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अन्तर्ज्ञान और अनाहत ध्यान

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 डॉ. विकास मानव

     _अध्यात्म का सम्बन्ध जहां तक है, वह धर्म के मर्म से सम्बंधित है। धर्म के मर्म को इसलिए कहा है क्योंकि अधिकांश लोग धर्म को ही नहीं समझते तो धर्म के मर्म की बात तो छोड़ ही दीजिये। गेरुआ वस्त्र पहनकर, गले में माला लटका कर, मस्तक पर बड़ा-सा त्रिपुण्ड लगाकर आश्रम में निवास करने वाले व्यक्ति के जीवन को धार्मिक जीवन कदापि नहीं कहा जा सकता।_

        धार्मिक वह है जिसने धर्म के मर्म को आत्मसात् कर लिया है अपने अन्तराल में, धर्म के मापदंडों को जीवन में उतार लिया है। सारा व्यक्तित्व उसका धर्ममय हो गया है।

        उसके लिए यह जीवन और जगत उस परमपिता परमेश्वर का लीला- स्थल बन गया है। वह व्यक्ति धार्मिक है, वही धर्म के मर्म को समझता भी और दूसरे को भी समझा सकता है।

     जहाँ तक अध्यात्म का प्रश्न है, वह इसी धर्म से सम्बंधित है। मात्र धार्मिक कर्म-काण्ड से सच्चे ज्ञान अर्थात्–आन्तर्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। धार्मिक कर्म-काण्ड तो अधिकतर भौतिकवादी सीमा के अन्तर्गत आते हैं।

       आन्तर्ज्ञान अर्थात् अध्यात्म की प्राप्ति के लिए हमें धार्मिक कर्म-काण्ड के सांसारिक बंधनों से बाहर निकल कर सच्चे ज्ञान की तलाश करनी होती है जिसे आन्तर्ज्ञान कहते हैं, वह तभी प्राप्त होता है जब मस्तिष्क को पूरी तरह एकाग्र कर लिया जाय।

      ध्यान ही हमें अपने मस्तिष्क को एकाग्र और केंद्रित करने की क्षमता प्रदान करता है। विभिन्न धर्मों में ध्यान के अलग-अलग मार्ग बतलाये गए हैं लेकिन सभी का उद्देश्य समान होता है। उसमें मन और मस्तिष्क को एक बिन्दु पर केंद्रित किया जाता है और उसके बाद एक स्थिति ऐसी आती है जब मन-मस्तिष्क से वह बिन्दु भी ओझल हो जाता है जिस बिन्दु पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

        इसी प्रक्रिया को बढ़ाते हुए अभ्यास गहन-से- गहन किया जाता है। तभी एक ऐसी अवस्था फलीभूत होती है जब मस्तिष्क शून्य में पहुँच जाता है अर्थात्–विचार, भाव, मन का नामो-निशान मिट जाता है। मन गिर जाता, छूट जाता है। मन की एक सीमा होती है। वह आत्मा का साथ वहीँ तक दे सकता है, जितनी उसमें सामर्थ्य है।

         मन के तिरोहित हो जाने पर ही आत्मा के सामर्थ्य का विस्तार होने लगता है और तभी होता है आन्तर्ज्ञान का उदय। यह ज्ञान अपने आप में सब कुछ समेट लेता है व्यक्ति को भी परमात्मा को भी। यह ज्ञान व्यक्ति की आत्मा से लेकर परमात्मा, अखिल ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर के अनन्त अस्तित्व से उसको जोड़कर एक माला की कड़ियों की तरह सब कुछ  अपने में पिरो लेता है।

      यही वह अनोखा क्षण होता है जब परमात्मा की असीम कृपा की आवश्यकता होती है जिसके फलस्वरूप आत्मा का परमात्मा में विलय हो सकता है, निर्वाण या कैवल्य प्राप्त हो सकता। भगवान् का साक्षात्कार हो सकता है। क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में अनेक ऐसे भक्त, साधक, सिद्ध, योगी और तान्त्रिक समर्थ होते हुए भी एक लम्बी पंक्ति में परमात्मा के साक्षात्कार के लिए खड़े इंतज़ार कर रहे हैं कि कब उस परमात्मा की अहेतु की कृपा उपलब्ध हो और कब उन्हें मोक्ष या निर्वाण उपलब्ध हो।

