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क्रिकेट में भारत पहली बार देख रहा है ‘नीली क्रांति’

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शेखर गुप्ता

इस क्रिकेट विश्वकप में भारतीय टीम जब उतरी थी तब उसके आलोचकों और प्रशंसकों, दोनों के मन एक ही शंका थी कि वह 2013 में बर्मिंघम में चैंपियंस ट्रॉफी जीतने के बाद से पिछले एक दशक में आईसीसी (इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल) की एक भी ट्रॉफी नहीं जीती है. हमेशा वह ‘नॉकआउट’ चरण में आकर टूर्नामेंट से बाहर हो जाती रही, और एक बार तो पाकिस्तान से भी हार गई थी (2017 में ओवल मैदान में चैंपियंस ट्रॉफी में). यानी भारतीय टीम में कोई बुनियादी कमजोरी है.

प्रशंसक जितने ढुलमुल होते हैं, आलोचक उतने ही आक्रामक होते हैं. इन परस्पर विरोधी जज्बों के बीच असली कहानी दोनों की पकड़ से छूट जाती है. वह यह कि भारतीय क्रिकेट में क्रांति आ गई है. ऐसी क्रांति, जिसकी कल्पना भी हमारी पीढ़ी के लोग नहीं कर सकते थे. और यह क्रांति एक या दो स्टार बल्लेबाजों के कारण नहीं बल्कि दुनिया की सबसे घातक तेज गेंदबाजी की देन है. इस क्रांति की बुनियाद इन तीन खंभों पर टिकी है— गेंदबाजी में बढ़ती तेजी, फिटनेस और फील्डिंग के बेहतर मानदंड, खिलाड़ियों की बढ़ती दौलत.

तो भारतीय टीम इतने लंबे समय से कोई आईसीसी ट्रॉफी क्यों नहीं जीत पाई थी? इसके लिए कौन दोषी है— क्रिकेट बोर्ड? या चयनकर्ता? या खिलाड़ी? या ये तीनों? आम तौर पर आईपीएल को दोषी ठहरा दिया जाता है कि इसने अनुशासन, राष्ट्रीय भावना, भारतीय क्रिकेटरों की प्रतिभा को बर्बाद कर दिया. इससे भी बुरी बात यह कि इसने उन्हें पैसे के लिए लालची, उग्र शोमैन में तब्दील कर दिया, जो राष्ट्रीय गौरव से ज्यादा, अपने लिए लगाई जाने वाली बोली को महत्व देते हैं.

एकदिवसीय (ओडीआई) मैचों में भारत पहली बार जनवरी 2013 में नंबर वन बना, मुंबई में विश्वकप जीतने के करीब दो साल बाद. उसके बाद से वह आठ बार नंबर वन रहा है. इस खेल के सबसे तेज फॉर्मेट में यह अविश्वसनीय उपलब्धि है. इस साल के शुरू के कुछ महीनों में पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया ने हमसे यह खिताब छीन लिया था. यह वह दौर था जब प्रशंसक बुरी तरह निराश थे. अब, इस विश्वकप की शुरुआत से हम उस पायदान पर विराजमान हैं.

अब व्यापारिक दृष्टि से सबसे तेज वृद्धि कर रहे टी-20 फॉर्मेट में भारत का दबदबा उतनी निरंतरता से कायम नहीं रहा है. फिर भी, 2011 के बाद से वह पांच बार टॉप पर रहा है. और फरवरी 2022 के बाद से वह लगातार 21 महीने से इस पायदान पर कायम है.

इसमें शक नहीं है कि बड़े टूर्नामेंट का फैसला फाइनल मैच के दिन टीम के प्रदर्शन से होता है, जब रैंकिंग आदि काम नहीं आती. भारत के सिवा इस तथ्य को कौन अच्छी तरह से जान सकता है, जिसने खेल के फॉर्म बुक और उसकी गति को धता बताते हुए पहला विश्वकप (लॉर्ड्स, 1983) जीता था. तब आइसीसी रैंकिंग आदि का कोई वजूद नहीं था, लेकिन किसी को शक नहीं था कि क्लाइव लॉयड की वेस्टइंडीज टीम दुनिया में बाकी टीमों से कहीं आगे, और टॉप टीम है. इसे लेकर अगर कोई भ्रम था तो वह जल्दी ही टूट गया जब उस विश्वकप फाइनल के बाद वेस्टइंडीज टीम द्विपक्षीय सीरीज खेलने भारत आई और उसने भारत को टेस्ट और ओडीआई मैचों में बुरी तरह पीट दिया.

