मीना राजपूत
_”जिस धरती पर हर अगले मिनट एक बच्चा भूख या बीमारी से मरता हो, वहाँ पर शासक वर्ग की दृष्टि से चीज़ों को समझने की आदत डाली जाती है। लोगों को इस दशा को एक स्वाभाविक दशा समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। लोग व्यवस्था को देशभक्ति से जोड़ लेते हैं और इस तरह से व्यवस्था का विरोधी एक देशद्रोही अथवा विदेशी एजेण्ट बन जाता है। जंगल के क़ानूनों को पवित्र रूप दे दिया जाता है ताकि पराजित लोग अपनी हालत को अपनी नियति समझ बैठें।”_
– एदुआर्दो ग़ालियानो
(उरुग्वे के विश्वप्रसिद्ध लेखक)
हाल ही में आयी वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट-2022 ने एक बार फिर मोदी सरकार के विकास के दावे से पर्दा उठा दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भुखमरी के मामले में दुनियाभर के 121 देशों में भारत 107वें पायदान पर है। भारत को उन देशों की सूची में शामिल किया गया है जहाँ भुखमरी की समस्या बेहद गम्भीर है। भारत की रैंकिंग साउथ एशिया के देशों में केवल अफ़ग़ानिस्तान से बेहतर है, जो तालिबानी क़हर झेल रहा है।
उभरती हुई अर्थव्यवस्था, 5 ट्रिलियन इकॉनामी आदि के कानफाड़ू शोर के पीछे की असली सच्चाई यह है कि भुखमरी और कुपोषण के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल से तुलनात्मक रूप से बेहद ख़राब स्थिति में है। इस मामले में भारत युद्ध विभीषिका झेल रहे कुछ देशों और साम्राज्यवादी लूट का अड्डा बने अफ़्रीका के देशों से ही तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में है। पिछले साल की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत 116 देशों की सूची में 101वें स्थान पर था।
क्या होता है वैश्विक भूख सूचकांक?
जर्मनी की ग़ैर-सरकारी संस्था ‘वेल्ट हंगर हिल्फ़’ और आयरलैण्ड की ग़ैर-सरकारी संस्था ‘कन्सर्न वर्ल्डवाइड’ हर साल चार मानकों – कुपोषण, बाल मृत्यु दर, उम्र के हिसाब से वज़न कम होना और उम्र के हिसाब से लम्बाई कम होना के आधार पर दुनियाभर में भुखमरी के हालात पर रिपोर्ट जारी करता है जिसे ग्लोबल हंगर इण्डेक्स कहा जाता है।
*सरकार की बेशर्मी और ज़मीनी सच्चाई:*
पिछले सालों की तरह मोदी सरकार इस बार भी बेशर्मी से इस रिपोर्ट को ही झुठलाने में लग चुकी है। देश को भुखमरी, कुपोषण, बेरोज़गारी के दलदल में धकेलकर मोदी सरकार बेशर्मी से रिपोर्ट को भारत की छवि ख़राब करने वाला बता रही है। हर इन्साफ़पसन्द नागरिक जानता है कि कोरोना महामारी के बाद करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गये और आज भी नौकरी की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
रेहड़ी-खोमचा लगाने वाली करोड़ों की आबादी जो लॉकडाउन में उजड़ गयी थी अब भी भूख की विभीषिका झेल रही है। पूँजीवादी व्यवस्था की आम गतिकी ही ऐसी होती है कि यह समाज के मुट्ठीभर धनकुबेरों के लिए ऐय्याशी, और सुख सुविधाओं की मीनार खड़ी करती है तो वहीं दूसरी ओर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के हिस्से से रोटी-दाल भी दूर करती जाती है। एक तरफ़ मोदी सरकार की कृपा से गौतम अडानी दुनिया के दूसरे सबसे अमीर शख़्स बन गये हैं, तो वहीं दूसरी ओर इण्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईएमआरसी) की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में आज भी कुपोषण से पाँच साल से कम आयु के 68.2% बच्चों की मौत हो जाती है।
भारत में पैदा होने वाला हर चौथा बच्चा जन्म के समय कम वज़न का होता है। हालत का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुपोषण की वजह से बच्चों में अपनी उम्र की तुलना में विकास की दर 39.3 प्रतिशत रही है। रिपोर्ट के अनुसार 32.7 प्रतिशत बच्चे कम वज़न से पीड़ित थे। जबकि 59.7 प्रतिशत आयरन की कमी से पीड़ित पाये गये। देशभर में 15 साल से लेकर लेकर 49 साल तक की स्त्रियों में से 54.4% एनीमिया से पीड़ित हैं।
आम तौर पर पूँजीवादी तर्कों से लैस मध्यवर्ग भुखमरी महाँगाई बेरोज़गारी आदि समस्यओं के लिए जनसंख्या को ज़िम्मेदार बताता है। ग्लोबल हंगर इण्डेक्स की यह रिपोर्ट इस दावे की भी पोल खोल देती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश, चीन में भुखमरी न के बराबर है और वह भी उसके समाजवादी अतीत का ही नतीजा है। इन आँकड़ों की रोशनी में देखा जाये तो फ़ासीवादी मोदी सरकार की लफ़्फ़ाज़ी खुल के सामने आ जाती है।
हर सरकारी और ग़ैर-सरकारी रिपोर्ट देश की बदतर होती स्थिति की गवाही दे रही है। पूरी सभ्यता का भार अपने कन्धों पर उठाने वाले मेहनतकशों के पेट ख़ाली हैं। इस रिपोर्ट ने एक बार फिर दिखला दिया है कि पूँजीवादी व्यवस्था मेहनतकशों को भूख-कुपोषण, असुरक्षा के अलावा कुछ और नहीं दे सकती है।
{स्रोत : मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022}