सुसंस्कृति परिहार
हम सभी इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि बंगाल में शताब्दियों से दुर्गा पूजा हो रही है. इसके मूल में कृतिवास ओझा की बांग्ला रामायण को माना जाता है जिसमें जामवंत राम को शक्ति की आराधना करने कहते हैं। जबकि कई लोग पहली बार दुर्गा पूजा के आयोजन को लेकर कई दूसरी कहानियां भी बताते हैं. कहा जाता है कि पहली बार नौवीं सदी में बंगाल के एक युवक ने इसकी शुरुआत की थी. बंगाल के रघुनंदन भट्टाचार्य नाम के एक विद्वान द्वारा भी पहली बार दुर्गा पूजा आयोजित करने का जिक्र मिलता है. एक दूसरी कहानी के मुताबिक बंगाल में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन कुल्लक भट्ट नाम के पंडित के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने करवाया था. लेकिन यह समारोह पूरी तरह से पारिवारिक था।
पहली बार दुर्गा पूजा कैसे हुई, क्यों आयोजित की गई, इसको लेकर एक दिलचस्प किस्सा है ,कि पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा का आयोजन 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद शुरू हुआ. कहा जाता है कि प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत पर भगवान (गाॅड)को धन्यवाद देने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था. प्लासी के युद्ध में बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला की हार हुई थी ।बंगाल में मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर गंगा किनारे प्लासी नाम की जगह है यहीं पर 23 जून 1757 को नवाब की सेना और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में युद्ध लड़ा और नवाब सिराजुद्दौला को शिकस्त दी हालांकि युद्ध से पहले ही साजिश के जरिए रॉबर्ट क्लाइव ने नवाब के कुछ प्रमुख दरबारियों और शहर के अमीर सेठों को अपने साथ कर लिया था ।
न्यूज़ 18के मुताबिक युद्ध में जीत के बाद रॉबर्ट क्लाइव ईशु को धन्यवाद देना चाहता था. लेकिन युद्ध के दौरान नवाब सिराजुद्दौला ने इलाके के सारे चर्च को नेस्तानाबूद कर दिया था. उस वक्त अंग्रेजों के हिमायती राजा नव कृष्णदेव सामने आए. उन्होंने रॉबर्ट क्लाइव के सामने भव्य दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव पर रॉबर्ट क्लाइव भी तैयार हो गया. उसी वर्ष पहली बार कोलकाता में भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ ।
यानि एक अंग्रेज को प्रसन्न करने के लिए हुई थी पहली बार दुर्गा पूजा का आगाज़ सार्वजनिक तौर पर किया गया इस दौरान पूरे कोलकाता को शानदार तरीके से सजाया गया. कोलकाता के शोभा बाजार के पुरातन बाड़ी में दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ. इसमें कृष्णनगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों को बुलाया गया ।भव्य मूर्तियों का निर्माण हुआ ।वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं रॉबर्ट क्लाइव ने हाथी पर बैठकर समारोह का आनंद लिया. इस आयोजन को देखने के लिए दूर-दूर से चलकर लोग कोलकाता आए थे.
इस आयोजन के प्रमाण के तौर पर अंग्रेजों की एक पेटिंग मिलती है. जिसमें कोलकाता में हुई पहली दुर्गा पूजा को दर्शाया गया है. राजा नव कृष्णदेव के महल में भी एक पेंटिंग लगी थी. इसमें कोलकाता के दुर्गा पूजा आयोजन को चित्रित किया गया था. इसी पेंटिंग की बुनियाद पर पहली दुर्गा पूजा की कहानी कही जाती है.1757 के दुर्गा पूजा आयोजन को देखकर बड़े अमीर जमींदार भी अचंभित हो गए. बाद के वर्षों में जब बंगाल में जमींदारी प्रथा लागू हुई तो इलाके के अमीर जमींदार अपना रौब रसूख दिखाने के लिए हर साल भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन करने लगे. इस तरह की पूजा को देखने के लिए दूर-दूर के गांवों से लोग आते थे. धीरे-धीरे दुर्गा पूजा लोकप्रिय होकर सभी जगहों पर होने लगी. कहा जाता है कि बंगाल में पाल और सेनवंशियों ने दुर्गा पूजा को काफी बढ़ावा दिया बताया जाता है कि 1757 के बाद 1790 में राजाओं, सामंतों और जमींदारों ने पहली बार बंगाल के नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा में सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन किया था. इसके बाद दुर्गा पूजा सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होती गई और इसे भव्य तरीके से मनाने की परंपरा पड़ गई बंगाल से ही देश के दूसरे हिस्सों में दुर्गा पूजा आयोजित करने का चलन फैला. आज भी पश्चिम बंगाल जैसी दुर्गा पूजा कहीं नहीं होती ।
यह भी उल्लेखनीय है कि यही महिषासुर मर्दिनी दुर्गा पूजा आगे चलकर आज़ाद भारत के लिए संघर्षरत क्रांतिकारियों की पाठशाला और मिलनस्थली बनी जहां से आज़ादी की चिंगारियां शोला बनीं और जिसने आगे जाकर अंग्रेजों को भारत छोड़ने मज़बूर किया ।