राजीव खंडेलवाल
निसंदेह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत है। यहां एक सफल ‘‘संसदीय प्रणाली’’ अपनाई गई है। इसकी सर्वोच्च संस्था लोकसभा व राज्यसभा दो ‘सदन’ होते हैं। इन्हें संयुक्त रूप से ‘संसद’ कहा जाता है। ‘संसद’ का शाब्दिक अर्थ ‘सभा’ ‘मंडली’ होता है। वास्तव में ‘संसद’ अंग्रेजी शब्द ‘‘एंग्लो नॉर्मल’’ से लिया गया है। इसका अर्थ ‘बात करना’ होता है। ‘‘विधायिका’’, ‘‘कार्यपालिका’’ और ‘‘न्यायपालिका’’ लोकतंत्र व भारतीय संविधान की लिखित ‘‘रीढ़ की हड्डी’’ है। ‘‘अलिखित’’ रूप से लोकतंत्र का ‘‘चौथा स्तंभ’’ ‘‘मीडिया’’ है। उक्त चारों खंडों में से सबसे प्रमुख खंभा “विधायिका” की सर्वोच्च संस्था यह संसद ही है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के तहत नागरिकों के हितों व सर्वांगीण विकास के लिए संपूर्ण भारत देश (अब तो जम्मू-कश्मीर सहित) के लिए कानून बनाती है।
वर्तमान संसद भवन (जो ब्रिटिश शासन काल में वर्ष 1927 में बनी थी) के लगभग 95 वर्ष बाद एक अद्भुत, अलौकिक व चकाचौंध करने वाली वर्तमान 870 सदस्यों की जगह 1272 सदस्यों के एक साथ बैठने की व्यवस्था के साथ 1200 रू करोड़ से अधिक की लागत आत्मनिर्भर भारत की भावना का प्रतीक होकर, अभी तक की विश्व की सबसे बड़ी नई संसद भवन का निर्माण लगभग 28 महीने की अल्प अवधि में पूर्ण हुआ है। ऐसी संसद भवन को 28 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हस्ते ‘मंत्रोच्चार’ के बीच देश की जनता को सौंप दिया गया। विवाद यहीं से प्रारंभ नहीं होता है, बल्कि इसके जन्म (निर्माण) ‘‘शिलान्यास’’ से लेकर इसे जनता को ‘‘सौंपने तक लगातार व तत्पश्चात भी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न विषयों को लेकर अभी भी चालू है व आगे भी जारी रहेगा। कहते हैं ना ‘‘कदली और कार्टों में कैसे प्रीत’’। नई संसद बनाने की योजना को ही उच्चतम न्यायालय में ‘असफल’ चुनौती दी गई थी। कोरोना काल में चालू निर्माण कार्य पर भी गंभीर आपत्तियां की गई थी। पर्यावरण, डिजाइन कंसलटेंट, स्थापित राष्ट्रीय प्रतीक शेर की मूर्ति के लुक आदि को लेकर भी विवाद हुए। फिलहाल विवाद का मुख्य विषय राष्ट्रपति के द्वारा उद्घाटन न करवाना अथवा उन्हे न बुलाने से उनके ‘‘अपमान’’ होने को लेकर है। साथ ही ‘‘भवन’’ से ज्यादा ‘‘भावना’’ का सवाल है।
मैंने पिछले लेख में भी सुझाव दिया था कि ‘स्वस्थ्य’ व मजबूत लोकतंत्र के लिए नई संसद भवन में नई पारी प्रारंभ करने के लिए यह एक श्रेष्ठतम स्थिति होती, यदि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में उपराष्ट्रपति जो (उच्च सदन) राज्यसभा के स्पीकर होते है, लोकसभा स्पीकर एवं विपक्ष के नेता की गरिमामय उपस्थिति में विश्व में भारत का ‘‘डंका‘‘ बजाने वाले दृढ़, दूर दृष्टि रखने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा उद्घाटन कराया जाता तो यह ‘‘सोने पर सुहागा’’ होता। तब विवाद की कोई स्थिति ही नहीं रहती। परन्तु दुर्भाग्य कि वर्तमान में हमारी ‘‘लोकतंत्र का मुखौटा रह गई संसद’’ (जहां पिछले वर्ष मात्र 9 मिनट में बिना चर्चा के वर्ष 2023-24 के लिए बजट पारित कर दिया गया था), विवादों को समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि नये-नये विवादों को जन्म देने के रूप में जानी जाती है।
