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*भेड़ों की भीड़ बन गए बुद्धिजीवी*

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           पुष्पा गुप्ता 

बुद्धिजीवी से यहां हमारा आशय शब्दकर्मियों से ही है. साहित्य इन दिनों भेडों से घिर चुका है। आप भेड़ नहीं हैं तो साहित्यकार नहीं हैं। सत्ता ने साहित्यकार को सम्मान दिया,पुरस्कार दिए लेकिन भेड़ का दर्जा भी दिया। हम खुश हैं कि हम भेड़ हैं।

       भेड़ की तरह रहते,जीते और लिखते हैं।भेड़ होना बुरी बात है लेकिन साहित्यकार का भेड़ होना और भी बुरी बात है। साहित्यकार जब भेड़ बन जाता है तो यह साहित्य के लिए अशुभ-संकेत है। हम असमर्थ हैं कि साहित्यकार को भेड़ बनने से रोक नहीं रोक पा रहे।

       साहित्य में भेडों का उत्पादन जितनी तेजी से बढ़ा है उतनी तेजी से बेहतरीन साहित्य का उत्पादन  घटा है।

एक जमाना था साहित्यकार का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता था लेकिन इन दिनों ‘दृष्टिकोण’ की जगह ‘कोण’ ने लेली है। ‘दृष्टि’ बेमानी  साहित्यकार का ‘कोण’ उसकी पहचान का आधार बन गया है।

      साहित्यकार के दृष्टिलोप की सटीक जन्मतिथि हम नहीं जानते,लेकिन एक बात जरुर जानते हैं कि विवेक जब मर जाता है तब ‘कोण’ पैदा है। विवेक जब तक जिंदा रहता है विश्व दृष्टिकोण बना रहता है लेकिन जब विवेक मर जाता है तो सिर्फ ‘कोण’ रह जाता है।विवेक मर जाने पर साहित्यकार मात्र सिर्फ देह रह जाता है। यानी वह मंच पर ,सभा में, गोष्ठी में ,लोकार्पण में,समीक्षा में बैठा हुआ शरीर मात्र रह जाता है।

      साहित्यकार का ‘देह’ में रुपान्तरण स्वयं में लेखक के लिए चिन्ता की बात नहीं है, यह इन दिनों साहित्यिक जगत में भी चिन्ता की बात नहीं है,क्योंकि साहित्यिक जगत तो ‘देह’ से काम चलाता रहा है, उसके लिए तो ‘देह’ ही प्रधान है।

      साहित्यकार का ‘देह’ में रुपान्तरण एकदम नई समस्या है और इस समस्या पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए। सवाल यह है कि साहित्यकार क्या मात्र ‘देह’ है ?

सवाल यह है साहित्यकार की भूमिका को समग्रता या अंश में देखें ? कहां से देखें ? साहित्यकार को समग्रता में देखना सही होगा इससे साहित्य में आए अफसरों और प्रशासनिक अधिकारियों, कुलपति, कुलाधिपति , जाति साहित्यकारों आदि की बीमारियों से साहित्य को बचाने में मदद मिलेगी।

        एक जमाना था लेखक हुआ करता था, बाद में कार्यकर्ता -लेखक आया, लेकिन इसके बाद अफसर-लेखक ने साहित्य के क्षितिज को अपने कब्जे में ले लिया । अफसर-लेखक आज महान लेखक है!

