~ डॉ. नीलम ज्योति
विश्व में सामान्यतः तीन प्रकार की कालगणनाएँ प्रचलित हैं।
ईसाइयों की कालगणना सूर्य पर आधारित होती है, उनका सौरवर्षानुसार ३६५.१/४ दिनमें वर्ष-चक्र पूर्ण होता है। जनवरीसे दिसम्बरतक ३६५ दिन पूर्ण होते हैं एवं चौथे वर्ष फरवरीमें १ दिन बढ़ाकर इस चौथाई भागको पूर्ण दिन बनाकर कालगणनाको सही किया जाता है। यद्यपि हिन्दू महीनों के आधारपर इनमें भी प्रतिमाह १-२ दिन की घट-बढ़ की जाती है, इसलिये जनवरी, मार्च, मई, जुलाई, अगस्त, अक्टूबर, दिसम्बर आदि ७ माह ३१ दिनके एवं अप्रैल, जून, सितम्बर, नवम्बर आदि ४ माह ३० दिन एवं फरवरी २८ या २९ दिन का करके वर्षमान सन्तुलित किया जाता है।
पारसी लोगों का वर्ष १२×३० दिन=३६० दिनका होता है एवं अन्तिम ५ दिन ५ दिन की गाथा के रूपमें वर्षके अन्तमें होते हैं, इस प्रकार ३६५ दिन होते हैं। दिनके १/४ भागको १२० वर्ष बाद एक अधिकमास (३० दिन का) मानकर वर्ष-चक्रको पूर्ण किया जाता है। इस प्रकार यह भी सौर गणना के अनुकूल ही रहता है।
मुसलिम- अरबी कालगणना चान्द्रमान से होती है, इसका सौरमानसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। चन्द्रदर्शनानुसार इनका माह २९ या ३० दिनका होता है। द्वितीयाको चन्द्रदर्शन होनेपर ३० दिनका तथा तृतीयाको चन्द्रदर्शन होनेपर २९ दिनका माह होता है। अलग-अलग देशोंमें चन्द्रदर्शनमें भिन्नता होनेपर वर्ष गणनामें १ दिनका अन्तर भी सम्भव है।
इस प्रकार मुसलिम हिजरी वर्ष सामान्यतः ३५४ दिनका होता है। अन्य संवत्सरोंसे इसमें ११ दिनका अन्तर होता है। प्रत्येक ३२.१/२ वर्षोंमें इनका एक वर्ष अन्य संवत्सरमान से बढ़ जाता है। बादशाह औरंगजेब ने तो चन्द्रोदयमान ज्ञात करके गणितसे पहले तारीख निश्चित करनेका निषेध किया था। हिजरी सन् में ६ माह ३० दिनके तथा ६ माह २९ दिनके क्रमशः होते हैं।
इस प्रकार ईसाई कालगणना सूर्यसे एवं मुसलिम कालगणना चन्द्रमासे चलती है, सम्भव है ठण्डे देशों में सूर्यको एवं अरब आदि गरम जलवायुवाले देशों में चन्द्रमाको महत्त्व दिया गया। भारतीय मनीषियोंने सूर्य एवं चन्द्र दोनोंको महत्त्व दिया।
अतः सौरमान एवं चान्द्रमानसे प्रतिवर्ष पड़नेवाले ११ दिनके अन्तरको प्रत्येक तीसरे वर्ष अधिकमास बनाकर सौरमानके समतुल्य किया गया एवं तिथिमानको घटा-बढ़ाकर क्षयतिथि, वृद्धितिथि करके महीनोंको सन्तुलित किया गया।
सौरमान एवं चान्द्रमान का ऐसा अद्भुत समन्वय भारतीय ऋषियों ने किया कि उसे अँगरेज एवं अरबी विद्वान् भी समझने में विफल रहे। भारतीय विद्वानोंने जो कालगणनाका मार्ग अपनाया, उसमें न केवल सूर्य, चन्द्र अपितु अन्य सात ग्रहों को भी महत्त्व दिया।
सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण की सैकड़ों वर्षपूर्व सटीक भविष्यवाणी करना भारतीय कालगणना का प्रत्यक्ष, प्रबल, अद्वितीय वैज्ञानिक प्रयोग है। १४ जनवरीको मकरसंक्रान्ति होना भी सामान्यतः स्पष्ट प्रमाण है। यही कारण है कि भारतीय त्योहार एवं पर्व एक निश्चित ऋतुमें ही आते हैं।
