सत्येंद्र रंजन
भारत सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (2023-24- Economic Survey Complete PDF.pdf) में चीन से भारत के कारोबारी रिश्तों को लेकर जो कहा गया है, उसका असर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक देखने को मिला है। (India-China warming pops US pipe dream – Asia Times)
सर्वे रिपोर्ट जारी होने के एक दिन बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने इस कथन से सहमति जताई। (Budget 2024: Nirmala Sitharaman backs CEA’s suggestion on more Chinese FDI into India – Hindustan Times) इसलिए ये उचित ही है कि इस आकलन को भारत सरकार की आधिकारिक राय मान लिया गया है।
इससे पहले कि इस पर बात की जाए कि भारत सरकार की इस नई समझ में खास क्या है, बेहतर होगा कि पहले हम यह देख लें कि आखिर कहा क्या गया है।
आर्थिक सर्वेक्षण का पांचवां अध्याय मध्यम अवधि के बारे में दृष्टिकोण से संबंधित है। इसे- A Growth Vision for New India (नए भारत के लिए विकास दृष्टि) शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। इसी अध्याय में एक उप-शीर्षक The Chinese Conundrum (चीन संबंधी पहेली) है। इसमें कहा गया हैः
‘’भारत और चीन के बीच आर्थिक संबंधों का गतिशास्त्र लगातार बेहद जटिल और अंतर्संबंधित बना हुआ है। विभिन्न उत्पाद श्रेणियों में विश्व आपूर्ति शृंखलाओं पर चीन का दबदबा आज एक प्रमुख वैश्विक चिंता है- खास कर यूक्रेन युद्ध के साथ आपूर्ति बाधाएं उत्पन्न होने के बाद ये स्थिति बनी है। हालांकि जी-20 के भीतर भारत सबसे तेज गति से उभरती अर्थव्यवस्था है और अब चीन से भी अधिक तीव्र गति से विकसित हो रहा है, मगर आज भी भारत चीन की अर्थव्यवस्था की तुलना में एक छोटा हिस्सा ही है। ऊर्जा संक्रमण के संदर्भ में, महत्त्वपूर्ण एवं रेयर-अर्थ सामग्रियों के उत्पादन और प्रोसेसिंग पर चीन की लगभग एकाधिकार की स्थिति वैश्विक चिंता का कारण बन चुकी है।
भारत के अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम पर भी इसका खास असर पड़ेगा। भारत की स्थिति कमजोर है, क्योंकि आयातित कच्चे माल पर भारत की अति निर्भरता है। इस पृष्ठभूमि के कारण यह सोचना विवेक-सम्मत नहीं होगा कि हलके मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र में चीन जो जगह खाली कर रहा है, उसे भारत भर देगा। असल में हाल के आंकड़ों से इस बारे में संदेह पैदा हो गया है कि क्या सचमुच चीन हलके मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र से हट भी रहा है। भारत के सामने उपस्थित प्रश्न हैः (क) चीन के सप्लाई चेन से जुड़े बिना क्या भारत के लिए यह संभव है कि वह वैश्विक सप्लाई चेन से जुड़ पाए? और, (ख) चीन से सामग्रियां आयात करने और पूंजी आयात करने के बीच सही संतुलन क्या होना चाहिए? जब विभिन्न देश अपने कारोबार का स्थानांतरण कर रहे हैं, उन्हें दोस्त देशों में ले जा रहे हैं, उस समय चीन के बारे में भारत के सामने नीति संबंधी कठिन चयन की चुनौती है।”
रिपोर्ट में थिंक टैंक रॉडियम ग्रुप के शोध-पत्र के आधार पर उल्लेख किया गया है कि ब्राजील और तुर्किये ने हाल में चीन से आयात होने वाले इलेक्ट्रिक वाहनों पर शुल्क बढ़ाए, लेकिन उसी समय उन्होंने चीनी एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेश निवेश) को आकर्षित करने के कदम भी उठाए हैं। इसके बाद कहा गया हैः
