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भारत-पाक बंटवारा….मुसलमान सैनिकों ने मजहब नहीं मातृभूमि को चुना

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जयसिंह रावत 

भारत का बंटवारा मजहब के आधार पर होने के बावजूद जिस तरह बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मजहब को तरजीह देने के बजाय मातृभूमि को सर्वोच्च मान कर भयंकर दंगे-फसाद के बावजूद भारत में ही जीने-मरने का फैसला किया था, उसी लाइन पर भारत की सेना का भी विभाजन किया गया और सेना में भी काफी संख्या में मुसलमान सैनिकों ने धर्म राष्ट्र पाकिस्तान जाने के बजाय जन्मभूमि की रक्षा को ही श्रेष्ठ मानकर विभाजित भारतीय सेना के नाम, नमक और निशान को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।

विभाजन के समय सेना का बंटवारा जुलाई के महीने में पार्टिशन काउंसिल द्वारा दो चरणों में किया गया था। पहला चरण धर्म के आधार पर मोटे तौर पर तय हुआ था। जिसका मतलब था कि मुसलमान सैनिक पाकिस्तान के हिस्से में और हिन्दू तथा सिख भारत के हिस्से में जायेंगे। लेकिन दूसरे चरण में सैनिकों के सामने स्वेच्छा से भारत या पाकिस्तान का चयन करने का विकल्प था। सशस्त्र सेना उपसमिति की सिफारिश के अनुसार थल एवं नौ-सेना का बंटवारा 11 जुलाई 1947 का दिन तय हुआ।

रक्षा राज्यमंत्री महावीर त्यागी ने 1953 में लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि विभाजन से पूर्व भारतीय सेना में 30-36 प्रतिशत मुसलमान थे। विभाजन के बाद भारत की सेना में केवल 2 प्रतिशत मुसलमान रह गये थे जिन्होंने मजहब के बजाय मातृभूमि को चुना। इनमें दो मुसलमान लेफ्टिनेंट जनरल के पद तक पहुंचे और छह मेजर जनरल बने।

सेना का बंटवारा तय करने वाली सशस्त्र सेना पुनर्गठन समिति का अनुमान था कि मुसलमान सैनिक मजहब के नाम पर पाकिस्तान को ही चुनेंगे। लेकिन समिति की उम्मीदों के विपरीत कम से कम 215 मुस्लिम कमीशन अधिकारियों और 339 वीसीओ (वायसराय के कमीशन अधिकारी, जिन्हें बाद में जूनियर कमीशन अधिकारी कहा जाता है) ने भारत को चुना। सेना में जेसीओ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसीलिये उन्हें सरदार कहा जाता है। रक्षा मंत्रालय के रिकार्ड के अनुसार भारत में रहने का निर्णय लेने वालों में ब्रिगेडियर मुहम्मद उस्मान, मुहम्मद अनीस अहमद खान और लेफ्टिनेंट कर्नल इनायत हबीबुल्लाह जैसे बेहतरीन अधिकारी उल्लेखनीय थे।

उस समय थल सेना के बंटवारे में भारत को 15 इन्फेंट्री रेजिमेंट, 12 आर्मर्ड कोर यूनिट, साढ़े 18 आर्टिलरी रेजिमेंट्स और 61 इंजीनियरिंग यूनिटें मिलीं। जबकि पाकिस्तान के हिस्से में 8 इन्फेंट्री रेजिमेंट, 6 आर्मर्ड कोर यूनिट, साढ़े 8 आर्टिलरी रेजिमेंट और 34 इंजीनियरिंग यूनिटें गयीं। सशस्त्र सेना मुख्यालय दिल्ली के इन्फार्मेशन एण्ड मोराल डाइक्टरेट की 28 जुलाई 1947 की विज्ञप्ति के अनुसार वर्ग संरचना के आधार पर समायोजन के बाद थल सेना की इन्फेंट्री, बख्तरबंद कोर, तोपखाने और इंजीनियर की बंटी हुई टुकड़ियों को अपने-अपने नये देशों में भेजने के लिये 150 से अधिक ट्रेनों की व्यवस्था की गयी थी। और पहला चरण पूरा होने तक स्थैतिक यूनिटों को अपने स्थान पर बने रहने के लिये कहा गया था।

मोटे तौर पर धर्म के आधार पर बंटवारे के पहले चरण के बाद दोनों भावी स्वतंत्र राष्ट्रों को आवंटित बटालियनें, जहां भी संभव था, विभिन्न समुदायों की कंपनियों या स्क्वाड्रनों की अदला-बदली की गयी। उदाहरण के लिए, भारत को आवंटित बटालियनों में मौजूद पंजाबी मुसलमानों को पाकिस्तान की बटालियनों में स्थानांतरित कर दिया गया, और पाकिस्तान को आवंटित बटालियनों में सेवारत सिखों और डोगराओं को भारतीय संघ से संबंधित बटालियनों में स्थानांतरित किया गया।