मुसलिम त्योहार रोजे, ईद, ताजिया अलग- अलग ऋतुओंमें आते रहते हैं। कभी रोजे गर्मीमें, कभी सर्दीमें। जबकि भारतीय त्योहार होली, दीपावली आदि एक निश्चित मौसममें ही आते हैं। वस्तुतः वर्तमान पीढ़ीको हमारे पूर्वज ऋषियों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये।
भारतीय कालगणनामें शालिवाहन शक संवत् एवं विक्रम संवत्सरका ही अधिक महत्त्व रहा है। शालिवाहन शक संवत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे प्रारम्भ होकर अमावस्यान्त होता है। वराहमिहिरने अपनी पुस्तक पंचसिद्धान्तिकामें ‘शक’ शब्दका प्रयोग किया है- ‘सप्ताश्विवेद’ (४२७)-संख्यं शककालमपास्य चैत्र- शुक्लादौ’। (पंचसिद्धान्तिका १।८)
इसके अलावा श्रीकृष्णसंवत्, बौद्धसंवत्, कलिसंवत्,जैन या महावीरसंवत् एवं मौर्यसंवत्, बँगलासंवत्, राष्ट्रीयसंवत्, फसली सन् आदि भी प्रचलित हैं।
भारत में अन्य संवतों की अपेक्षा विक्रमसंवत् का ही प्रचार अधिक है। इस संवत्का प्रारम्भ कलि-संवत्के ३०४४ वर्ष व्यतीत होनेपर शालिवाहन शकसे १३५ वर्षपूर्व तथा ईस्वी सन्से ५७ वर्षपूर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा बुधवार को चान्द्रमान से तथा मेषसंक्रमण (सौरमान) – से हुआ था।
उत्तर गुजरातमें इस संवत् के अमावस्यान्त तथा शेष भारतमें पूर्णिमान्त माह होते हैं। नेपालदेशमें भी अमान्त माह प्रचलित हैं। राजस्थानमें यह वर्ष रामनवमीको बसना-पूजन करके और गुजरातमें महालक्ष्मी- पूजा करके कार्तिक शुक्ल प्रतिपदासे व्यापारी लोग मनाते हैं।
महाराज विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी, यशस्वी, विद्वान्, वीर एवं प्रजावत्सल शासक थे। उन्होंने इस विक्रम- संवत् को शास्त्रीय विधिसे प्रचलित किया। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी सम्पूर्ण प्रजाके सम्पूर्ण ऋणको अपने राज्यकोष से चुकाकर प्रजा को ऋणमुक्त किया था।
वे अपने सुख के लिये राज्यकोष से धन नहीं लेते थे । संयमी राजा अपने पीनेके लिये जल स्वयं क्षिप्रा नदीमें स्नान करके लाया करते थे। उन्होंने सदैव पृथ्वीपर शयन किया। ऐसे चक्रवर्ती सम्राट्ने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रजाहितमें व्यतीत किया, जिनके धर्मबल की यशकीर्तिपताकाके रूपमें आज भी विक्रमसंवत् भारतमें प्रचलित है।
सभी भारतीय पंचांग विक्रमसंवत् के आधारपर ही बनते हैं एवं भारतीय पर्व-त्योहारोंका यह निर्णायक आधार है।
प्रारम्भिक शताब्दियों में विक्रमसंवत् को मालव संवत् भी कहा जाता था। विक्रमसंवत्का सायन और निरयन दोनों प्रकारसे व्यवहार सुगम है। इसके सौरमास और दिनोंकी गणना तो ईसवी सन्से भी अधिक शुद्ध तथा सुगम है। वस्तुतः आज भी विक्रमसंवत् भारतीय काल- गणनाका मुख्य आधार बना हुआ है।