      यह वह व्यक्ति है जिसके सामाजिक सरोकार सत्ता से अभिन्न रुप से जुड़े हैं और यह अपनी संगत,शोहरत,संपर्क आदि के जरिए साहित्य जगत को प्रभावित कर रहा है। इसे साहित्य में करप्शन का गोमुख भी कह सकते हैं।

        साहित्य की प्रतिवादी भूमिका,नागरिक की प्रतिवादी भूमिका आदि को विकृत करने में अफसर साहित्यकार की विगत 40सालों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

लाभ-लोभ से प्रेरित समझदारी ने मौजूदा संकट पैदा किया है। इस संकट को हम राजनीति से लेकर साहित्य तक सुरसा की तरह विराटरूप में देख रहे हैं। लाभ-लोभ से प्रेरित समझदारी के आप जितने गुलाम होते जाएंगे आप उतने टुच्चे,कमीने,भ्रष्ट और ओछे होते चले जाएंगे।                                                                     विद्वान, सम्मान, लेखक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पंडित आदि पदबंध ब्राह्मणवाद की सृष्टि हैं, बंधु, कॉमरेड , मित्र , नागरिक आदि कामगारों की ,हमें उन तमाम पदबंधों और पद्धतियो से बचना चाहिए ,जो उन्होंने बनायी हैं,दिक्कत यह है हम चाहते हैं ब्राह्मणवाद अपदस्थ हो लेकिन सोचते उनके ही पदबंधो में हैं,ऐसी अवस्था में वे अपदस्थ नहीं होंगे बल्कि ब्राह्मणवाद विरोधी ताकतें उनके अंदर प्रवेश कर जाती हैं और व्यवहार में यही हो रहा है,ब्राह्मणवाद विरोध,नव्य-ब्राह्मणवाद है।

    ये दोनों ही मार्ग लेखन के लिए कष्टदायक हैं।लोकतंत्र में रहते हैं तो नागरिक बनें,लेखक नहीं।

बुद्धिजीवी सत्य भक्त होता है। राष्ट्र,राष्ट्रीयता, दल,विचारधारा आदि का भक्त नहीं होता। सत्य के प्रति आग्रह उसे ज्यादा से ज्यादा मानवीय और संवेदनशील बनाता है।

       सत्य और मानवता की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में तपकर ही बुद्धिजीवी अपने सामाजिक अनुभवों को सृजित करता है. कालजयी रचनाएं दे पाता है। जनता के बृहत्तर तबकों की सेवा कर पाता है,सारे समाज का सिरमौर बनता है।

    बुद्धिजीवी गतिशील और सर्जक होता है। वह मानवीय चेतना का रचयिता है। 

      बुद्धिजीवी स्वभावत: लोकतांत्रिक होता है, लोकतंत्र ही उसकी आत्मा है। लोकतंत्र की आत्मा के बिना बुद्धिजीवी होना संभव नहीं है।

 लोकतंत्र के उसूलों के साथ समझौता करना उसकी प्रकृति के विरूद्ध है। लोकतांत्रिक,मूल्य, लोकतांत्रिक संविधान,लोकतांत्रिक संरचनाओं में उसकी आस्था और विश्वास ही उसकी सम्पदा है यदि वह इनमें से किसी के भी साथ दगाबाजी करता है अथवा लोकतंत्र के रास्ते से जरा भी विचलित होता है तो उसे गंभीर कष्ट उठाने पड़ते हैं। साथ ही समाज को भी कष्ट उठाने पड़ते हैं। बुद्धिजीवी का असत्य के साथ किया गया समझौता सामाजिक दगाबाजी है।

       यह दुर्भाग्य है कि हम दगाबाज बुद्धिजीवी और ईमानदार बुद्धिजीवी में अंतर भूल गए हैं। ईमानदार बुद्धिजीवी वह है जो अपने अंदर के सत्य और न्यायबोध को बेधड़क,निस्संकोच भाव से व्यक्त करे। यह ऐसा बुद्धिजीवी है जो अपने सत्य को अर्जित करने के लिए किसी भी किस्म के भौतिक लाभ के जंजाल में नहीं फंसता।

      किसी भी किस्म का प्रलोभन उसे सत्य की अभिव्यक्ति से रोकता नहीं है, वह निडर भाव से न्याय के पक्ष में खड़ा रहता है। अपने जीवन के व्यवहारिक कार्यों की पूर्त्ति के लिए सत्य का दुरूपयोग नहीं करता। सत्य के लिए जोखिम उठाता है,सत्य पर दांव लगाता है,यहां तक कि सत्य के लिए बलि चढ़ जाता है। तरह-तरह के उत्पीड़न और उपेक्षाओं को सहता है। वह हमेशा राज्य के विपक्ष में रहता है और यथास्थितिवाद का विरोध करता है।