‘‘प्रोटोकॉल’’ के तहत प्रधानमंत्री का नम्बर तीसरी पायदान (राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के बाद) पर आता है। राष्ट्रपति को उद्घाटन के लिए बुलाए जाने पर शायद प्रधानमंत्री की एकमात्र, एकछत्र गरिमाय उपस्थिति के सम्मुख राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति का प्रोटोकॉल एक बड़े अवरोध के रूप में आ जाती? इसलिए शायद राष्ट्रपति से उद्घाटन नहीं करवाया गया। अतः यदि राष्ट्रपति की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री उद्घाटन करते तो निश्चित रूप से ‘‘प्रोटोकॉल’’ आड़े नहीं आता। परन्तु प्रधानमंत्री ने यह रास्ता क्यों नहीं अपनाया? शायद उनकी इस कार्य योजना के पीछे राजनीति के कुछ ‘‘गूढ़ अर्थ’’ हो सकते हैं? यद्यपि इस पूरे मामले में स्पीकर जो संसद सचिवालय का प्रमुख होता है, के द्वारा ही तकनीकी रूप से उद्घाटन के संबंध में निर्णय लिया जाते है। प्रधानमंत्री से उद्घाटन के निर्णय के लिए ‘तकनीकी’ रूप से प्रधानमंत्री को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु भाजपा का यह जवाब बे-मतलब का है कि संविधान में प्रधानमंत्री को संसद के उद्घाटन से रोकने का कोई प्रावधान नहीं है। यद्यपि यह यर्थाथ कानूनी सत्य है। परन्तु हर कानूनी सत्य का राजनीति के मैदान में भी वैसा ही प्रभाव होगा, यह जरूरी नहीं है। क्योंकि वर्तमान में राजनीति ‘ऐक्शन’ की बजाय ‘परसेप्शन’ व ‘नोशन’ से ज्यादा चलती है। वैसे जब राष्ट्रपति दोनों सदन के दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधित करते हैं, तब प्रधानमंत्री वहां पर उपस्थित होते हैं। तब उद्घाटन के अवसर पर प्रोटोकॉल को बनाए रखते हुए दोनों महामहिम व महानुभाव एक साथ एक ही कार्यक्रम में क्यों नहीं रह सकते हैं? यह बात गले से उतरती नहीं है।
राष्ट्रपति को आमंत्रित न करने से ‘अपमान’ होने से ज्यादा ‘‘बुरी अपमान की स्थिति’’ अनिमित्रिंत राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का इस उद्घाटन अवसर पर संदेश भेजा था, जिसका उद्घाटन कार्यक्रम में राज्यसभा के उपसभापति ने संदेश वाचन किया गया। क्या अपने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि संदेश (वाचन) क्यों पढ़े जाते हैं। ‘संदेश’ किसी ‘कार्यक्रम’ में किसी ‘व्यक्ति’ का तभी पढ़ा जाता है, जब उस व्यक्ति को ‘निमंत्रित’ किया जाता है और वह किसी कारण से व्यक्तिगत रूप से आने में असमर्थ हो। तभी उसके द्वारा ‘संदेश’ द्वारा अपनी शुभकामनाएं भेजी जाती है। यह तो ‘बिना बुलाए’ महामहिम ने संदेश भेजकर स्वयं को ही अपमानित नहीं कर लिया है? ‘‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’’। इसके लिए भाजपाध्प्रधानमंत्री या स्पीकर कैसे जिम्मेदार? जब तक कि महामहिम यह नहीं कह देते है कि उन्हें संदेश भेजने के लिए अथवा कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आग्रह, निमंत्रित किया गया था। ऐसा कोई दावा दूसरे पक्ष लोकसभा सचिवालय द्वारा अभी तक नहीं किया गया है। यानी की ‘‘खामोशी नीम रजा’’। वस्तुतः यदि ऐसा हुआ है, तब राष्ट्रपति लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन के बहिष्कार की दोषी नही मानी जाएंगी?
