लोकनायक जय प्रकाश नारायण पर मार्क्सवाद और समाजवाद का गहरा प्रभाव था। वे देश की तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था से कभी संतुष्ट नहीं रहे। उन्होंने हमेशा सर्वोदय का नारा दिया। अपने पूरे जीवनकाल में पूरी निष्ठा के साथ सर्वोदय के कार्य में जुटे रहे। बीहड़ और चंबल से उनके संबंध के पीछे उनके यही उपरोक्त विचार रहे। जेपी का मानना था कि देश की तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था समाजवाद के लक्ष्य को पाने में सक्षम नहीं है। वे इसके लिए एक ही रास्ते पर विचार करते थे। राज्यशक्ति के स्थान पर लोकशक्ति की स्थापना। उनके शब्दों में समाजवाद का अर्थ- मनुष्य की ओर से मनुष्य के शोषण का अंत। वे सभी के विकास के लिए समान अवसर पर विश्वास करते रहे। समाज के भौतिक और नैतिक साधनों का पूर्ण विकास वर्ग विशेष के लिए नहीं चाहते थे। जेपी हमेशा राष्ट्रीय संपत्ति तथा सामाजिक शिक्षा संबंधी दूसरे प्रकार की सेवा का न्यायपूर्ण बंटवारा चाहते रहे। जेपी के आदर्श और मूल्यों की ताकत की गूंज चंबल के बीहड़ों में भी सुनाई देती थी। यहीं कारण था कि इनामी डकैत भी रात के अंधेरे में जेपी के पटना आवास पहुंच जाते थे। डकैत जेपी के इनकार करने और विनोबा भावे के पास जबरन भेजने को भी बुरा नहीं मानते थे। डकैत जेपी से अपने दिल की बात कहते थे। पहली दो कड़ी में आपने आत्मसमर्पण के अलावा जेपी से इनामी डकैतों के संबंधों की कहानी पड़ी। अब आगे बताते हैं आत्मसमर्पण की घटना के बाद क्या हुआ।
डकैतों के आत्मसमर्पण के बाद क्या हुआ?
बिहार विधान परिषद की पत्रिका ‘साक्ष्य’ ने वर्ष 2016 में जेपी के संस्मरणों पर विशेष अंक का प्रकाशन किया था। इस अंक में जेपी से जुड़े कुछ ऐसे अनसुने किस्सों की चर्चा है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। उन्हीं संस्मरणों में से कुछ रोचक कहानी चुनकर आपके सामने रख रहे हैं। जो आपको रहस्य और रोमांच से भर देगी। पहली कड़ी में आपने जाना था कि डाकू माधो सिंह को सरकार से छुपाने के बाद जेपी चंबल घाटी में शांति मिशन की स्थापना करते हैं। इसमें जेपी को पुलिस और सरकार की मदद मिलती है। उसके बाद दूसरी कड़ी में हमने बताया था कि खूंखार डकैतों से कैसे जेपी का पारिवारिक संबंध बन गया। डकैतों के आत्मसमर्पण और उनके हथियार डालने की बात पूरे विश्व में फैल गई। उस समय का मीडिया इस घटना को काफी प्रमुखता से प्रकाशित करने लगा। विदेशी मीडिया भारत की धरती पर हो रही इस अभूतपूर्व घटना का विस्तार से कवरेज करने लगा। बीबीसी, अमेरिका की टाइम पत्रिका के प्रतिनिधि इस घटना के गवाह बने। ये पूरा कार्यक्रम चंबल घाटी क्षेत्र के जौरा ग्राम में आयोजित हो रहा था। वहां पर सभी विदेशी मीडिया संस्थानों के प्रतिनिधि पहुंच चुके थे।
टाइम पत्रिका ने की अपनी विशेष टिप्पणी