चूंकि भारत एक धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आ रहा था इसलिये हिन्दुस्तानी मुसलमान सैनिकों की उनकी स्वेच्छा जाने बिना उनकी अदला बदली नहीं की गयी। इसके लिये बटालियन स्तर पर कंपनियों को इकाई मान कर स्थानांतरण किया गया। क्योंकि अनेक सैनिक मजहब से ऊपर उठ कर भावनात्मक रूप से एक दूसरे के साथ जुड़े थे और अपने साथियों, सरदारों (जेसीओज) और अफसरों के साथ जीना मरना चाहते थे। भारतीय अधिकारियों को उनके विकल्प का उपयोग करने के बाद उपयुक्त रेजिमेंटों में तैनात किया गया और जहां संभव हुआ वे अपने स्वयं के नये राष्ट्रों में जाने वाले अपने लोगों के साथ गये।

हिन्दू समाचार पत्र समूह की पत्रिका ‘‘द फ्रंटलाइन’’ के 24 अक्टूबर 2003 के अंक में प्रकाशित ए.जी. नूरानी के आलेख ‘‘मुस्लिम इन द फोर्सेज’’ में उन्होंने भारतीय मूल के अमरीकी शिक्षाविद एवं लेखक राजू थाॅमस के शोध एवं तत्कालीन वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के साक्षात्कारों को उद्धृत करते हुये लिखा है कि सितम्बर 1965 में जब भारत पाक युद्ध छि़ड़ा तो उस समय जम्मू-कश्मीर के पुंछ सेक्टर में राजपूत रेजिमेंट की मुसलमान सैनिकों के बाहुल्य वाली एक बटालियन तैनात थी।

चूंकि इतनी जल्दी में उस टुकड़ी को वापस बुलाना संभव नहीं था इसलिये उसी को शत्रु की ओर आगे बढ़ने के लिये आदेश दिया गया और उस देशभक्त टुकड़ी ने बड़ी ही बहादुरी से अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। उसी 1965 की लड़ाई में अब्दुल हमीद ने असाधारण बहादुरी का परिचय देते हुये मजहब के आधार पर गठित पाकिस्तान की सेना के अजेय माने जाने वाले पैटन टैंकों को अकेले ही ध्वस्त कर दिया था। इस बहादुरी के लिये उन्हें मरणोपरान्त सेना के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया था।

दरअसल 1947 में नये स्वाधीन राष्ट्रों के जन्म के साथ ही उनकी सुरक्षा के दृष्टिगत फौरी तौर पर सेनाओं की अहम भूमिका को देखते हुये सेनाओं का बंटवारा किया गया और दोनों सेनाएं 14 और 15 अगस्त 1947 से पहले तैनात हो गयीं। विभाजन के समय पहले सेना का बंटवारा किया गया और बाद में दोनों स्वतंत्र राष्ट्रों की तीनों सेनाओं के मुखिया वायसराॅय की ओर से अंतरिम सरकारों/वायसराॅय की परिषदों द्वारा नियुक्त किये गये जो कि अंग्रेज ही थे।

वायसराॅय हाउस नयी दिल्ली की 30 जुलाई 1947 को जारी अधिसूचना के अनुसार वायसराॅय की अध्यक्षता में गठित दोनों भावी स्वतंत्र राष्ट्रों की अंतरिम सरकारों ने दोनों देशों की पुनर्गठित सेनाओं के लिये जो शीर्ष कमाण्डर या प्रमुख चुने उनमें भारत के लिये कैप्टन जे.टी.एस. हाॅल को रियर एडमिरल के रैंक में भारतीय नौ-सेना का नेतृत्व दिया गया। इसी प्रकार कमोडोर जे.डब्लु. जेफर्ड को पाकिस्तानी नौ-सेना का प्रमुख नियुक्त किया गया।

थल सेनाओं के तात्कालिक नेतृत्व के लिये ले.जनरल सर राॅब लाॅकहर्ट को भारतीय थल सेना का और ले. जनरल सर फ्रेंक मेसर्वी को पाकिस्तानी थल सेना का नेतृत्व सौंपा गया। इसी तरह एयर मार्शल सर थाॅमस इल्महर्ट को एयर मार्शल के रैंक में भारत की वायुसेना का और एयर वाइस मार्शल ए.एल.ए. पेरी कीने को पाकिस्तान की वायु सेना का प्रमुख नियुक्त किया गया।

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