आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से हार गई थीं। इंदिरा के बेटे संजय गांधी को भी अमेठी में हार का सामना करना पड़ा था। आज के ‘चुनावी किस्से’ में बात इसी चुनाव की करेंगे।
विपक्ष के कई नेताओं के बीच एक बैठक होती है। बैठक के बाद विपक्ष की तरफ से कहा गया कि हम सभी दल मिलकर लोकसभा चुनाव में जाएंगे। विपक्ष की बढ़ती एकजुटता से सत्ता पक्ष परेशान होने लगता है। इसके बाद मार्च महीने में रविवार के दिन विपक्ष दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल जनसभा करता है। ठीक उसी दिन प्रधानमंत्री की ओर से कहा जाता है कि विपक्ष के लोग किसी सकारात्मक योजना के साथ मंच पर नहीं आए हैं, बल्कि ये लोग व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री के खिलाफ खड़े हुए हैं। इनका गठबंधन जरूर नया है लेकिन उद्देश्य वही पुराना है। ये सिर्फ प्रधानमंत्री को हटाना चाहते हैं। ये बातें आपको भले हाल के वक्त की याद दिलाती हुई लग रही हैं लेकिन, ये सब कुछ आज से 47 साल पहले हुआ था। आज का चुनावी किस्सा सुनकर शायद आपको ऐसा ही लगे कि वक्त भले बदल जाए लेकिन सत्ता और विपक्ष की भूमिका एक सी रहती है।
आपातकाल के बाद चुनाव कराने की तैयारी
किस्से की शुरुआत साल 1977 की जनवरी से होती है। देश में आपातकाल को लगे 18 महीने हो चुके थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ये एलान करती हैं कि देश में हालात सामान्य हो चुके हैं, इसलिए जल्द ही चुनाव कराए जाएंगे। इंदिरा के एलान के साथ ही विपक्षी नेताओं को देशभर की जेलों से रिहा किया जाने लगता है। अगले ही दिन जनसंघ, लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस (ओ) के नेताओं की दिल्ली में मुलाकात होती है। इस बैठक के बाद कांगेस (ओ) के नेता मोरारजी देसाई प्रेस को बताते हैं कि बैठक में शामिल दलों ने अगला चुनाव एक चुनाव चिह्न और एक पार्टी के झंडे तले लड़ने का फैसला किया है। 23 जनवरी 1977 को जनता पार्टी नाम से यह दल अस्तिव भी आ जाता है। जयप्रकाश नारायण इसके नेता बनते हैं।
संसद में आपातकाल का प्रस्ताव रखने वाला नेता इंदिरा से अलग
नए दल के गठन के 10 दिन बाद ही कांग्रेस को एक बहुत बड़ा झटका लगता है। 1975 में जिस नेता ने संसद में आपातकाल का प्रस्ताव रखा था वही नेता इंदिरा का साथ छोड़ देता है। वो नेता होते हैं बाबू जगजीवन राम। जगजीवन राम का इस्तीफा आने वाले तूफान का संकेत दे जाता है। उस दौर में दलितों के सबसे बड़े नेता का कांग्रेस से नाता तोड़ना इंदिरा के लिए एक बहुत बड़ा झटका था। कांग्रेस से इस्तीफे के बाद जगजीवन राम अपना दल बनाते हैं। फरवरी 1977 में उनकी नई पार्टी कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी अस्तिव में आती है। जगजीवन राम का साथ देते हैं हेमवती नंनद बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और राजमंगल जैसे कद्दावर नेता। कांग्रेस विरोधी मतों का विभाजन रोकने के लिए जगजीवन राम की पार्टी और जनता पार्टी में भी गठबंधन हो जाता है।
रामलीला मैदान में विपक्ष की रैली