वह अहेतु की कृपा तभी होगी जब उनके भीतर भौतिकता का एक कण भी शेष नहीं रहेगा, जब सारा का सारा अहम् मिट जायेगा। साधना- काल की गहराइयों में स्वतः मिलने वाली अनेक सिध्दियां भी मिट जाएँगी। सिद्धियां भी आत्मा-परमात्मा के मिलन में बाधक बन जाती हैं।

       व्यक्ति के पास जब आत्मा के आलावा कोई दूसरा कोई तत्व नहीं बचता, तभी वह पत्मात्मा के साथ साक्षात्कार का अधिकारी बनता है क्योंकि आत्मा के आलावा उसके आगे का कोई तत्व है तो वह है परमात्मा। फिर  बचती है उस परम पिता की इच्छा। उसकी इच्छा होने पर ही परमात्मा से साक्षात्कार सम्भव है।

       एक बात और, सही मायने में अध्यात्म के मार्ग को अपनाने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह विज्ञान पर आधारित सांसारिक सुविधाओं का त्याग करदे। भौतिक संसाधनों का उपयोग ही न करे। परन्तु जो अध्यात्म के मार्ग पर चल जाता है, वह किसी मोह-माया में बिना पड़े सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए परमात्मा की कृपा से आन्तर्ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है और शेष जीवन वह उसी का प्रसाद समझता है।

        वह जो कछ करता है, उसमें वह उसी की इच्छा मानता है। यही पूर्ण समर्पण है और है समर्पण का जीवन।

      योग हमें ऐसे जीवन को जीने की प्रेरणा देता है जो ईर्ष्या, द्वेष, झूठ, बेईमानी, काम, क्रोध, लोभ, स्वार्थ आदि विकारों से रहित हो। सादगी, सच्चाई से परिपूर्ण विकाररहित जीवन व्यक्ति को सच्चा ज्ञान अर्थात्–आन्तर्ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है।

*ध्यानपथ से आत्मयात्रा की यात्रा :*

        प्राणायाम और ध्यान से हमारे प्राणमय कोष और मनोमय कोष सक्रिय और ऊर्जावान बनते हैं। प्राणायाम से प्राणमय (सूक्ष्म) शरीर ऊर्जावान बन कर उसमें विद्युत् का संचार हो जाता है।

       इसी प्रकार ध्यान से मन-मस्तिष्क की सारी शक्तियां जागृत हो जाती है। मस्तिष्क का जो प्रसुप्त भाग है वह काफी अंशों में जागृत हो जाता है।और अलौकिक शक्तियों का स्रोत बन जाता है।

     भगवान बुद्ध द्वारा बताई गयी ध्यान की विधि (आना’पान’सति) एक ऐसी विधि है जिसमें अपने श्वास और प्रश्वास पर ध्यान लगाना पड़ता है। इस प्रक्रिया में प्राणायाम और ध्यान–दोनों की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।

      जितनी मात्रा में हम प्राण ऊर्जा जलाएंगे, उतना ही हमारा जीवन गतिमान होगा। हमारा शरीर स्वस्थ और निरोगी होगा।

       एक वर्ष में जितना हम साँस लेते हैं, उतना साँस हम एक महीने में लेने लगेंगे। तो हमारी यात्रा आत्मा की ओर होने लगेगी। देह-बोध कम होने लग जायेगा। आत्मा का बोध अधिक-से-अधिक होने लगेगा।

       श्वास-प्रश्वास पर जितना हमारा ध्यान प्रगाढ़ होगा, उतनी ही जल्दी हमें इस दिशा में सफलता मिलेगी। सबसे पहले ऑक्सीजन की आवश्यकता कम होती जाएगी। हम श्वास-प्रश्वास कम लेने लगेंगे। अन्त में एक ऐसी अवस्था आजायेगी कि देह-बोध बिलकुल समाप्त हो जायेगा। आत्मा के अस्तित्व का पूर्णरूप से अनुभव होने लगेगा और साँस लेने की आवश्यकता भी समाप्त हो जाएगी। इसी अवस्था का नाम है–समाधि।

        वास्तव में,ऑक्सीजन की आवश्यकता हमारे शरीर को है, हमारी आत्मा को नहीं। जहाँ श्वास-प्रश्वास की आवश्यकता समाप्त हुई, उसी क्षण हम आत्मबोध को पूर्णतया उपलब्ध हो जायेंगे।

     श्वास-प्रश्वास की आवश्यकता समाप्त होने पर क्या शरीर मृत नहीं हो जायेगा ?

