अग्नि आलोक

भारत का दीर्घकालिक भविष्य दांव पर

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इस हकीकत से आंख चुराना, जैसा कि ऊपर हमने कहा, जोखिम भरा है। यह याद रखने की जरूरत है कि पनपते असंतोष पर परदा डालने की कोशिश कई स्तरों पर अस्थिरताओं की जनक बन सकती हैं। इसलिए बेहतर होता कि निरंतरता और स्थिरता को ‘मैनेज’ करने की कोशिश नहीं की जाती। समझा जाता है कि फिलहाल निरंतरता और स्थिरता की वस्तुगत परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं। मगर शासक वर्ग फिर भी निरंतरता की जिद पर अड़ा है, तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वह पूरे भारत के दीर्घकालिक भविष्य को दांव पर लगा रहा है।

 

सत्येंद्र रंजन

लोकसभा चुनाव के परिणाम सामने आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकारों ने सुनियोजित ढंग से यह संदेश देने की कोशिश की है कि चुनाव में उसे लगे झटके से कुछ नहीं बदला है। चार जून (जिस रोज नतीजे घोषित हुए) की शाम को पार्टी कार्यालय में मोदी के स्वागत में आयोजित समारोह से लेकर लोकसभा स्पीकर तक के चुनाव में सत्ता पक्ष की कोशिश यह दिखाने की रही है कि स्थितियों पर उनका उसका पूरा नियंत्रण है- ठीक उस तरह, जैसा पिछले दस साल में था।

लेकिन चुनाव नतीजे आने के साथ अगर यह धारणा बनी कि अब सरकार का पुराना रोब नहीं रहेगा, तो इसकी वजहें थीं। वह धारणा ठोस कारणों से बनी। आखिर 18वीं लोकसभा में भाजपा के पास अपना बहुमत नहीं है। वह इस आंकड़े से 32 सीटें पीछे रह गई है। नरेंद्र मोदी के लिए यह असाधारण स्थिति है। 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से कभी उनके सामने सदन के अंदर दूसरे दलों के सहयोग से बहुमत जुटा कर शासन करने का तजुर्बा उन्हें नहीं रहा है। बल्कि उनकी- और उनके मुख्य प्रबंधक समझे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह की- कार्यशैली के बारे में आम समझ यही है कि उसमें मेलजोल, लेन-देन की भावना, संवाद से सहमति निर्माण आदि जैसे पहलू नहीं हैं, जिनकी गठबंधन चलाने में बेहद जरूरत पड़ती है।

फिर गठबंधन सरकारों के दौर के कुछ पुराने अनुभव भी लोगों के पास हैं। वैसे तो 1989 से ही, लेकिन 1996 से 2014 तक तो पूरी तरह, देश में गठबंधन सरकारों का युग रहा। उस दौर में किस तरह एक-एक सदस्य वाली पार्टियां अपनी अहमियत जताती थीं और छोटे सहयोगी दल किस तरह की सौदेबाजियां करते थे, यह लोगों को याद है। इस रूप में कहा जा सकता है कि चार जून को बहुत लोगों के ज़ेहन में वो यादें ताजा हो आईं, तो उसका एक पुराना संदर्भ था।

तो बहुत सारे कयास लगे। खासकर एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार किस तरह के दबाव डालेंगे और उसके जरिए क्या हासिल करेंगे, इस बारे में अनेक कल्पनाएं पेश की गईं। अनुमान लगाया गया कि मोदी जी के ‘अच्छे दिन’ अब चले गए! अब झुक कर चलने के दिन आए हैं। सार्वजनिक चर्चाओं में इस बात को जोर देकर कहा गया कि अब बनी सरकार ‘मोदी सरकार’ नहीं, बल्कि ‘एनडीए सरकार’ है। इस बीच विपक्षी दलों ने बार-बार चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार को सलाह दी कि वे सहयोगी दलों से भाजपा के अतीत के व्यवहार को याद करें और अपना भला चाहते हों, तो कम-से-कम स्पीकर पद जरूर ले लें।

अब तीन हफ्ते बाद जो स्थिति है, उसमें वैसा कुछ हुआ या होता नजर नहीं आता। बल्कि अब ‘निरंतरता’ और ‘स्थिरता’ का भाजपा का दावा अधिक विश्वसनीय मालूम पड़ सकता है। जो स्थितियां सामने हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि चार जून को जो झटके लगे और उनसे अस्थिरता के जो अंदेशे पैदा हुए, उन्हें लगभग ‘मैनेज’ कर लिया गया है। एनडीए के भीतर एक पार्टी जैसी सुगम्यता कायम करने में सत्ता पक्ष के सूत्रधारों को सफलता मिल गई है।

तो अब असल जिज्ञासा इसको लेकर ही होनी चाहिए कि ये सूत्रधार कौन हैं? आखिर उन्होंने ऐसे कैसे ‘मैनेज’ किया कि गठबंधन की संभावित बाधाएं और सीमाएं भी लगभग बेअसर हो गई लगती हैं? ये दोनों प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इनका सीधा संबंध देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (political economy) से जुड़ता है। इस संदर्भ में यह भी समझना भी जरूरी हो जाता है कि आखिर स्थिरता की सबसे ज्यादा जरूरत किसे है?