6 मार्च 1977, दिन रविवार, विपक्ष रामलीला मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन करता है। ये रैली विपक्ष के चुनाव अभियान की शुरुआत थी। उस वक्त देश में सिर्फ एक टीवी चैनल होता था, ये चैनल सरकारी नियंत्रण में था। जिस वक्त रामलीला मैदान में रैली हो रही थी। उस वक्त टीवी पर उस समय की सुपरहिट फिल्म बॉबी दिखाई जा रही थी। कहा जाता है कि ऐसा इसलिए किया गया जिससे जनता टीवी पर चिपकी रहे और विपक्ष की रैली विफल हो जाए। इसके बाद भी बॉबी पर बाबू और जेपी भारी पड़े। रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण को सुनने लाखों लोग पहुंचे। रैली में विपक्ष के कई नेताओं ने भाग लिया। ठीक उसी दिन इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण का साक्षात्कार छपा। इस साक्षात्कार में इंदिरा ने कहा कि जनता पार्टी के लोग किसी सकारात्मक योजना के साथ एक मंच पर नहीं आए हैं, ये सभी अपने पुराने उद्देश्य इंदिरा हटाओ ले लिए एकजुट हुए हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है।
जेपी अपनी रैलियों में आपातकाल की याद दिलाते
चुनाव प्रचार शुरू हुआ। एक तरफ इंदिरा चुनाव प्रचार का चेहरा थीं तो दूसरी ओर जयप्रकाश नारायण। बढ़ती उम्र, गिरते स्वास्थ्य की परवाह किए बिना जयप्रकाश देश भर में रैलियां कर रहे थे। सिर्फ डायलिसिस करवाने के लिए ही जयप्रकाश चुनाव प्रचार से ब्रेक लेते थे। अपनी रैलियों में वो आपातकाल की यातनाओं की याद दिलाते, जनता से कहते कि अगर कांग्रेस वापस आती है, तो पिछले 19 महीने का आतंक अगले 19 साल की यातना बन जाएगा। जबरन नसबंदी को फिर से लागू किया जाएगा। विपक्ष यह प्रचार करने में लगा था कि कांग्रेस अब वो कांग्रेस नहीं रही बल्कि ये इंदिरा के परिवार की जागीर बन चुकी है। दूसरी तरफ इंदिरा अपनी रैलियों में इन आरोपों का खंडन करतीं। अपने परिवार के त्याग और सेवा की लोगों को याद दिलातीं।
प्रधानमंत्री अपने गढ़ में चुनाव हार गईं
इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं, “20 मार्च 1977 की रात को आम चुनाव के नतीजे दिल्ली के अखबार के दफ्तरों के सामने चस्पा कर दिए गए। अखबारों ने ये खबर पूरे देश में फैला दी कि लोगों ने जनता पार्टी के पक्ष में बढ़-चढ़कर मतदान किया है और आपातकाल के सभी सूत्रधार चुनाव में खेत रहे।’
नतीजे इंदिरा के लिए बहुत बड़ा झटका थे। खुद प्रधानमंत्री अपने गढ़ रायबरेली से हार गईं। कांग्रेस की धुरी बन चुके इंदिरा के बेटे संजय गांधी भी अमेठी से हार गए। उन्हें एक सामान्य पृष्ठभूमि के छात्र नेता ने हरा दिया। इंदिरा-संजय के साथ उत्तर प्रदेश की सभी 85 सीटों पर कांग्रेस को हार मिली। इसी तरह पड़ोस के बिहार की सभी 54 सीटों पर कांग्रेस हार गई। इसी तरह मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी कांग्रेस को सिर्फ एक-एक सीट पर जीत मिली। उत्तर में पूरी तरह साफ हुई कांग्रेस को बस दक्षिण से ही कुछ राहत की खबरें मिलीं। कहते हैं दक्षिण में आपातकाल को उतने आक्रमक तरीके लागू नहीं किया गया था। इस वजह से कांग्रेस को यहां कम नुकसान हुआ। 540 सीटों की लोकसभा में कांग्रेस 154 सीटों पर सिमट गई। भारतीय लोकदल को 295 सीटें मिलीं। कांग्रेस ओ ने तीन सीटें जीतीं। इस तरह जनता पार्टी और सीडीएफ का गठबंधन 298 सीटें जीतने में सफल रहा। इन नतीजों के साथ ही देश की आजादी के बाद से चले आ रहे कांग्रेस के शासन पर पहली बार ब्रेक लग गया।