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धर्म और जाति की धुन पर नाचता भारत

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– डॉ. सलमान अरशद

भारत कि जनता भले ही इलाज के बिना मर जाए, शिक्षा और सुरक्षा की जो सुविधाएँ अब तक मिली हैं वो भी छिन जाए और जीवन नरक बन जाये, लेकिन प्राथमिकता में अभी भी जाति और धर्म ही है. सियासी पार्टियाँ जनता का मौजूदा मानस का उपयोग भी करती हैं और उनके मानस को अपनी सुविधा के अनुकूल गढ़ती भी हैं. आज अगर सभी संसदीय दल जाति और धर्म के गुणा गणित के आधार पर अपने सियासी मुहिम को चलाते हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि आम आवाम के तौर पर हमें यही अपील करता है. 


दो दिन पहले लगभग सौ शब्दों में एक पोस्ट लिखी थी कि सरकारी और गैर सरकारी सभी नोकरियों पर सौ प्रतिशत आरक्षण लागू कर देना चाहिए और लोगों को उनकी जनसँख्या के अनुपात में नोकरी मिलनी चाहिए. काफ़ी पहले भी इस तरह का एक लेख मैंने लिखा था और कहा था कि योग्यता का एक पैरामीटर भी सेट किया जाना चाहिए और उससे कम वाले को जॉब नहीं मिलना चाहिए. इसी तरह जिस कोटे की सीट हो, हर हाल में उसी कोटे को जाना चाहिए. दरअसल ये महज़ एक भड़ास है. देश या दुनिया में कहीं भी ऐसा होने वाला नहीं है. लेकिन जातिगत असमानता और अन्याय को ढोता हुआ भारतीय समाज जिस तरह आरक्षण को लेकर रुदाली करता है, उस पर ये एक नाराज़ प्रतिक्रिया थी. हक़ीकत तो यही है कि सवर्ण हन्दू अपनी जनसँख्या के अनुपात में सरकारी और ग़ैरसरकारी नोकरियों का बहुत बड़ा हिस्सा कब्ज़ाये बैठा है और सत्ता प्रतिष्ठानों में अपनी स्थिति का उपयोग करते हुए जो आरक्षण मिला हुआ था, उसमें तरह तरह से घुसपैठ करके वंचितों को दबाने की लगातार कोशिश कर रहा है. मेरी पोस्ट इस स्थिति पर ही एक काल्पनिक समाधान है. फिर भी देख रहा हूँ कि लोग लगातार इस पर पर्तिक्रिया दे रहे हैं. अब तक ये पोस्ट दो हज़ार से भी ज़्यादा लोगों तक पहुँच चुकी है. इसी से अंदाज़ा लगाइए कि आरक्षण हटाने और बचाने का मुद्दा कितना बड़ा है! दरअसल आपको रोज़गार चाहिए लेकिन इसके लिए आप सरकार से लड़ने के बजाय आपस में लड़ रहे हैं और जाति आधारित सर्वोच्चता बोध आपको आरक्षण के इर्द गिर्द लड़ने की ज़मीन भी दे देता है. अब कुछ गंभीर और ज़रूरी बातें करते हैं, मैं मेरे लेखों में अक्सर ये कहता रहा हूँ और जो लोग मुझे लगातार पढ़ रहे हैं वो इससे वाकिफ़ भी हैं. आप कलकुलेट कीजिये कि गरिमापूर्ण जीवन के लिए आपकी बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं, मसलन, रोज़गार, तालीम, सेहत, सुरक्षा, मनोरंजन और परिवार आदि, अब फिर कलकुलेट कीजिये कि इनमें क्या तो सामूहिक प्रयासों से हासिल होगा और क्या निजी प्रयासों से? जो भी सामूहिक प्रयासों से हासिल होगा उसे पूरा करने की जिम्मेदारी राज्य की है. तो क्या राज्य ये जिम्मेदारी पूरी कर रहा है? ज़वाब है नहीं. अब विचार कीजिये कि राज्य ऐसा क्यों नहीं कर रहा है? इसके दो कारण हो सकते हैं, या तो राज्य सक्षम नहीं है या उसकी प्राथमिकता आप नहीं बल्कि कोई और है. अब कुछ उदाहरणों के ज़रिये इसे समझने की कोशिश करते हैं, हमारे देश में हर साल किसी न किसी इलाके में सूखा पड़ता है तो किसी इलाके में बढ़ भी आती है, इसके अलावा अभी मई जून में बहुत से इलाकों में पानी का तल इतने नीचे चला जायेगा कि नल से पानी नहीं निकलेगा. क्या ये मुश्किल है कि वर्षा जल के सरंक्षण से बाढ़ और सूखे के इलाकों को संतुलित कर दिया जाये? क्या ये मुश्किल है कि हमारे पुरखों ने जो तालाब बनाये थे उन्हें साफ़ कर दिया जाये और जिन पर दबंगों का कब्ज़ा है उन्हें हटवा दिया जाये? इसी तरह लाखो लोग इस देश में भूख से मरते हैं, जबकि हज़ारों टन अनाज़ हर साल सड़ जाता है. क्या इस पहेली को समझना कठिन है कि ऐसा क्यों होता है? 