यह सच है किसी भी किस्म का बड़ा परिवर्तन अथवा क्रांति बगैर बुद्धिजीवियों के हस्तक्षेप के नहीं हुई है। 

     यह भी सच है किसी भी किस्म की प्रतिक्रांति भी बुद्धिजीवियों के बिना नहीं हुई है। बुद्धिजीवी वर्ग ही किसी आंदोलन का माता-पिता , बेटी -बेटा ,पड़ोसी और मित्र होता है। बुद्धिजीवी की समाज में विशिष्ट भूमिका होती है उसे शक्ल विहीन पेशेवराना रूपों में संकुचित करने जरूरत नहीं है। वह अपने वर्ग का सक्षम सदस्य होता है,अपने कार्य-व्यापार में समर्थ होता है। 

      व्यक्ति के तौर पर बुद्धिजीवी संदेश को अभिव्यक्त करता है,संदेश को बनाने या धारण करने की उसके पास फैकल्टी होती है जिसे वह अभिव्यक्ति देता है। यह अभिव्यक्ति उसके एटीट्यूटस और दार्शनिक नजरिए में व्यक्त होती है।

रूढ़ियों और कठमुल्लेपन से लड़े बिना बुद्धिजीवी अपनी भूमिका नहीं निभा सकता। ये रूढ़ियां और कठमुल्लापन किसी भी तरह का हो, बुद्धिजीवी कभी भी इन्हें चुनौती दिए बगैर अपनी सामाजिक भूमिका अदा नहीं कर सकता। पुराने किस्म की वामपंथी प्रतिबद्धता विचारधारा और वर्ग विशेष के हितों से बंधी थी, यह बंधन और प्रतिबद्धता संकुचित और एकायामी थी।

     इसमें मानवता और मानवाधिकारों का बोध शामिल नहीं था। वह पार्टी बोध से संचालित प्रतिबद्धता थी। जबकि नए किस्म की प्रतिबद्धता का आधार स्वतंत्रता और न्याय है। यह बहुआयामी है। स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर जब लिखेंगे अथवा संघर्ष करेंगे तो पुराने सभी विमर्श उलट- पलट जाएंगे। वामपंथी प्रतिबद्धता जिन्दगी की अधूरी सच्चाई को सामने लाती है। जबकि स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर निर्मित यथार्थ ज्यादा व्यापक, वैविध्यपूर्ण, जटिल और मानवीय होता है।

       वामपंथी बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता की मुश्किल यह है कि वे अंदर कुछ बोलते हैं और बाहर कुछ बोलते हैं। प्राइवेट जीवन में,पार्टी के अंदर बुद्धिजीवी कुछ बोलता है और बाहर कुछ बोलता है। उसके प्राइवेट और सार्वजनिक में भेद रहता है। यह उसके जीवन और विचार का दुरंगापन है। 

     बुद्धिजीवी के विचारों और नजरिए में दुरंगापन नहीं पारदर्शिता होनी चाहिए। बुद्धिजीवी को पारदर्शी होना चाहिए। जब आप सार्वजनिक जीवन में सार्वजनिक सवालों से दो चार होते हैं तो उस समय प्राइवेट जैसी कोई चीज नहीं होती। उस समय बुद्धिजीवी पब्लिक या जनता का होता है, जनता के बुद्धिजीवी की भूमिका अदा करता है। उसका काम यह नहीं है कि अपनी ऑडिएंस को संतुष्ट करने वाली,आनंद देने,मजा देने वाली बातें कहे।

