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महंगाई डायन खाए जात है

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कृष्ण कान्त

मैं अस्पताल गया था. यह नोएडा का प्राइवेट अस्पताल था. डॉक्टर से सलाह लेने के बाद दवाओं के लिए फॉर्मेसी पर खड़ा था. मेरे बगल में एक अंकल-आंटी खड़े थे. आंटी बीमार थीं. अंकल उनके साथ थे. केमिस्ट उन्हें दवाएं दे रहा था. दवाएं मात्रा में ज्यादा थीं. केमिस्ट ने टोटल करके कुछ बताया जिसे मैं सुन नहीं सका. अंकल ने कुछ सेकेंड सोचा, फिर आंटी के कान के नजदीक गए, कुछ मशविरा किया और केमिस्ट से कहा, एक हफ्ते की दवाएं कम कर दो. केमिस्ट ने दवाएं कम कर दीं. फिर अंकल ने दाहिनी बगल वाली पैंट की जेब से कुछ नोट निकाले जो बड़े जतन से बंडल बनाकर रखे गए थे. सामने शर्ट की जेब से कुछ कागज निकाले, जिनमें एक 500 का एक नोट छुपा हुआ था. आपस में गुंथे हुए कुछ नोट पैंट की सामने वाली चोर जेब से निकाले. सब बटोर कर उन्होंने केमिस्ट को थमा दिए. शायद 500 के छह या सात नोट रहे होंगे. 
मैंने सोचा कि इतनी महंगाई में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी या हर जरूरत की चीज आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही है. अंकल-आंटी के हुलिए से लग रहा था कि वह बेहद सामान्य आर्थिक हालत वाला परिवार है. अस्पताल के एक विजिट में जितना खर्च आया, उतना भी उनकी जेब में नहीं था. अंकल-आंटी दोनों के चेहरे बुझे हुए थे. अंकल जब दवा का पैकेट उठाकर चलने के लिए घूमे तो मेरी नजर पड़ी- उनकी मटमैली शर्ट बांह के नीचे से फटी हुई थी.
आज सुबह ही अवध के एक प्रखर विद्वान और युवा समाजशास्त्री रमाशंकर भाई ने बातचीत में कहा, ‘महंगाई इस बार लोगों का खून पी रही है. सब्जी, दाल और तेल इतना महंगा है कि लोग खरीद कर खा नहीं सकते. हालत ये है कि इस दिवाली बहुत से घरों में पूड़ी नहीं बनेगी.’
*कृष्ण कान्त*

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