अब इस बदलाव में राजनितिक सत्ता, मीडिया, उद्योगपति और फिल्म इंडस्ट्री की भागीदारी रही यह बात मायने नहीं रखती. मायने रखता है बदला हुआ हिंदू समाज, जो यह तय करेगा कि भारत का अगला निजाम कौन होगा. यह बदला हिंदू समाज धर्मांध, मुसलमानों से नफरत करने वाला, उद्योगपतियों को तारणहार मानने वाला, ब्राह्मणों को मार्ग दर्शक मानने वाला, असमानता का समर्थक, अंधविश्वासी और हिंसक है. ऐसे में अगर इन्हें बदलना है तो यह जरूरी है कि पहले हम यह समझें कि गैर भाजपाई राजनितिक दल क्या कर सकते थे इसे रोकने के लिए क्योंकि इस समाज को ऐसा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका बीजेपी की राजनितिक ताकत और मीडिया की रही. बिहार शरीफ में जो हिंदू समाज को बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई उसे समझ कर शायद एक मॉडल तैयार किया जा सकता है जो हिंदू समाज को वापस समान, धर्म निरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक, सहिष्णु और अहिंसक बना सकता है.
सागर
वह 22 जनवरी थी. पास के बजरंग बली के मंदिर को शूद्र बनियों ने फूल मालाओं से सजाया था. पांच ब्राह्मण को बुला कर वे हवन करवाने वाले थे. परसों ही उन्होंने मंदिर को पीने के साफ पानी से पाइप लगा कर धोया था क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों से आह्वान किया था कि वे अपने आस-पास के मंदिरों को धोएं. मंदिर के बाहर बड़े-बड़े साउंड बॉक्स भी रखे थे जिनमें जोर-जोर से “राम आएंगे” गाने लगातार बज रहे थे. लगभग 200 गज तक सड़क झंडी-पताका से सजी पड़ी थी. जब मैं अपनी पांच किलोमीटर की मॉर्निंग वॉक पर आगे निकला, तो पता चला शहर के सभी मंदिरों का यही हाल था. सिर्फ मंदिर ही नहीं शहर के सबसे मशहूर स्कूल, आरपीएस, में भी बच्चे अपनी सुबह की असेंबली में “राम आएंगे” गा रहे थे. 1990 के आखिरी दशक में मेरी स्कूलिंग यहीं से हुई थी. तब सुबह की असेंबली में हम छात्र भारत की प्रस्तावना “हम भारत के लोग” गाते थे.
असल में मौका था अयोध्या के नए मंदिर में राम की प्रतिमा स्थापित करने का, जिसे राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने “प्राण प्रतिष्ठा” का नाम दिया था. ट्रस्ट ने मंदिर पिछले तीन साल में बनवाया है. इसी जगह पर पहले सोलहवीं सदी की बाबरी मस्जिद हुआ करती थी और इसके आस-पास लगभग आधा दर्जन पौराणिक हिंदू मंदिर भी. मगर ट्रस्ट ने उन सबको हटवा कर पूरे 3 एकड़ में मंदिर बनवाया, जबकि मंदिर परिसर लगभग 70 एकड़ में. ब्राह्मण पुजारीगण प्राण-प्रतिष्ठा को मोदी के हाथों करवाने वाले थे. वैसा सोचा जाए तो अटपटा लगेगा कि आखिर कोई इंसान भगवान में प्राण को कैसे प्रतिष्ठित कर सकता है. भगवान तो इंसानो में जान फूंकते हैं, कोई उनमें कैसे जान फूंक सकता है. मगर आज के भारत में ऐसा सोचने वाले कितने हैं यह एक अलग सवाल है.
बहरहाल, बिहार शरीफ में दोपहर होते ही मंदिरों में हवन शुरू हो गया था. अगर आप इस वक्त इस शहर के किसी घर की छत पर खड़े हो जाते तो हर दिशा से जय श्रीराम के नारे सुनाई देते. लोगों ने अपने छतों पर नया भगवा झंडा भी लगाया था. जिनमें राम और अयोध्या में बनी मंदिर का तस्वीरें थीं. जैसा कि प्रधानमंत्री ने एक अपील में कहा था, शाम होते ही हर जाति के हिंदुओं ने अपने घरों में दिए जलाए, बच्चों ने पटाखे भी फोड़े और जय श्रीराम के नारे दिन भर लगाए. मोदी के अयोध्या में दिए जा रहे भाषण को बड़े-बड़े साउंड बॉक्स पर सुनाया गया.