“चीन के साथ द्विपक्षीय व्यापार घाटे को देखते हुए भारत को भी ऐसा फैसला करना होगा। इस (बड़ी मात्रा में आयात की) पृष्ठभूमि में आपूर्ति संबंधी रुकावटों की आशंका के कारण भारत कमजोर स्थिति में है। जबकि कुछ खास सामग्रियों के मामले में आयात की जगह चीनी निवेश को आमंत्रित करने से देश के अंदर तकनीकी ज्ञान पैदा होने की संभावना बनेगी। इसमें कई कुछ जोखिम हो सकते, जैसा कि अन्य मामलों में होता है। लेकिन हम अपनी सर्वोत्तम पसंद की दुनिया में नहीं रहते। हमें दूसरे और तीसरे सबसे अच्छे विकल्पों में से किसी एक का चयन करना पड़ता है।”
आगे कहा गया है- “(तो) कुल मिला कर भारत में मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देने और भारत को वैश्विक सप्लाई चेन से जोड़ने के लिए यह अपरिहार्य है कि भारत अपने को चीन के सप्लाई चेन से जोड़े। अब हम ऐसा पूरी तरह सामग्रियों के आयात पर निर्भर रहते हुए करते हैं या चीनी निवेश को आमंत्रित करके- यह चयन हमें करना है।”
हमने इस विषय की अहमियत को देखते हुए यह लंबा उद्धरण यहां दिया है। आर्थिक सर्वे में जो कहा गया है कि उसके कई ठोस निष्कर्ष हैं। मसलन,
- सबसे पहले तो इसमें इस बात की स्वीकारोक्ति है कि फिलहाल अर्थव्यवस्था संबंधी और व्यापार के क्षेत्र में भारत चीन के साथ प्रत्यक्ष होड़ में नहीं है।
- अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की कथित decoupling और derisking रणनीति का लाभ उठाते हुए भारत उत्पादन और विश्व आपूर्ति शृंखलाओं में चीन की जगह ले लेगा, इसकी फिलहाल कोई संभावना नहीं है। कारण यह कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी उतनी सक्षम नहीं है।
- इसलिए भारत को अगर विश्व आपूर्ति शृंखला में भागीदारी निभानी है, तो उसके पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है कि पहले वह चीन की आपूर्ति शृंखलाओं से जुड़े।
- इस क्रम में दो विकल्प हैः एक तो अभी की तरह वह चीन से सामग्रियों का आयात बढ़ाए, जिससे उसका व्यापार घाटा बढ़ता जाएगा। यह व्यापार संबंधी एक बड़ी चुनौती है। दूसरा विकल्प यह है कि चीनी पूंजी, तकनीक, और विशेषज्ञता को भारत आमंत्रित किया जाए, ताकि वे यहां उत्पादन शृंखला निर्मित करने में सहायक बनें।
स्पष्टतः यह बहस का एक गंभीर मुद्दा है। इस पर सार्वजनिक चर्चा की जरूरत है। मगर फिलहाल हालत यह है कि इन बातों को सुनकर अधिकांश लोग खुद आहत महसूस करेंगे। इस देश वैसे तो दशकों से, लेकिन खास कर पिछले कुछ वर्षों से चीन विरोधी मौजूद हैं, उनके बीच उपरोक्त बातों को सुनना एक तरह अपनी हार स्वीकार करने जैसा महसूस होगा। इसकी वजह यह नैरेटिव है कि भारत और चीन के बीच दुनिया में सीधी प्रतिस्पर्धा है, जिसमें चीन अब पराभव के दौर में है, जबकि भारत निरंतर उत्थान के साथ अब अपने ‘अमृत काल’ में है।
देश में हकीकत से परे कथानक के साथ राष्ट्रवादी भावनाएं इस हद तक उभारी गई हैं कि आम चर्चा में लोग कहते सुने जाते हैं कि अब चीन तो छोड़िए, विश्व अर्थव्यवस्था को भी भारत या भारतवासी ही आगे बढ़ा रहे हैं। वर्तमान सत्ताधारी दल की तरफ से तो कथानक को इस हद तक उग्र बनाया गया है कि चीन की किसी खूबी की चर्चा को देशद्रोह जैसा बताया जाने लगता है।