      इसके विपरीत उसका काम है अप्रिय सत्य का उद्धाटन करना, ऐसी बात को कहना जिसे ऑडिएंस नापसंद करती है। इसी अर्थ में वह प्रगतिशील नजरिए का समाज में प्रतिनिधित्व करता है। सभी किस्म की बाधाओं के बावजूद जनता का प्रतिनिधित्व करता है। वह जब सामाजिक प्रतिनिधित्व करता है तो उसे प्रतिबद्धता ,जोखिम , साहस से काम लेना होता है ,असुरक्षा का सामना करना होता है।

      भाईचारे और मित्रता के नाते स्वतंत्रता और न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को त्यागता नहीं है। उसका सामान्य स्वभाव यही होता है कि वह साफतौर पर कहता है वह क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता। वह अपने कर्म के जरिए स्वतंत्रता पैदा करता है। वह मैलोड्रामा के जरिए स्वतंत्रता पैदा नहीं कर सकता। 

बुद्धिजीवी वह है जिसके चिन्तन,विश्वास और यथार्थ जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति में फांक न हो। बौद्धिक गतिविधि का चरम लक्ष्य है मानवीय स्वतंत्रता और ज्ञान में इजाफा करना।

       बुद्धिजीवियों में ऐसे लोग अधिक हैं जो किसी न किसी रूप में सरकारी संस्थानों से जुड़े हैं। राज्य और केन्द्र सरकार के सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े हैं। उनकी इस अवस्था के कारण उनमें खास किस्म की अधिकार हीनता की स्थिति भी पैदा हुई है। वे जनता के बीच में हाशिए पर चले गए हैं। ये लोग सरकार, कारपोरेट घरानों,मीडिया उद्योग आदि से किसी न किसी रूप में बंधे हैं। ये सत्ता के प्रतिष्ठानों के सबसे करीबी समुदाय का हिस्सा हैं। इसी अर्थ में ये जनता के साथ प्रभावशाली ढ़ंग से संवाद और संप्रेषण करने में समर्थ हैं।

      यहीं से बुद्धिजीवियों की मुश्किलें शुरू होती हैं। सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ अपने नाभिनालबद्ध संबंध के कारण कलात्मक और बौद्धिक स्वतंत्रता को वे बरकरार नहीं रख पाए हैं। संभवत: चंद ही बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो सत्ता के दवाबों का प्रतिवाद करते हों,स्टीरियोटाईप लेखन से बचते हों, वास्तव अर्थों में चीजों में रमण करते हों, वास्तविकता के साथ जिनका जेनुइन संबंध हो। साहित्य में ईमानदारी का भाव पैदा करने के लिए उसका स्टीरियोटाईप से बचना, उसका उद्धाटन या नंगा करना जरूरी है। 

बुद्धिजीवी वह है जो स्टीरियोटाईप विजन के मुखौटे उतार दे और जिसके पास आधुनिक संप्रेषण के तरीके हों। राजनीतिक संघर्ष को सत्य के साथ जोड़ना आधुनिक बुद्धिजीवी का काम है, राजनीतिक संघर्ष का लक्ष्य सत्य को ढंकना नहीं है बल्कि सत्य और राजनीति के रिश्ते को मजबूत बनाना है।जो ऐसा नहीं कर पाते वे अपने जीवन के अनुभवों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते।

      यह सच है आज राजनीति से किनाकशी संभव नहीं है ,चारों ओर राजनीति है। शुद्ध साहित्य और शुद्ध कला संभव नहीं है। यह भी संभव नहीं है कि बुद्धिजीवी मीडिया और सत्ता के प्रतिष्ठानी दवाबों से बच जाए। सत्ता और मीडिया के आख्यान बुद्धिजीवी पर दवाब बनाए रखते हैं।     

       मीडिया ,सत्ता और विचारों का समूचा संसार बुद्धिजीवी पर यथास्थिति बनाए रखने के लिए दवाब पैदा करता है। उसे बार-बार यही एहसास कराया जाता है कि जो स्वीकृत है, वैध है उसे ही स्वीकार करे, माने और उसी को व्यक्त करे। यही वह बिंदु है जिसके मुखौटे उतारने की जरूरत है।