बिहार शरीफ बिहार के नालंदा जिले का एक छोटा सा शहर है जिसकी आबादी लगभग 4 लाख है. यह बिहार के मुख्यमंत्री का संसदीय क्षेत्र भी रहा है जब वह केंद्र में मंत्री थे. 1990 के दशक में यहीं से समता पार्टी की शुरुआत जॉर्ज फर्नांडेस ने की थी. पिछले 25 साल से नालंदा नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड की लोकसभा सीट रही है. हालांकि केंद्र में मोदी के आने के बाद से बिहार शरीफ के विधायक भारतीय जनता पार्टी से रहें. 22 जनवरी को जो कुछ भी यहां हुआ लगभग वैसा ही भारत के कई शहरों में हुआ. अगली सुबह अखबारों की सुर्खियां “भारत ने दिवाली मनाई” जैसी खबरों से पटी थीं. इससे बेहतर और बड़ा राम मंदिर के उद्घाटन का उत्सव भारतीय जनता पार्टी के लिए नहीं हो सकता था. यह मंदिर उनके राजनितिक मैनिफेस्टो का हिस्सा पिछले तीन दशक से था. राम मंदिर का सामूहिक उत्सव मनना इस बात का संकेत था कि भारतीय जनता दल भारतीय हिंदू समाज को बड़े पैमाने पर बदलने में कामयाब रही है.
अब इस बदलाव में राजनितिक सत्ता, मीडिया, उद्योगपति और फिल्म इंडस्ट्री की भागीदारी रही यह बात मायने नहीं रखती. मायने रखता है बदला हुआ हिंदू समाज, जो यह तय करेगा कि भारत का अगला निजाम कौन होगा. यह बदला हिंदू समाज धर्मांध, मुसलमानों से नफरत करने वाला, उद्योगपतियों को तारणहार मानने वाला, ब्राह्मणों को मार्ग दर्शक मानने वाला, असमानता का समर्थक, अंधविश्वासी और हिंसक है. ऐसे में अगर इन्हें बदलना है तो यह जरूरी है कि पहले हम यह समझें कि गैर भाजपाई राजनितिक दल क्या कर सकते थे इसे रोकने के लिए क्योंकि इस समाज को ऐसा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका बीजेपी की राजनितिक ताकत और मीडिया की रही. बिहार शरीफ में जो हिंदू समाज को बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई उसे समझ कर शायद एक मॉडल तैयार किया जा सकता है जो हिंदू समाज को वापस समान, धर्म निरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक, सहिष्णु और अहिंसक बना सकता है. मोदी के केंद्र में आते ही लगभग 20 साल बाद बीजेपी की बिहार शरीफ विधान सभा सीट पर 2015 में वापसी हुई. यह वह समय था जिसे राजनितिक वैज्ञानिक मोदी लहर कहते थे. मोदी लहर का मतलब था एक ऐसी विचारधारा जो मुसलमानों को हिंदुओं का दुश्मन मानती थी, रूढ़िवादी हिंदू धर्म में विश्वास करती थी और पूंजीवाद को देश का निर्माता समझती थी. मोदी के शासनकाल में बिहार शरीफ में जो सबसे बड़ा बदलाव आया: वह था नए मंदिरों का निर्माण और पुराने मंदिरों का विस्तार. शहर में कम से कम आधे दर्जन नए मंदिर खड़े हो गए. उनके आस-पास फूल-मालाओं की दुकानें और बड़े-बड़े साउंड बॉक्स से बजते भजन भी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो गए. पहले जहां शांति हुआ करती थी अब चार महल्ले दूर तक 24 घंटे भजन बजते रहते. पुराने मंदिर जहां नए जोड़े शादी-व्याह के बाद देवी-देवताओं का आशीर्वाद लेने जाते थे, उसका स्वरूप बदल दिया गया. अब वे और बड़े हो गए, वहां भी लाउडस्पीकर लगा दिए गए. पूजा अर्चना के आलावा इन मंदिरों में कई धार्मिक आयोजन होने लग गए. ऐसे-ऐसे अनुष्ठान जिसका नाम भी स्थानीय लोगों ने पहले नहीं सुना था. मगर धर्म के नाम सब चलता रहा. न सरकार ने इस बदलाव को देखा और न प्रसाशन ने. ये मंदिर बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा निकाले जाने वाले रामनवमी और अन्य शोभा यात्राओं का संयोजन केंद्र बने. शोभा यात्रा में शामिल होने वाले लड़कों को पानी और नास्ता यही मंदिर कराते.