उसके बाद से विश्व क्रिकेट के उच्चता-क्रम में भारी उथलपुथल हो चुका है, और वह इतने नाटकीय ढंग से हुआ है कि इस विश्वकप के लिए वेस्टइंडीज टीम क्वालिफ़ाइ भी नहीं कर पाई जबकि अफगानिस्तान की टीम ने सनसनी फैला दी और नीदरलैंड की टीम ने भी दक्षिण अफ्रीका को हराने का बड़ा उलटफेर करके अपनी मौजूदगी जता दी. एक बड़ा बदलाव उस मामले में आया है जो विश्व क्रिकेट में ताकत जताने का सबसे बड़ा हथियार रहा है, वह है फास्ट बॉलिंग. भारत ने इसमें जबरदस्त सुधार किया है.

पाकिस्तान की फास्ट बॉलिंग कमजोर हुई है, वास्तव में वह कुछ घटनाओं, और गेंद के साथ छेड़छाड़ पर आइसीसी द्वारा तीखी नजर रखे जाने के बाद से अपनी मूल आक्रामकता नहीं हासिल कर पाई, हालांकि अंग्रेजी मीडिया मोहम्मद आमिर और शाहीन शाह आफरीदी जैसे धुरंधरों को उछालता रहा है. इस विभाग में ऑस्ट्रेलिया के पास पर्याप्त से ज्यादा खिलाड़ी हैं, जबकि दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड तैयारी में जुटी है. इस विभाग में प्रतिभा और गहराई टॉप पर पहुंचने और वहां बार-बार तथा लंबे समय तक बने रहने की कुंजी है.

यह नीली क्रांति है— दो दशकों से शिखर की ओर बढ़ने की भारतीय कामयाबी की कहानी, 1983 वाले गौरव की क्षणिक उपलब्धि नहीं! इसकी वजह यह है कि इस देश में इस खेल ने बेहतरी की ओर व्यवस्थित परिवर्तन किया है, जबकि क्रिकेट के लिए बाजार भी यहां पहुंचा और उसके साथ इसका सत्ता केंद्र भी.

इस कामयाबी की सबसे बड़ी वजह है सच्ची ‘प्रतिभाशाही’ का उभार.

जैसा कि शाहरुख खान की नयी सुपरहिट फिल्म ‘जवान’ में दिखाया गया है, हम सब अपने देश में तथाकथित ‘सिस्टम’ को कोसना खूब पसंद करते हैं. जरा देखें कि क्रिकेट में यह सिस्टम क्या है?

आज कोई जय शाह, कल को कोई अनुराग ठाकुर, शरद पवार, जगमोहन डालमिया, एन. श्रीनिवासन, माधवराव सिंधिया, या कल से पिछले दिन कोई आइ.एस. बिंद्रा और हमेशा के लिए कोई राजीव शुक्ला, सभी को निशाना बनाना आसान है. वे कभी क्रिकेटर नहीं रहे, तो वे इस खेल के कर्ता-धर्ता क्यों हैं? उन पर हमला करना आसान रहा है.

यहां तक कि सबसे पवित्र सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में हाथ डाला. यह और बात है कि उसने बीसीसीआई को अनुराग ठाकुर के हाथ से लेकर वापस जय शाह के हाथ में सौंप दिया. भारतीय क्रिकेट को नेताओं और व्यापारियों की ‘गिरफ्त’ से मुक्त कराने और ‘सुधारने’ के लिए ताकतवर नौकरशाहों से लेकर सद्गुणों की ओर संकेत करने वाले शुभचिंतकों तक ने सुप्रीम कोर्ट से हाथ मिला लिया. लेकिन वे इसमें बुरी तरह नाकाम रहे, और इसी ने भारतीय क्रिकेट को बचा लिया.

इस खेल को इस उथल पुथल से बचा लिया गया, यह भारतीय क्रिकेट की ताकत और इसका प्रबंधन करने वाले निंदित समूह की प्रतिबद्धता का ही सबूत है. क्रिकेट बोर्ड को इसके लिए कोई 20-30 करोड़ खर्च करने पड़े, वह भी ज़्यादातर फीस के रूप में, जो कि कोर्ट के आदेश पर एक रिटायर्ड जज-नौकरशाह से छुटकारा पाने और उन्हें कहीं और काम पर लगाने में खर्च करना पड़ा. लेकिन निष्पक्ष चयन, खेल में निवेश, तथा उसके विकास की व्यवस्था को सुरक्षा मिली.

इसके नतीजे हमारे सामने हैं. हमारे देश में किसी खेल के मुक़ाबले क्रिकेट में चयन प्रक्रिया सबसे निष्पक्ष और प्रतिभा-केंद्रित है.