स्वीकृत और वैध के मुखौटे उतारने के क्रम में ही वैकल्पिक आख्यान सामने आता है, प्रत्येक बुद्धिजीवी अपनी क्षमता के अनुसार यह काम कर सकता है और सत्य को बता सकता है। यह बेहद मुश्किल कार्यभार है। इसी संदर्भ में एडवर्ड सईद ने लिखा है बुद्धिजीवी अकेला खड़ा होता है। सईद ने लिखा है मध्यपूर्व युद्ध के दौरान मेरे लिए अकेले खड़े रहना कितना मुश्किलभरा काम था।

      बुद्धिजीवी के संदर्भ में समूह और व्यक्ति के बीच का अन्तर्विरोध हमेशा रहेगा। यही वजह है बुद्धिजीवी हमेशा कमजोर और गैर- प्रस्तुत का हिमायती होता है।

       कमजोर और अ-प्रस्तुत की हिमायत में खड़े होना बौद्धिक प्रतिवाद की सबसे बड़ी उपलब्धि है। बुद्धिजीवी न तो शांत करने वाला होता है और न जागरूकता पैदा करने वाला होता है बल्कि उसके दांव तो आलोचनात्मक बोध पर लगे हैं। यह ऐसा बोध है जो किसी भी किस्म के सहज फार्मूले को स्वीकार नहीं करता, अथवा रेडीमेड क्लीचे स्वीकार नहीं करता। अथवा वह ताकतवर लोग क्या कहते हैं यह नहीं सोचता।अथवा परंपरागत के साथ सहज संबंध नहीं बनाता।

      उनके अंतर्विरोधों के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता।निष्क्रियभाव से सब कुछ स्वीकार नहीं करता ।बल्कि सक्रिय रूप से जनता को सम्बोधित करता है। बुद्धिजीवी का कार्य है निरंतर सजगता बनाए रखना,यह कोशिश करना कि कहीं अर्द्ध-सत्य अथवा अर्द्ध-विचारों की अभिव्यक्ति तो नहीं हो रही। यही वजह है वह यथार्थवाद के साथ टिकाऊ रिश्ता बनाता है। अपनी खिलंदड़ी रेशनल ऊर्जा का जनसंघर्षों के पक्ष में इस्तेमाल करता है।

       निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर आम जनता के बीच में अभिव्यक्त करता है।उसकी असल परीक्षा आपात्काल या संकट की घड़ी में होती है। ऐसी अवस्था में जो अपना रेशनल, लोकतांत्रिक विवेक नहीं खोता और सत्य के साथ खड़ा होता है ,जोखिम उठाता है वही सही अर्थों में अपने बौद्धिकधर्म को निभाता है। 

     बौद्धिकधर्म राजधर्म से बड़ा है।संकट अथवा आपातकाल में सच को छिपाना,चुप रहना सबसे बड़ा अपराध है इससे बुद्धिजीवी को बचना चाहिए। बुद्धिजीवी का धर्म, राजधर्म से भी बड़ा होता है। 

बुद्धिजीवी के निर्माण में उसके शहर की बड़ी भूमिका होती है। वह जिस शहर में रहता है ,उसको जानना.उसका आलोचनात्मक और मूल्यपरक मूल्यांकन करना उसका काम है। मैं 28साल कोलकाता में रहा। कोलकाता रीयलसेंस में इच्छाओं का शहर है।  

       इसमें इच्छाओं को साकार रूप में देख सकते हैं,इच्छाओं को साकार कर सकते हैं।इच्छाओं का इस तरह का अबाधित साम्राज्य भारत के अन्य किसी शहर में नहीं मिलेगा।भारत के अधिकांश शहरों की आयरनी है कि वहां इच्छाएं मर गयी हैं,शहर विकसित हो गए हैं। कोलकाता में इच्छाएं नृत्य करती रहती हैं।धर्म,अर्थ, काम, ज्ञान,संस्कृति और उपभोग की इच्छाओं को यहां सहज साकार कर सकते हैं।