बेशक नरेंद्र मोदी और भाजपा को स्थिरता की जरूरत है। लेकिन सतह पर जो राजनीतिक मुकाबला हुआ, उसके बीच वे अपने लिए स्थिरता का जनादेश हासिल करने में विफल रहे। वे अपनी इतनी संसदीय ताकत नहीं जुटा पाए, जिससे वे पिछले दस साल वाली निरंतरता कायम रख पाते। चुनावी लोकतंत्र में संसदीय शक्ति में ह्रास का परिणाम नेता के रुतबे और हैसियत में गिरावट के रूप में देखने को मिलता है। सियासी सौदेबाजी करने की उसकी क्षमता में कमी इसका एक अन्य परिणाम होती है। महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या नरेंद्र मोदी इस अंजाम से बच गए हैं? और सचमुच ऐसा है, तो यह कैसे संभव हुआ?

इनमें से पहले सवाल पर फिलहाल अनुमान ही लगाए जा सकते हैं, क्योंकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि लोकप्रियता एवं जन समर्थन में कमी का प्रधानमंत्री के रसूख पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। इस लिहाज से दूसरे प्रश्न को अधिक प्रासंगिक रूप में इस तरह पूछा जा सकता है कि फिलहाल चुनाव नतीजों से झटके से मोदी और उनकी पार्टी अप्रभावित नजर आ रहे हैं, तो उसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

इस बिंदु पर आकर उन समूहों पर विचार करना अहम हो जाता है, जिनकी किसी राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करने निर्णायक भूमिका होती है। इस समूहों के बीच आपसी अंतर्विरोधों और उनके परिणामस्वरूप समीकरणों में होने वाले बदलाव की झलक अक्सर राजनीतिक व्यवस्था में देखने को मिलती है। चुनावों में ये समूह किस दल या नेता पर दांव लगाते हैं, यह हमेशा ही महत्त्वपूर्ण रहा है। आज यह अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि आपसी होड़ में वर्चस्व कायम करने में काफी हद तक सफल हो गए कुछ गिने-चुने समूहों के फिलहाल निर्णायक भूमिका में होने के ठोस संकेत हमारे समक्ष हैं।

आज के दौर में जब हम यह बात कर रहे हैं, तो हमारा सीधा मतलब गिने-चुने मोनोपॉली कॉरपोरेट घरानों से है। अपने पिछले दस साल के अनुभव के आधार पर ये घराने अगर आज राजनीतिक स्थिरता चाहते हों- ताकि उन आर्थिक नीतियों में स्थिरता बनी रहे, जिन्हें द्रुत गति से गुजरे एक दशक में लागू किया गया है- तो यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही मानी जाएगी।

और यह कोई कयास लगाने की बात नहीं है। हाल के तमाम चुनावों में इन घरानों ने अपने प्रभाव, पैसे और प्रचार तंत्र की सेवाएं एक पार्टी और नेता विशेष को किस तरह उपलब्ध कराई हैं, यह अब कोई छुपा खेल नहीं है। इसी परिघटना के कारण यह धारणा गहराती चली गई है कि भारत में अब चुनावों में सभी पक्षों को समान धरातल उपलब्ध नहीं होता। अनेक विश्लेषक इस परिघटना को कॉरपोरेट-कम्युनल गठजोड़ के रूप में चिह्नित करते हैं।

मगर 2024 में यह गठजोड़ नाकाफी पड़ा। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि जो कसर रह गई, उसे इस गठजोड़ ने फिलहाल अपने अकूत संसाधनों के आभामंडल से भर दिया है। संभवतः यही वो ज़रिया है, जिससे फौरी राजनीतिक स्थिरता हासिल कर ली गई है। और जब यह हो गया है, तो लाजिमी ही है कि आर्थिक दिशा की स्थिरता भी बनी रहेगी। बल्कि संभव है कि इस दिशा में दौड़ कुछ और तेज हो जाए। यह सब होगा, तो ध्यान कहीं और टिकाए रखने की पुरानी रणनीति के तहत कम्युनलिज्म से जुड़े मुद्दों को गरम ना रखा, यह संभव नहीं है। यानी हर तरह की निरंतरता और स्थिरता!