लेकिन अब खुद भारत सरकार सच का सामना करने को तैयार होती नज़र आ रही है। वो सच यह है कि आज की दुनिया में कम-से-कम आर्थिक संबंध और व्यापार के मामले में चीन से रिश्ता तोड़ना संभव नहीं है। दरअसल, यह अहसास सिर्फ भारत सरकार को ही हुआ हो, ऐसी बात नहीं है। ये अहसास होने के बाद ही पश्चिमी देशों में decoupling (संबंध विच्छेद) की जगह derisking (जोखिम घटाने) की राह पर चलने की रणनीति तय की गई। मसलन, अमेरिका की सबसे बड़ी रक्षा उत्पादन कंपनियों में से एक- रेयथॉन लिमिटेड ने साल भर पहले यह दो टूक कहा कि मैनुफैक्चरिंग में चीन से संबंध विच्छेद असंभव है। (‘We can de-risk but not decouple’ from China, says Raytheon chief (ft.com)). ऐसे बेशुमार बयान पिछले दिनों आए हैं।
अमेरिका में चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध की शुरुआत पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने 2018 की थी। अब फिर से राष्ट्रपति बनने के अभियान में जुटे ट्रंप ने कुछ समय पहले एक चुनाव सभा में कहा कि इस बार ह्वाइट हाउस में जाने के बाद वे चीनी कंपनियों से कहेंगे कि या तो वे अमेरिका आकर अपनी फैक्टरियां लगाएं या कस्टम की और भी अधिक ऊंची दरों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार रहें। उन्होंने कहा कि चीनी कंपनियां अमेरिका आकर निवेश करेंगी, तो वे इसकी इजाजत देंगे, क्योंकि उससे पूंजी निवेश और चीनी तकनीक अमेरिका आएंगे और अमेरिका में रोजगार पैदा होंगे।
भारत से लेकर अमेरिका तक में इस तरह की राय बनने के पीछे कुछ ठोस वजहें हैः
- चीन के खिलाफ छेड़े गए व्यापार युद्ध ने चीन की आर्थिक ताकत को दुनिया के सामने और ज्यादा उजागर कर दिया है। वहीं अमेरिकी अर्थव्यवस्था, दरअसल तमाम नव-उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं, की कमजोरी को बेनकाब भी कर दिया है। (U.S. dooms itself to defeat in peaceful competition with China | MR Online)
- इस संदर्भ में इस तरफ लोगों का ध्यान इस ओर गया है कि अमेरिका में श्रम उत्पादकता पिछले दो-ढाई दशकों में किस तरह गिरती चली गई है। (Why is US manufacturing so unproductive? – Asia Times)
- अमेरिका ने चीन के उत्थान को रोकने के लिए चिप वॉर शुरू किया। मकसद, चीन को आधुनिक कंप्यूटिंग क्षमता से वंचित करना था। लेकिन सिर्फ दो साल के अंदर इस युद्ध में भी उसके नाकाम होने के लक्षण उभरने लगे हैं। (The Limits of the China Chip Ban | Foreign Affairs)
- चीन की कंपनी हुवावे पर पश्चिमी देशों ने सख्त प्रतिबंध लगाए। लेकिन वो कंपनी ना सिर्फ उठ खड़ी हुई है, बल्कि प्रतिस्पर्धी तकनीक विकसित करने में उसकी उपलब्धियां आज दुनिया भर चर्चित हैं।
- इस दौर में पश्चिमी मीडिया के उपयोग से चीनी अर्थव्यवस्था के ढहने या कमजोर पड़ने का जोरदार प्रचार अभियान चलाया गया। लेकिन यह मुहिम भी अब अपना असर खो चुकी है। (So-Called “Peak China” Is Simply a Western Campaign for China to Commit Economic Suicide | MR Online)
- इसके विपरीत अब खुद गैर-चीनी मीडिया में चीनी अर्थव्यवस्था की ताकत को समझने की कोशिश होती दिख रही है। (What’s the real size of China’s economy? – Asia Times)