दूसरा सामाजिक बदलाव था लंगोटा जैसे स्थानीय मेलों का आरएसएस द्वारा हरण. इन हिंदू मेलों का स्वरूप बदल दिया गया. ये पहले स्थानीय स्तर पर हर जाति और धर्म के लोगों द्वारा आयोजित किए जाते थे. मगर 2014 के बाद से लंगोटा में डीजे और तलवारों की मौजूदगी आम हो गई. नीतीश सरकार धार्मिक यात्राओं और मेलों में तलवारों के इस्तेमाल को रोक सकती थी, इन यात्राओं में किसी और के धर्म के खिलाफ नारेबाजी पर रोक लगा सकती थी, मगर साल-दर-साल ये मेले और यात्रा और खतरनाक होते गए. जो कभी खुशी का अहसास देते थे अब वे मेले नए लड़कों के लिए युद्ध अभ्यास जैसे हो गए. अब वे उनमें इसलिए शामिल हो रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था इस तरह वे हिंदू समाज की ताकत दिखा पा रहे थे. बिहार शरीफ में करीब एक तिहाई आबादी मुसलमानों की है. 1990 के दशक में बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद यहां कई सांप्रदायिक दंगे हुए. हालांकि ये दंगे 1998 के बाद खत्म हो गए, जब एक न्यायिक आदेश ने शोभा यात्राओं का रूट बदल दिया. 1998 के बाद बिहार शरीफ में दोबारा दंगा अप्रैल 2023 में रामनवमी शोभा यात्रा के दौरान हुआ. दंगो के बाद बिहार शरीफ के बजरंग दल के मुखिया कुंदन कुमार की गिरफ्तारी भी हुई, हालांकि आठ महीने बाद कुमार छूट गए. बिहार सरकार ने आरएसएस द्वारा हरित हिंदू त्योहारों की समस्या को सिर्फ एक लॉ एंड आर्डर की समस्या की तरह लिया. सांप्रदायिक दंगा एक मौका था जब सरकार आरएसएस की शाखाओं को जड़ से खत्म कर सकती थी मगर उनका जवाब कुछ गिरफ्तारी तक सिमित रहा. स्थानीय त्योहारों के अलावा बीजेपी दुर्गा मूर्ति के विसर्जन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगी. मुख्यमंत्री खुद शामिल होते हैं ऐसे आयोजनों में. दुर्गा मूर्ति को स्थानीय बीजेपी अपनी राजनीती को आगे बढ़ने के एक प्लेटफार्म की तरह इस्तेमाल करती रही.
बिहार शरीफ के समाज में तीसरा बड़ा बदलाव है यहां के स्कूलों का ब्राह्मणीकरण होना. पिछले कुछ सालों में यहां के निजी स्कूलों में सरस्वती पूजा से लेकर विवेकानंद का जन्मदिन मनाया जाता रहा है. कई स्कूलों में सुबह की असेंबली को कथावाचक संबोधित करने लगे. ये कथावाचक घुमा-फिरा कर बच्चों के दिमाग में पूजा-पाठ और हिंदू इतिहास के प्रति श्रद्धा जगाते. असेंबली खत्म होने से पहले बच्चों से गायत्री मंत्र जैसे धार्मिक श्लोक और “मां शारदे कहां तुम वीणा बजा रही हो” गंवाए जाते. शिक्षा राज्य सरकार का विषय होने के बाबजूद, बिहार सरकार ने कभी संज्ञान नहीं लिया कि यहां के निजी स्कूलों में धार्मिक बातें क्यों सिखाई जा रही है. सरकार एक आदेश ला सकती थी कि बिहार के हर स्कूलों में सुबह की असेंबली में भारत की प्रस्तावना के सिवाय और कुछ नहीं गाया जाएगा, चाहे वह मिशनरी स्कूल ही क्यों न हो.