शिलान्यास, लोकार्पण, वैवाहिक कार्यक्रम या शोकसभा में संदेश भेजे जाने की प्रथा है व किताबों के विमोचन के लिए संदेश भेजे जाते है, जो छापे जाते है। प्रत्येक स्थिति में ‘निमत्रंण’ या ‘अनुरोध’ अवश्य होता है। अब यदि यह दावा भी किया जाता है (जो अभी तक नहीं किया गया है) कि संदेश भेजने के लिए संसद (पार्लियामेंट) सचिवालय ने अनुरोध किया था, तब भी ‘‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’’। क्योंकि ‘‘आपको’’ तो उद्घाटन कार्यक्रम में शरीक होने के लिए बुलाया ही नहीं गया था? (जिसका कोई जवाब/स्पष्टीकरण अभी तक लोकसभा सचिवालय से नहीं आया है), परंतु ‘‘घाव पर नमक छिड़कने’’ के लिए कार्यक्रम के लिए शुभ संदेश भेजने के लिए शायद मजबूर किया गया। एक व्यक्ति को उसका दोस्त वैवाहिक कार्यक्रम में बुलाए ना और उससे नव दंपति के लिए शुभ संदेश भेजने के लिए कहे। उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? यह लिखने की आवश्यकता है? फिर तो राष्ट्रपति देश की प्रथम नागरिक हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भवन के शिलान्यास के समय राष्ट्रपति नहीं थे, उद्घाटन के समय उनकी उपस्थिति क्या एक संदेश है कि इस तरह के कार्यक्रमों में ‘राष्ट्रपति’ पूर्व राष्ट्रपति के रूप में ही उपस्थित हो सकते हैं?
इसका दूसरा पहलू यह भी है कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था या नियम नहीं है कि संसद संविधान का सर्वोच्च संवैधानिक पद ‘‘राष्ट्रपति’’ जो देश का प्रथम नागरिक होता है, के द्वारा किया जावे। एक तरफ हमारे देश में डॉक्टर की डिग्री न लिए स्वास्थ्य मंत्री, अशिक्षित शिक्षा मंत्री और इसी तरह न जाने कौन-कौन से विभाग लिये हुए व्यक्ति जो उस विभाग के विशेषज्ञ नहीं होते है, मंत्री बन जाते है। तब इन राजनेताओं को यह समझ में नहीं आता है कि वह विभाग ऐसे अज्ञानी लोगों से कैसे चलेगा? क्या देश में अस्पतालों अथवा कॉलेजों का उद्घाटन हमेशा स्वास्थ्य मंत्री या शिक्षा मंत्री द्वारा ही किया जाते रहे है। तब अनुच्छेद 79 का हवाला देकर संवैधानिक प्रमुख होने के साथ ही प्रथम नागरिक होने के नाते तथा अनुच्छेद 87 के अधीन संसद सत्र का प्रारंभ राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों के संयुक्त रूप से संबोधन से ही होता है। इस कारण से राष्ट्रपति से संसद भवन का उद्घाटन कराने की मांग कितनी संवैधानिक, वैधानिक, नैतिक, अथवा औचित्यपूर्ण है, या सिर्फ और सिर्फ ‘‘अंध राजनीतिक विरोध’’ पर टिकी है, इस बात को समझना होगा। राष्ट्रपति द्वारा उद्घाटन के मुद्दे पर दायर की गई एक याचिका पर स्वयं उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 79 का हवाला देते हुए याचिका को प्रथम दृष्टया सुनवाई हेतु योग्य न मानते हुए अस्वीकार कर दिया। सही कहा है! ‘‘करघा छोड़ तमाशा जाए, नाहक चोट जुलाहा खाए’’।
प्रश्न; निरुत्तर हो चुके विपक्ष से करना बेईमानी ही होगी। जातिवाद-जात पात का गर्जना के साथ विरोध व ‘‘सर्व-सद्भाव’’ की बात करने वाले नेताओं ने ‘‘आपदा को अवसर’’ में बदलने की अपनी पुरानी ‘‘बद-आदत’’ के चलते सत्ता पक्ष (महिला आदिवासी को प्रथम राष्ट्रपति बनाने का श्रेय लेने वाला) व विपक्ष ने संसद के उद्घाटन के अवसर को ही महिला व आदिवासी (राष्ट्रपति के) उत्थान व असम्मान से जोड़ कर चुनाव आयोग की ठीक ‘‘आंख, नाक के नीचे’’ खुले आम ‘‘जातिवादी राजनीति के रंग’’ से राजनीति को भर दिया। वास्तव में विपक्ष को आगे बढ़कर प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का हृदय से इस आधार पर स्वागत करना चाहिए, एक संवैधानिक पद पर बैठे हुए अधिकार विहीन राष्ट्रपति की तुलना में एक मजबूत दृढ़ इरादा रखने वाले शक्तिमान प्रधानमंत्री के हाथों हुआ है। इससे देश में ही नहीं विश्व में दृढ़ता, दृढ़ निश्चय और निर्भीकता का संदेश हमारी संसद के प्रति जायेगा। मुझे लगता है, विरोधी दल पहली बार अपने नाम और कार्यो के अनुरूप विरोध को सार्थक बनाने के लिए 21 विपक्षी दलों ने संयुक्त रूप से लिखित चिट्ठी लिखकर बायकाट किया। ताकि जनता उन्हे यह न कहें सके कि आप अपने ‘‘विरोध’’ करने का ‘‘कर्तव्य’’ भी संसद भवन की भव्यता के आकर्षण तथा चकाचौंध में भूल गये।