‘साक्ष्य’ में आत्मसमर्पण वाले कार्यक्रम की चर्चा करते हुए ‘लता वर्मा’ विदेशी मीडिया के विचारों को लिखती हैं। इस दौरान टाइम पत्रिका ने कहा कि एक जमाने में देश के लोगों का विचार था कि गांधी के अहिंसा का मार्ग अव्यवहारिक है। हम गलत थे। हालांकि, जेपी के प्रयास से ही इतनी बड़ी संख्या में बागियों ने आत्मसमर्पण किया। जेपी बार-बार कहा करते थे कि बारह साल पहले विनोबा जी ने 1960 में जो बीज बोए थे। उन्हीं का ये फल है। उस समय 20 बागियों ने आत्मसमर्पण किया। जेपी ने कहा कि मैं इसे ईश्वर की लीला मानता हूं। मैं अपने को निमित्त मात्र से अधिक न माना है, न कभी कहा है। चंबल के डाकुओं का हृदय परिवर्तन एक असाधारण घटना थी। इसे भारत के बागियों के इतिहास की ऐतिहासिक घटना भी कहा जाता है। विदेशी मीडिया ने माना कि ये सिर्फ भारत देश में ही संभव था। इस घटना की चर्चा विदेशों में बैठे लोग भी करते थे। पश्चिमी देशों की मीडिया इस बात से आश्चर्य में थी कि एक साधारण सा व्यक्ति भला ऐसा कैसे कर सकता है? जो डाकू पूरी सरकार से लड़ने पर उतारू हैं। किसी एक व्यक्ति के कहने से कैसे अपने हथियार डाल दिये।
आत्मसमर्पण करने वाला भयंकर डाकू
चंबल घाटी के डाकू सरदारों में सबसे ज्यादा भयंकर मोहर सिंह थे और उनका सबसे बड़ा गिरोह था। इसलिए जब डाकुओं के ऐतिहासिक आत्म-समर्पण की सारी तैयारी पूरी हो गई, तो हर एक के मन में एक ही सवाल था- मोहर सिंह आत्मसमर्पण करेंगे या नहीं? ग्वालियर पुलिस के उप महानिरीक्षक भी कहते थे कि दूसरे डाकू चाहे आ जायें, मोहर सिंह नहीं आएंगे। जब ये बात मोहर सिंह के कान में पड़ी तो उन्होंने साफ कहा कि -जाइये, उनसे कह दीजिए मोहर सिंह सबसे पहले आत्मसमर्पण करेंगे। मोहर सिंह ने उस दौरान ये भी कहा कि- आप रेडियोवालों से कहिए कि वे इस समाचार को प्रसारित कर दें। अगर ऐसा हुआ तो आप देखेंगे कि छोटे-छोटे डाकू दौड़ते हुए आत्मसमर्पण के लिए आ जाएंगे। मोहर सिंह ने जो कहा था वहीं हुआ। ‘साक्ष्य’ पत्रिका में इस बात की विस्तार से चर्चा है। आत्मसमर्पण की बात से उत्साहित मोहर सिंह की घोषणा आगे काम कर जाती है। मोहर सिंह ने जो कहा, वहीं होता है। इससे पूर्व बागियों की खोज में कार्यकर्ताओं को निकलना पड़ता था। बाद में स्थिति ऐसी हुई कि जेपी को खोजते हुए बागी बीहड़ से बाहर आने लगे।
जब डकैत जेपी की तरफ झुकने लगा!
70 के दशक में चंबल के लिए जेपी महात्मा साबित हुए। डकैतों का हृदय परिवर्तन हो गया। डकैत रामायण और गीता पढ़ने लगे। जेपी ने ये साफ कह दिया था कि किसी भी डकैत को फांसी हुई, तो वे उपवास कर अपनी जान दे देंगे। उसके बाद प्रशासन डकैतों के साथ अच्छा व्यवहार करने लगा। डकैतों की सभी मांगों पर जेपी ने विचार किया। जेपी उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए उत्साहित दिखे। डाकुओं के आत्मसमर्पण का कार्यक्रम बहुत विशाल बना। इस कार्यक्रम में देश-विदेश से पचास हजार से ज्यादा लोग इकट्ठा हुए। इसी दौरान एक ऐसी घटना हुई जिसके बारे में जानकर हर कोई हैरान रह गया। किसी जमाने में चंबल के बीहड़ों में जिनके नाम का आतंक था, वे तहसीलदार सिंह और लोकमन दीक्षित थे। जब ये दोनों बागी जेपी से मिले, तहसीलदार सिंह ने जेपी के पैर हुए। जब लोकमान दीक्षित पैर छुने के लिए आगे बढ़े, तब जेपी ने अपने पैर पीछे खींच लिए। जेपी ने कहा कि आप ये क्या कर रहे हैं। आप तो पंडित हैं। आप मेरे पैर छुएंगे। लोकमनजी ने जवाब दिया कि भले मैं पंडित हूं, लेकिन आप तो महात्मा हैं।