली के कार्यक्रम को मध्य प्रदेश कांग्रेस और खासकर उसके मुख्यमंत्री के चेहरे कमलनाथ ने एकतरफा तरीके से रद्द करवा दिया। इसके पीछे प्रमुख वजह बतायी गयी सनातन मामले पर चल रहा अंतर्विरोध। कमलनाथ ने कहा कि वह डीएमके के नेताओं के साथ मंच साझा नहीं कर सकते।

दरअसल कमलनाथ मध्य प्रदेश में हिंदू प्लैंक पर अपना चुनावी प्रचार कर रहे हैं और इस मामले में वह संघ-बीजेपी तक का कान काटने के लिए तैयार हैं। शायद ही कोई बाबा, मंदिर या फिर देवी का स्थान हो जहां वह मत्था टेकने नहीं जा रहे हों। ऐसे में उनके मुताबिक सनातन का मामला उनकी चुनावी उम्मीदों पर पानी फेर सकता है। और यह मामला सामने आते ही बीजेपी इसको ले उड़ी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत इंडिया गठबंधन के इस अंतर्विरोध को प्रचारित करना शुरू कर दिया। बहरहाल गठबंधन अपने इस झटके से कैसे उबरता है यह देखने की बात होगी।

अभी यह सब मामला चल ही रहा था कि पीएम मोदी ने महिला आरक्षण का नया पाशा फेंक दिया है। जिसकी जद में किसी और से ज्यादा इंडिया गठबंधन आने जा रहा है। दरअसल कांग्रेस और लेफ्ट समेत तमाम दलों को छोड़ दें तो सामाजिक न्याय की धारा से जुड़े कई दल ऐसे हैं जिन्होंने पहले भी इसका विरोध किया है। वो महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में हैं लेकिन उनका कहना है कि दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कोटा के भीतर कोटा की गारंटी करनी होगी। ऐसा नहीं होने पर पूरे आरक्षण की मलाई सवर्ण महिलाएं खा जाएंगी। और वंचित तबके के लिए कुछ नहीं बचेगा। 

अब ऐसे समय में जबकि कांग्रेस इस विधेयक को अपना बता रही है और बीजेपी से भी आगे बढ़कर इसका समर्थन करने के लिए तैयार है तब गठबंधन के भीतर बाकी दलों के साथ उसका इस पर कैसे तालमेल होगा यह एक बड़ा सवाल बनकर खड़ा हो गया है। हालांकि अभी तक इस मसले पर राष्ट्रीय जनता दल, बीएसपी और जेडीयू ने खुलकर नहीं बोला है। लेकिन अब जबकि लोकसभा में विधेयक पेश हो गया है तो उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट ही करनी होगी।

सच बात यह है कि विधेयक पारित हो जाने के बाद भी आगामी लोकसभा चुनाव में इसका लागू हो पाना मुश्किल है। ऐसे में यह चुनावी हथकंडे से ज्यादा नहीं है। लेकिन इससे मोदी बाहर जो फायदा लेंगे वह तो है ही इसके जरिये उन्होंने इंडिया गठबंधन की अंदरूनी संभावित फूट का भी रास्ता साफ कर दिया है। और अगर सामाजिक न्याय से जुड़े दल इसका विरोध करते हैं तो इस विधेयक का संसद से पारित हो पाना मुश्किल हो जाएगा। तब बीजेपी को न केवल इसका फायदा मिलेगा बल्कि इंडिया गठबंधन को महिलाओं के रास्ते के रोड़े के तौर पर जरूर देखा जाने लगेगा।

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि बीजेपी को रोकने की कड़ी में इंडिया को सत्ता में लाना उसका स्वाभाविक एजेंडा हो जाता है। ऐसे में चेहरा कौन बनेगा? नेता कौन होगा? पीएम कौन बनेगा? ये तमाम सवाल हैं जिनका अभी से कयास लगाया जा रहा है। शुरुआत में जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने जिस तरह से आगे बढ़कर पहल ली थी उसको उनके पीएम बनने की महत्वाकांक्षा के हिस्से के तौर पर ही देखा गया था। लेकिन गठबंधन की तीन बैठकों के बाद उस तरह का महत्व न मिलने पर उन्होंने उदासीनता का रुख अपना लिया है।

और इस बीच जी-20 के मौके पर राष्ट्रपति के डिनर में हिस्सा लेने के दौरान उनकी पीएम मोदी से हुई मुलाकात ने नई हलचल पैदा कर दी है। इसको लेकर कयासों का बाजार गर्म हो गया है। यह मुलाकात अगर कोई नई दिशा लेती है तो गठबंधन के लिए यह किसी वज्रपात से कम नहीं होगा। ऐसे में गठबंधन के तमाम जिम्मेदार दलों और नेताओं को इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि कैसे बीजेपी के खिलाफ अपने इस कारवां को आगे बढ़ाने के क्रम में वह अपने अंतर्विरोधों को भी हल करें।

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