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भव्यता की चकाचौंध से चमकने वाले संसद भवन के देश की जनता को सौंपने के अवसर पर एक काला धब्बा लगाने वाले इस अप्रिय विवाद से बचा जा सकता था? या बचने का कोई गंभीर प्रयास किये गए? साथ ही लोकतंत्र के ‘‘नवीन मंदिर’’ के समीप ही अनशन पर बैठी कुश्ती पहलवानों के विरुद्ध आज ही की गई कार्रवाई को टालकर या ‘‘पहले’’ कार्रवाई कर लोकतंत्र पर इस कारण से पड़े ‘‘काले छीटों’’ से क्या बचा नहीं जा सकता था? इसके लिए पहले आप संसद की परिभाषा जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उसे समझिये! संसद अर्थात ‘‘बात करना’’ है। जबकि यहां पर पूरे मामले में संवादहीनता की स्थिति दिन-प्रतिदिन मजबूत होते हुई ही दिख रही थी। ‘‘कहि रहीम कैसे निभे केर बेर को संग’’। जब विपक्ष ने समय पूर्व ही यह कह दिया था कि वे संसद के उद्घाटन के रंगारंग कार्यक्रम में राष्ट्रपति की उपस्थिति न होने के कारण कार्यक्रम का बायकॉट करेंगे, तब सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाई गई, जैसा कि प्रधानमंत्री संसद के हर सत्र के प्रारंभ होने के पूर्व बुलाते रहे हैं, जो एक परिपाटी है, यद्यपि कानून या नियम नहीं है! फिर सिर्फ ‘‘निमंत्रण पत्र’’ दिया गया। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी जिनका मूलभूत कार्य और कर्तव्य संवाद के जरिए संसद के गतिरोध को दूर करने का प्रयास करना है, संवाद सुनने को देश तरस गया था। यदि वे अथवा प्रधानमंत्री कुछ प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं तथा संसद में विपक्ष के नेता को चाय पर बुलाकर या फोन कर इस संबंध में बातचीत करते तो, बातचीत की ‘गर्मी’ से ‘‘बहिष्कार की बर्फ को’’ पिघलाने में कुछ तो मदद होती? लेकिन यह मुमकिन न हुआ, ‘‘खुदी और खुदाई में बैर’’ जो ठहरा।
अंत में इस लेख के शीर्षक में जिन शब्दों का उपयोग किया है, उन सब का आधार व विस्तृत विवरण मैंने ऊपर लेख में लिखा है। ‘‘अर्ध सत्य’’ (जो कई बार सत्य से भी ज्यादा खतरनाक होता है) शब्द का उपयोग भी मैंने संसद भवन के उद्घाटन के संबंध में इसलिए किया है, की जिस पवित्र ‘‘सैंगोल’’ (तमिल शब्द, धर्म दंड, राजदंड) जिसे सत्ता का प्रतीक माना जाता है, को लार्ड माउंटबेटन ने पं. जवाहरलाल नेहरू को सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य के सुझाव पर तमिलनाडु के एक मठ से बुलाया जाकर सौंपा गया। जिसे बाद में पं. नेहरू ने ‘‘सोने की वाकिंग ‘‘छड़ी’’ के रूप में इलाहाबाद के संग्रहालय में रखवा दिया गया था। अब इसे स्पीकर की कुर्सी के पास स्थापित इसलिए किया गया कि वह ‘‘कर्तव्य पथ’’ की याद दिलाता रहेगा। इस सैंगोल के बाबत जो भी जानकारी, कथन किया जा रहा है, वह अधिकतर मिथ्या होकर तथ्यों के विपरीत है। वास्तव में राजगोपालाचारी की जीवनी की किसी भी किताब में ‘‘सैंगोल’’ का उल्लेख नहीं मिलता है। उसी प्रकार इस सत्ता के प्रतीक के हस्तांतरण के रूप में दिया गया वह तथ्य भी सत्यापित नहीं होते हैं। तथापि तंजौर के धार्मिक मठ प्रमुख ने यह दावा जरूर किया है कि सैंगोल थम्बीरन स्वामी ने लार्ड माउंटबेटन को सौंपा, उन्होंने इसे भेंट स्वरूप उन्हें वापस दे दिया गया था। तब एक शोभायात्रा के रूप में सैंगोल को पं. नेहरू के आवास पर ले जाया जाकर उन्हे भेंट किया गया था।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष है)
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