इसे थोडा और खोल कर देखते हैं, लाखों लोगों की भूख न मिटाकर जो अनाज़ सड़ाया जाता है वो शराब बनाने वाली फैक्ट्रियों को लगभग फ्री में दिया जाता है, उन्हें शराब से मुनाफ़ा कमाने का अवसर मिलता है, इस पैसे से सियासी दालों को सांसद और विधायक खरीदने के पैसे मिलते हैं, अरबों रूपये के चुनावी अभियान इसी तरह के पैसे से चलते हैं और मध्यवर्ग को सस्ती शराब मिल जाती है. यानि कि सत्ता की प्राथमिकता क्या है इसे देखना होगा. 
पिछले कुछ सालों में देश में जल संकट लगातार बढ़ा है, पहला संकट है गंदे पानी की आपूर्ति, ये गन्दा पानी पीकर लोग बीमार होते हैं. महज़ स्वच्छ जल लोगों को मिल जाये तो दर्जनों बीमारियाँ ख़त्म हो जायेगीं, लेकिन सत्ता की प्राथमिकता ये नहीं है, बल्कि आपकी बीमारियों पर अरबो डॉलर का कारोबार खड़ा है. दवा उद्योग बन गया है वो भी भरपूर मुनाफ़े वाला उद्योग. क्या आपको हैरानी नहीं होती कि हथियार उद्योग सबसे ज़्यादा मुनाफ़े वाला उद्योग है जबकि इसे तो दुनिया में होना ही नहीं चाहिए और दवा उद्योग दूसरे नंबर पर मुनाफ़ा देने वाला उद्योग है, क्या दवा और इलाज को भी मुनाफ़ा कमाने का ज़रिया होना चाहए? लेकिन जब सब कुछ मुट्ठी भर लोगो के मुनाफ़े को समर्पित हो तो उनके मुनाफ़े के लिए करोड़ों इन्सानों को हर साल मारा जा सकता है. 
अगर आपको साफ़ पानी दे दिया जाये तो दवा उद्योग को अरबो का नुकसान हो जायेगा. अपने आसपास ज़रा गौर से देखिये, अभी महज़ 10 साल पहले हर नुक्कड़ पर जो प्याऊ होते थे अब ग़ायब हैं, हालाँकि इसके ज़रिये भी सेठ लोग विज्ञापन ही करते थे लेकिन ये एक स्वस्थ तरीका था, विज्ञापन के साथ साथ ज़रूरतमंद का भला भी होता था, अब आप गाँव के चौराहों पर भी 20 रूपये की बोतल खरीद सकते हैं. यानि अशुद्ध पानी की सप्लाई के ज़रिये हज़ारों करोड़ का कारोबार खड़ा कर दिया गया और आप आज भी जाति के आधार पर अपना सांसद और विधायक चुन रहे हैं और मुल्लों के हिजाब में अपनी नींद हराम किये हुए हैं.  
इसी तरह जीवन के हर मुद्दे की पड़ताल करें तो आप पाएंगे कि आपका दुख, आपकी पीड़ा, आपकी मुसीबत, आपकी आपदा यहाँ तक कि जाति और धर्म के नाम पर आपकी लड़ाई सबके पीछे हज़ारों करोड़ के मुनाफ़े की व्यवस्था खड़ी है. पानी की नाली, खेत के मेड़ आदि के मुद्दे पर आप लड़ जाते है और कोर्ट पहुँच जाते हैं, यहाँ आपको न्याय नहीं मिलता, तीन तीन पीढ़ी आप लड़ते हैं, एक लड़ाई के अन्दर से दस और लड़ाइयाँ निकल जाती हैं, आप कोर्ट के चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन आपका ध्यान इस पर नहीं जाता कि देश भर में कोर्ट के मकड़जाल से लाखों लोगों को पैसा मिलता है, दरअसल न्यायतंत्र लाखों लोगों को रोज़गार देने का ऐसा प्रोजेक्ट है जिसका खर्चा देश के सबसे गरीब लोग उठाते हैं. इस मकड़जाल में अरनब गोस्वामी फंसे तो रातो रात बाहर आ जाता है और सिद्दीक कप्पन फंसे तो जमानत भी नहीं होती, इसी तरह यहाँ किसी को फाँसी तो किसी को सांसदी भी मिल जाती है. 
थोड़े में कहें तो धर्म और जाति आधारित कोई व्यवस्था आपके किसी भी समस्या का समाधान नहीं है, आरक्षण रहे तो भी सबको नोकरी नहीं मिलेगी और न रहे तो भी सबको नोकरी नहीं मिलेगी, लेकिन हिन्दू सवर्ण देश के सभी संसाधनों पर काबिज़ है, सभी पार्टियों के नेतृत्व पर इनका कब्ज़ा है, न्याय तंत्र में इन्ही का दबदबा है ऐसे में इनके हित के कुछ काम हो जाते हैं लेकिन इसकी भी एक सीमा है. अभी करोना महामारी में इन्हें भी आक्सीजन और दवा के लिए दर दर भटकना पड़ा, जिस महापुरुष को इन्होंने भगवान बना रखा है उसने इनकी ओर देखा तक नहीं. नदियों में सड़ती लाशें और शमशान की भीड़ तो आप भूल ही गये होंगे. आज की दुनिया में जीवन को सुखमय बनाने का एक मात्र रास्ता है कि मुट्ठी भर पूंजीपतियों के मुनाफे को समर्पित राजनीतिक व्यवस्थाओं को पलट कर इसे आम लोगों की ज़रूरत को समर्पित व्यवस्था में बदला जाये, रास्ता कठिन है, मुश्किल है भी, लेकिन इसके अलावा और कोई समाधान नहीं है.
– डॉ. सलमान अरशद

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