यह राजनीति, सरकारी सेवाओं, कॉर्पोरेट जगत, और खुदा के लिए, न्यायपालिका के मुक़ाबले भी ज्यादा साफ-सुथरी है. क्रिकेट टीम के चयन को लेकर वास्तव में कोई विवाद हुआ हो, यह लंबे समय से नहीं सुना गया है. क्रिकेट बोर्ड चाहे जिसके भी हाथ में हो, वे जानते हैं कि चयन में गड़बड़ी हुई और टीम का प्रदर्शन गिरा, तो बाजार उन्हें ही सजा देगा. आप जजों से भले न डरें, मगर उस फैन से जरूर डरेंगे, जो उस खेल का उपभोक्ता है और बाजार के जरिए अपनी आवाज उठाता है.

इस भारतीय टीम में खिलाड़ियों के क्षेत्रों, धर्मों, जातियों का पता आप गूगल पर लगा सकते हैं. आपको सिर्फ यही पता चलेगा कि भारतीय विविधता का प्रतिनिधित्व इस टीम से बेहतर शायद ही कोई दूसरा  संस्थान कर रहा है. और हर कोई अपनी प्रतिभा के बूते टीम में है. दक्षिण अफ्रीका की तरह भारत ने खेलों में कभी मूर्खतापूर्ण आनुपातिक व्यवस्था या ‘सकारात्मक कदम’ जैसी नीति नहीं लागू की.

योग्यता पर मजबूती से आधारित इस व्यवस्था का ही फल है कि यह टीम भारत की विविधता को दूसरे किसी संस्थान के मुक़ाबले बेहतर प्रतिनिधित्व दे रही है, चाहे वह केंद्रीय मंत्रिमंडल हो या हमारे मुख्यमंत्री, या सिविल सेवाएं, सेनाओं और सुरक्षा एजेंसियों, न्यायपालिका का नेतृत्व, या हमारे न्यूज़रूम तक क्यों न हों.

भारतीय क्रिकेट के इस जबरदस्त उत्कर्ष का सबसे बड़ा संदेश यही है, कि प्रतिभा शिखर तक पहुंचने का अपना रास्ता खोज ही लेगी, बशर्ते आप सच्ची ‘प्रतिभाशाही’ का निर्माण करें. इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि केवल बाजार ही इसे संभव बनाता है, न कि कोई सरकारी आदेश या न्यायिक हस्तक्षेप या सकारात्मक कदम. क्रिकेट ने यह साबित कर दिखाया है.

लेकिन भारतीय क्रिकेट की सेहत का अंदाजा लगाने का एक दूसरा भी तरीका रहा है, और आज भी है. आइसीसी ट्रॉफी का इतने लंबे समय तक सूखा पड़ने की बात को फिलहाल भूल जाइए, और यह देखिए कि भारतीय टीम क्रिकेट के सभी तीनों फॉर्मेट में आइसीसी रैंकिंग में नंबर वन है. कुछ लोगों को इन रैंकिंग्स पर शंका हो सकती है लेकिन इससे यह तथ्य नहीं बदल जाता कि उन्हें महत्व दिया जाता है. इन रैंकिंग्स में अगर आपकी टीम नहीं आई तो प्रशंसक ज्यादा निराश हो जाते हैं. पिछले दो दशकों में हम नंबर वन रहने के आदी हो चुके हैं. इस मामले में कुछ आंकड़े काबिले गौर हैं.

इस खेल के सबसे चुनौतीपूर्ण फॉर्मेट, टेस्ट क्रिकेट में भारत पहली बार 2009 में नंबर वन पायदान पर पहुंचा, जबकि पहला टेस्ट मैच उसने इससे 77 साल पहले खेला था. 2009 के बाद से वह टेस्ट रैंकिंग में सात बार नंबर वन रहा है, और इसकी कुल अवधि देखें तो वह 70 महीने यानी करीब छह साल तक नंबर वन रहा है. इन 70 महीनों में से 49 महीने जनवरी 2016 से जनवरी 2022 तक के हैं. जनवरी 2022 में ऑस्ट्रेलिया ने भारत को मई 2023 तक नंबर दो के पायदान पर धकेल दिया लेकिन इसके बाद भारत फिर सबसे ऊंचे पायदान पर जा बैठा. अकेली भारतीय टीम ही है जिसने लंबे समय बाद ऑस्ट्रेलिया को लगातार चार सीरीज़ (अंतिम चार) में हराया, दो सीरीज़ भारत में और दो विदेश में.

प्रिंट से साभार

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