पिछले साल अप्रैल में विपक्षी दल के राज्य सरकारों की एक ऑनलाइन मीटिंग हुई थी. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की अध्यक्षता में हुई उस मीटिंग में बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी शामिल हुए थे. इस मीटिंग में स्टालिन ने सामाजिक बदलाव का एक महत्वपूर्ण विचार रखा था. उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार आम लोगों तक पेरियार के विचारों को पहुंचाने का प्रयास कर रही है. उन्होंने एक तरीके की सामाजिक ट्रेनिंग की बात की थी जिससे आम जनता में बीआर आंबेडकर, ज्योतिबा फूले और पेरियार जैसे सामाजिक न्याय के महानायकों के विचार फैलें. ऐसी आखिरी कोशिश बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने की थी. उन्होंने 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में महापुरुषों के मेले, जैसे आंबेडकर मेला और फूले मेला, लगवाएं जहां लोग उनकी लिखी किताबें खरीद सकते थे, उनसे जुडी चीजे, जैसे तस्वीर, लॉकेट खरीद सकते थे. 1995 में जब बसपा की सरकार आई तो कांशीराम ने ब्राह्मण रिवाजों जैसे कुंभ मेला का सरकारी खर्चे पर आयोजन बंद करा दिया. उसके बदले उन्होंने आंबेडकर मेला और अन्य मेले लगवाए. आज के विपक्षी दल की किसी सरकार ने ऐसी कोशिश नहीं की. वे हमेशा बीजेपी के रूढ़िवादी हिंदू (हार्ड हिंदू) विचारधारा का जवाब उदारवादी हिंदू (सॉफ्ट हिंदू) विचारधारा से देते रहे. उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए कुछ नहीं किया. अप्रैल की उस बैठक के बाद भी तेजस्वी यादव ने कोई ऐसा सामाजिक आंदोलन नहीं चलाया जिससे कम-से-कम पिछड़े, अत्यंत पिछड़े, दलित और आदिवासी हिंदुओं में सामाजिक न्याय की चेतना जाग सके. उसी महीने, उनके शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने तुलसीदास रचित रामचरितमानस में शूद्रों को अपमान करने वाली चौपाई का विरोध करके साहस जरूर दिखाया मगर उनकी पार्टी इस विरोध को जनता तक नहीं ले जा पाई. फिर तेजस्वी के गठबंधन सहयोगी नीतीश कुमार ने कैबिनेट में फेर बदल करके चंद्रशेखर से शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण विभाग छीन कर उन्हें गन्ना विभाग में डाल दिया. मीडिया ने इस अफवाह पर मुहर लगा दी कि चंद्रशेखर को उनके रामचरितमानस के बयानों के चलते किनारे कर दिया गया. नीतीश कुमार की बात करें तो वह अक्सर हिंदू धर्म के प्रति खुद को समर्पित करते आए हैं. चाहे सार्वजानिक पूजा पाठ हो या धार्मिक आयोजनों में भाग लेना हो, कुमार ने रूढ़िवादी हिंदू विचारधारा को कभी बदलने की कोशिश नहीं की.
पिछले कुछ सालों में बिहार शरीफ में बाबाओं की संख्या भी बढ़ी है. कोई भी ऐसा मंदिर अछूता नहीं रहा है जहां कोई न कोई बाबा बैठ कर घरेलु महिलाओं में अंधविश्वास न भर रहा हो. कोई त्योहार कब मनाना है, इसका निर्णय अब महिलाएं कैलेंडर देख कर नहीं बल्कि किसी बाबा से पूछ कर करती हैं. कितने बजे मनाना है यह भी अब बाबा ही तय कर रहे हैं. शहर के इन परमानेंट बाबाओं के अलावा लगभग हर महीने शहर के किसी न किसी कोने में कोई ब्राह्मण कथावाचक आया होता है जो लोगों के मन में धर्म के नाम पर रूढ़िवादी बातें भरता है. इन कथावाचकों के भाषण का आयोजन पिछड़ी जाति के नेता ही करते रहे हैं. धर्म के नाम पर असामनता, कुरीतियां और अंधविश्वास को फैलाने में विपक्षी दल सिर्फ मददगार रहे हैं. बीजेपी की राजनीति की इज्जत लोगों में अपने आप बढ़ती जाती है जैसे-जैसे वे कुरीतियां और अंधविश्वास अपनाते जाते हैं.
बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना कर सामाजिक न्याय के आंदोलन को एक हवा तो दी थी मगर वह इस आंदोलन के पीछे जमीनी सहयोग नहीं जुटा पाई. बदलाव ऊपर से आया मगर हिंदू समाज के लोगों में आरक्षण जैसे सामाजिक न्याय के औजारों से रिश्ता टूट-सा गया था. वे आरक्षण के नाम पर एकसाथ जुड़ ही नहीं पाए, जैसे उनमें कोई चेतना ही न हो. जातिगत जनगणना को रुकवाने के लिए जब ऊंची जाति के एक व्यक्ति कोर्ट गए और बीजेपी ने परोक्ष रूप से उसका सपोर्ट किया, तब भी पिछड़ी जाति के लोग सड़क पर नहीं उतरे. यहां तक कि केंद्र की बीजेपी सरकार ने कोर्ट में जातिगत जनगणना के खिलाफ अर्जी दी, मगर फिर भी पिछड़ों ने धर्म का साथ नहीं छोड़ा. राम मंदिर के उद्गाटन की घोषणा पर उन्होंने मोदी की बातों को तोते की तरह माना: मंदिर धोए, हवन कराए, दिए जलाए और अपने घरों में झंडे लगाए. इसमें सारा दोष विपक्ष को मढ़ना भी शायद सही नहीं होगा. आरएसएस ने सवर्ण जगत को इस तरह एकीकृत किया है कि चाहे सवर्ण किसी भी क्षेत्र में थे, उद्योग, सरकार, मीडिया, फिल्म, उन्होंने हिंदू धर्म को स्थापित करने में अपना सहयोग दिया. और समाज के जब समर्थ लोग किसी काम को करते हैं तो पिछड़े और दलित उन्हें सहर्ष ही स्वीकार कर लेते हैं. मगर तेजस्वी और नीतीश की तत्कालीन सरकार के नियंत्रण में ऐसी कई चीजें थीं, जिन्हें करने का साहस वह नहीं दिखा पाई.
उलटे अब नीतीश कुमार फिर से बीजेपी से जुड़ गए हैं. मंदिर उदघाटन के एक सप्ताह बाद ही नितीश कुमार महागठबंधन से अलग हो गए. उन्होंने बीजेपी के साथ सरकार बनाई और नौवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ ली. मंदिर उद्घाटन के कुछ दिन पहले ही अमित शाह अपने पिछले साल के बयान कि नीतीश कुमार के लिए बीजेपी के दरवाजें बंद हो गए हैं से पलट गए थे. उन्होंने एक अखबार को इंटरव्यू में कहा था कि अगर विपक्षी दल की तरफ से कोई प्रस्ताव आया तो वह विचार करेंगे. उसी दिन जदयू के नेता ने शाह का समर्थन कर दिया कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि बीजेपी के दरवाजे बंद है. इसी दरम्यान नीतीश ने चंद्रशेखर को भी ठिकाने लगा दिया. इन घटनाक्रम से यही समझ में आता है कि नीतीश कुमार सिर्फ राजनितिक तिकड़म से अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहते थे.
अगर क्षेत्रीय दल से अलग, कांग्रेस की बात करें तो उनके मुखिया राहुल गांधी एक बार फिर अपनी निजी ब्रांडिंग के लिए पूरब से पश्चिम की यात्रा पर निकल चुके हैं. इस समय हिंदी बेल्ट का कोई भी राजनितिक दल बीजेपी के सामाजिक बदलाव को रोकने की कोशिश तक नहीं कर रहा. जब विपक्षी दल सत्ता में होते हैं तब भी हिंदू समाज की व्यापक अभिव्यक्ति वही होती है जो बीजेपी की विचारधारा है. इस तरह चाहे बीजेपी सत्ता में हो या न हो, हिंदू समाज उससे ही संवाद करता रहा है. राम मंदिर के जरिए बीजेपी ने एक पूरी परंपरा स्थापित कर दी. समाज में परंपराएं स्थापित करना सैकड़ों वर्षों का काम होता है, मगर बीजेपी ने वह काम कुछ सालों में कर दिखाया. अब सत्ता में आने के लिए उसे न नौकरी का वादा करना पड़ेगा, न शिक्षा और स्वस्थ्य का. मोदी सिर्फ धर्म के नाम से हिंदू समाज के एक बड़े तबके को एक झटके में अपनी तरफ कर सकते हैं. यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे दुखद और अंधकारमय समय है, जब बहुसंख्यक समाज शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य से ऊपर धर्म को रखने को तैयार है.