       हिन्दीभाषी कोलकतिया व्यापारीवर्ग ने आधुनिक विचारधाराओ को अपनाने की बजाय अतीत की मृत विचारधारा और सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाया इसके कारण आधुनिक भारत में इस व्यापारीवर्ग की सांस्कृतिक-वैचारिक तौर पर प्रगतिशील भूमिका नहीं बन पायी।आज भी यह वर्ग समाज में सबसे पिछड़े मूल्यों और विचारों के पोषक राजनीतिक तत्वों का सबसे बड़ा आर्थिक मददगार है।

       धार्मिक तत्ववादी और साम्प्रदायिक ताकतों की मदद करने में सबसे आगे है।बंगाल के अवरूद्ध विकास की यह नजरिया धुरी है। बंगाल का रैनेसां इनको प्रभावित करने और बदलने में असमर्थ रहा।

हिन्दीभाषी व्यापारी यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं , लेकिन बंगाली सभ्यता,संस्कृति के उत्कर्ष से एकदम अछूते,इनके परिवारों में दौलत है लेकिन संस्कृति नहीं है,इनके परिवार रैनेसां के मूल्यों से एकदम बेअसर। इस व्यापारीवर्ग की विशेषता है कि इसने बेशुमार दौलत बटोरी लेकिन संस्कृति छदामभर भी ग्रहण न कर सका।इसका बंगाल के समाज पर ही नहीं समूचे देश पर बुरा असर हुआ। इसका हमारे देश के मध्यवर्ग पर भी असर हुआ, हमने कभी इस वर्ग को आलोचनात्मक ढ़ंग से देखा ही नहीं कि यह व्यापारीवर्ग किस तरह दौलत की आड़ में कु-संस्कृति के शिखर पर बैठा है।

       कोलकाता बेहद मानवीय शहर है,लेकिन क्रमशःमानवता का इसमें ह्रास हो रहा है।दुख और कष्ट से भरे इस शहर में सुख कैसे निकल गया या सुख को निकाल दिया गया,यह विवाद का विषय हो सकता है,लेकिन मानवीय संवेदनाओं से यह शहर आज भी लबालब भरा है।मानवता का एक जमाने में इस शहर ने सृजन किया लेकिन सन् 1970-71 के बाद से मानवता का यहां क्रमशःह्रास हुआ ।मानवता के ह्रास का सबसे प्रधान कारण है राजनीति का अपराधीकरण, राजनीति के क्रांतिकारीकरण के क्रम में अपराधीकरण नक्सलवाद के गर्भ से पैदा हुआ और उसके बाद उसने समूचे बंगाल को ग्रस लिया।

       कोलकाता शहर का सबसे दुखद पक्ष है असंख्य बेरोजगार युवकों की परेशानियों से भरी जिंदगी।इस शहर में अधिकांश युवक बहुत कम पगार पर काम करते हैं।शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम के बदले जितनी कम पगार यहां मिलती है वह बेहद पीड़ादायक है। इसके कारण जीवनस्तर में लगातार गिरावट आई है। बीमारियां बढ़ी हैं,अवसाद बढ़ा है, अपराध बढ़े हैं।

       मसलन्,यहां कॉलेज-वि.वि. में पार्टटाइम पढ़ाने वालों को यूजीसी के नियमों के अनुसार पारिश्रमिक नहीं मिलता,जब सरकारी काम में पगार के नियम की इस तरह खुलेआम अवहेलना हो रही हो तो आप समझ सकते हैं निजी क्षेत्र में किस तरह की दुर्दशा कामगार युवक झेल रहे होंगे।इस नजरिए से देखें तो यह शहर युवकों के श्रम की लूट पर मौज मना रहा है।

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