बहरहाल, इस दांव में अनेक जोखिम मौजूद हैं। फिर भी यह दांव खेला जा रहा है, तो जाहिर है, ऐसा करने वाले लोग जाने-अनजाने में गंभीर जोखिम उठा रहे हैं। इसलिए कि 2024 के आम चुनाव ने कुछ जमीनी हकीकतों पर से परदा हटा दिया है। मसलन,

धुआंधार प्रचार के जरिए बदहाल होते जन समूहों में सुखबोध भरने और बनाए रखने की रणनीति बेशक एक दौर में कामयाब होती नजर आई थी। लेकिन अब इस बात के ठोस संकेत हैं कि यह दौर अल्पकालिक साबित हुआ। आखिरकार विकट होती जमीनी हकीकतों ने हवाई सुखबोध को पंक्चर करना शुरू कर दिया है। इस हकीकत से शासक समूह अनजान बने रहे- या यूं कहें कि जानबूझ कर इस यथार्थ की उपेक्षा उन्होंने जारी रखी, तो बनते हालात भारत में अनेक अस्थिरताओं को जन्म दे सकते हैं।

ये अस्थिरताएं किस रूप में उभरेंगी, उस बारे में ठोस भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसके बावजूद अगर शासक समूह उन विभाजन रेखाओं पर ध्यान दें, जिन्हें वर्तमान सरकार के कार्यकाल में और भी ज्यादा चौड़ा किया गया है, तो वे भविष्य में बन सकने वाली स्थितियों का कुछ अंदाजा लगा सकते हैं। उन्हें सिर्फ यह याद करने की जरूरत है कि जिस दौर में सुखबोध ऊपर से हावी नजर आ रहा था, उसी दौर में भारत में आजादी के बाद के संभवतः सबसे गहरे और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाले जन आंदोलन हुए- यानी उन्हीं दिनों सड़कों पर जन असंतोष की अभिव्यक्तियां भी होती रहीं।

एससी-एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कई राज्यों में बनी स्थिति, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ हुआ अभूतपूर्व आंदोलन, ऐतिहासिक किसान आंदोलन, अग्निपथ योजना के खिलाफ युवाओं का भड़का गुस्सा, परीक्षा पेपर लीक के खिलाफ जगह-जगह दिखे विरोध, वित्तीय संघवाद के मुद्दे पर दक्षिणी राज्यों का साझा प्रतिरोध, मणिपुर और अब नीट मामले में जो नजर आया है- ऐसी अनगिनत घटनाएं हैं, जिनमें कुछ संदेश छिपे हुए हैं। इन संदेशों को समझा जाए, तो निरंतरता और स्थिरता की बातें भ्रामक मालूम पड़ेंगी।

त्रिनिदाद निवासी, लेकिन भारत को अपने लेखन की एक प्रमुख स्थली बनाने वाले उपन्यासकार वीएस नायपॉल ने अपनी एक किताब का नाम India: a million mutinies now रखा था। इसमें उन्होंने 1980 के दशक में असंख्य भारतीय दिलों में पनपते विद्रोह का जिक्र किया था। दरअसल, स्वतंत्रता के बाद सत्ता में आए नेतृत्व को ऐसे “विद्रोहों” का आभास था। इसीलिए आजादी के बाद और संविधान निर्माण की प्रक्रिया में व्यवस्था में ऐसे सेफ्टी वॉल्व जोड़े गए, जो जन गुबार के निकल जाने का जरिया बन सकें। यह सोच अपनाई गई कि जन आक्रोश को लोकतांत्रिक माध्यम से व्यक्त होने के अवसर दिए जाएं और शिकायतों को हद तक दूर करने की कोशिश की जाए। सत्ता वर्ग के नजरिए से सोचा जाए, तो कहा जाएगा कि आज भी वही सबसे मुफीद रास्ता है।

मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान सत्ताधारी नेता एक-एक कर सेफ्टी वॉल्व को बंद करते जा रहे हैं। इसी क्रम में अब उन्होंने चुनावी जनादेश के अनादर का नजरिया अपनाया है। वे संभवतः उस मूलभूत दृष्टि से दूर हो गए हैं, जो आम जन में पलते असंतोष के संभावित परिणामों का पूर्वानमान लगाने की समझ देती है। वे 2024 में उभरे जनादेश की विपरीत व्याख्या कर रहे हैं। वे और उनके समर्थक निहित स्वार्थ (vested interests) ‘मैनेज’ कर सकने की अपनी क्षमता में अत्यधिक भरोसा जता रहे हैं। वे यह समझने में विफल हैं कि पैसा, प्रभाव और प्रचार की पूरी ताकत और हाल में अक्सर कारगर होती रही हिंदुत्व की रणनीति के कायम रहे मेल के बावजूद हालिया चुनाव में वे मनमाफिक जनादेश ‘मैनेज’ नहीं कर पाए।

इस हकीकत से आंख चुराना, जैसा कि ऊपर हमने कहा, जोखिम भरा है। यह याद रखने की जरूरत है कि पनपते असंतोष पर परदा डालने की कोशिश कई स्तरों पर अस्थिरताओं की जनक बन सकती हैं। इसलिए बेहतर होता कि निरंतरता और स्थिरता को ‘मैनेज’ करने की कोशिश नहीं की जाती। समझा जाता है कि फिलहाल निरंतरता और स्थिरता की वस्तुगत परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं। मगर शासक वर्ग फिर भी निरंतरता की जिद पर अड़ा है, तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि वह पूरे भारत के दीर्घकालिक भविष्य को दांव पर लगा रहा है। 

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