- सिर्फ दो साल पहले संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी- यूनाइटेड नेशन्स कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (अंकटाड) ने चीनी अर्थव्यवस्था के ढांचागत रूपांतरण पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसका थीम था कि विकासशील देश चीन के इस अनुभव से क्या सीख सकते हैं। (UNCTAD – China’s Structutal Transformation.pdf). यानी अंकटाड जैसी एजेंसियां चीनी अर्थव्यवस्था को विकासशील दुनिया के लिए एक उदाहरण मान रही हैं।
चूंकि हाल के वर्षों में अमेरिका बनाम चीन की प्रतिस्पर्धा ही दुनिया में चर्चा का प्रमुख विषय रही है, इसलिए इस संबंध में पेश किए गए तथ्यों, तर्कों और विश्लेषणों की संख्या अनंत है। सार यह है कि चीन वर्तमान विश्व की अपरिहार्य आर्थिक शक्ति है और यह ताकत उसने अपने खास आर्थिक मॉडल से तैयार की है।
अतः चीन की आर्थिक शक्ति को स्वीकार करना और अपनी विकास नीति में उससे जुड़ कर अपने विकास को आगे बढ़ाने की रणनीति बनाना एक व्यावहारिक नजरिया है। इस प्रश्न को देश भक्ति या देश द्रोह से जोड़ने की कोशिश करना अल्पदृष्टि का नतीजा ही समझा जाएगा। इसलिए आर्थिक सर्वे में कही गई बातों को तिरस्कार से देखने की जरूरत नहीं है। बल्कि उसमें जिन प्रश्नों या मुद्दों की चर्चा की गई है, उन पर खुल कर बात करने की आवश्यकता है।
भारत सरकार को इस समय यह अहसास क्यों हुआ, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है, लेकिन व्यापक संदर्भ में यह अप्रासंगिक है। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण ऐसे संकेतों की वजह से है कि इस सोच के पीछे प्रेरक कारण कुछ कॉरपोरेट घरानों की जरूरत हो सकती है। हाल में ऐसी खबरें आई थीं, जिनके मुताबिक अडानी समूह सहित कई कॉरपोरेट घरानों ने सरकार से चीनी विशेषज्ञों की वीजा जारी करने की गुजारिश की। इसके अलावा निर्यात बढ़ाने की योजनाओं में एक तथ्य यह है कि वे अभी तक असल में असेंबलिंग की योजनाएं हैं, जिनके लिए ज्यादातर घटक सामग्रियां चीन से आती हैं। उस वजह से चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा बढ़ता चला गया है। चीन की कीमत पर जिस पश्चिमी पूंजी ने अब तक भारत का रुख किया है, उसमें सबसे बड़ा हिस्सा वॉल स्ट्रीट की वित्तीय पूंजी का है। मगर चीन की अर्थव्यवस्था का जो स्वरूप है, उसके मद्देनजर इस पूंजी की उसे बहुत जरूरत भी नहीं है। (Whither China 5: No, China is not competing with India for Wall Street’s attention. (substack.com))
बहरहाल, यह प्रश्न अप्रासंगिक इसलिए है, क्योंकि चाहे सरकार के पसंदीदा कॉरपोरेट घरानों की मांग हो, या देश की अर्थव्यवस्था का तकाजा, जो सवाल आर्थिक सर्वे में उठाए गए हैं, उनसे आज बचा नहीं जा सकता। उनका सामना देश को करना ही होगा। और देर-सबेर यह सवाल भी चर्चा में आएगा कि आखिर आर्थिक विकास के समान स्तर से लगभग एक ही समय पर यात्रा शुरू करने वाले दो देशों (चीन और भारत) में से एक- यानी (भारत) के सामने आज ऐसा अप्रिय सच क्यों उपस्थित हुआ है?
इस क्रम में दोनों देशों ने विकास के जो मॉडल अपनाए, वे विचार-विमर्श के केंद्र में आएंगे। इस तुलना के क्रम में यह स्पष्ट होगा कि कुछ खास पहलुओं ने ये सारा फर्क डाला है। यह स्पष्ट होगा कि राज्य की क्षमता (state power), अर्थव्यवस्था में नियोजन (planning) की भूमिका, और राज्य की विचारधारा (state ideology) वो निर्णायक तत्व हैं, जो दोनों देशों को अलग दिशा में ले गए और जिनके बिल्कुल अलग परिणाम सामने आए हैं।