    नहीं, शरीर में जीवन-तत्व सक्रिय रहता है। मस्तिष्क भी सक्रिय रहता है। ऐसी स्थिति में शरीर के मृत होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।

  *समाधि में अनुभव :*

    अस्तित्व का बोध। जब तक जीवन का बोध है, तब तक अस्तित्व का बोध संभव नहीं। अस्तित्व का अर्थ है–आत्मा। जीवन की सीमा जहाँ समाप्त हो जाती है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व है। जो वस्तु जीवन के पश्चात् होगी, वह मृत्यु के भी पश्चात् होगी।

        जब हम समाधि में जीवन की सीमा को पार कर लेते हैं, तभी अपने अस्तित्व का बोध होता है और प्राप्त होता है इन तीन प्रश्नों के उत्तर–मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ?और मैं कहाँ जाऊंगा ?

*प्राण पर विजय, प्रकृति पर विजय :*        

        शरीरस्थित चक्र जागृत हो कर सक्रिय हो जाने और उनमें शक्ति के जागरण हो जाने का उद्देश्य क्या है ?

       जीवन के लिए दो चीजें अनिवार्य हैं–भोजन और निद्रा।

 इन दोनों चीजों की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है सर्वप्रथम।

यह पहला उद्देश्य है। बौद्धयोग की जो प्रथम साधना है, उसका एक लक्ष्य है–भोजन और निद्रा पर विजय प्राप्त करना और उस प्रथम साधना का नाम है–‘आनापानसति साधना’ इस साधना के प्रारम्भ में गहरा श्वास लेने का अभ्यास किया जाता है और फिर श्वास पर मन को एकाग्र किया जाता है।

       बौद्धयोग हो या कोई भी योग हो सभी का सर्वप्रथम एकमात्र लक्ष्य है–जीवन पर विजय प्राप्त करना। यह तभी संभव है– जब हम भूख और निद्रा पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।

   *स्वास्थ्य पर प्रभाव :*

      शरीर स्वस्थ रहे–इसके लिए आहार चाहिए और वह आहार प्राण से उपलब्ध हो रहा है योगी को। अन्नाहार, फलाहार, दुग्धाहार, मांसाहार आदि जितने भी आहार हैं, उन सभी के तत्व प्राणाहार में मौजूद रहते हैं–इसलिए अस्वस्थ होने का कोई प्रश्न ही नहीं है।

      जीवन-तत्व पर विजय प्राप्त करते ही शरीर में सोई हुई शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं जिसका परिणाम है–‘योगेश्वर्य’ की उपलब्धि।

*प्रकृति की समीपता आवश्यक :*

      योग-साधना के लिए एकान्त वातावरण और प्रकृति की समीपता आवश्यक है। सच्चा साधक और योगी भीड़-भाड़ में नहीं रहते। इसका कारण है और वह यह कि जहाँ मनुष्य अधिक होंगे, वहां ऑक्सीजन की मात्रा कम और कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है।

        इसीलिए हम भीड़ में घबराते हैं, बेचैन होने लगते हैं और एक प्रकार की मूर्च्छा छाने लगती है हम पर, ऊबने लगते हैं, पसीना छूटने लगता है, जम्हाई आने लगती है। आपने प्रायः देखा होगा कि जब हम रात को अधिक समय तक जागरण करते हैं तो नींद के घेर लेने के कारण जम्हाई आने लगती है।

      जम्हाई आना शरीर में ऑक्सीजन की कमी और कार्बन डाई ऑक्साइड की अधिकता का संकेत है। ऑक्सीजन की कमी से हमारे शरीर की शक्तियां मूर्छित होने लगती हैं।

      हम प्रातःकाल जब सोकर उठते हैं तो अपने आप में एक विशेष प्रकार की स्फूर्ति या ऊर्जा अनुभव करते हैं क्योंकि सूर्योदय के समय ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ चुकी होती है।

      समुद्र या नदी के तट पर, प्रकृति के सुरम्य वातावरण में, बाग-बगीचे में, पहाड़ और जंगल में हम अपने आप में प्रफुल्लता और स्फूर्ति का अधिक-से-अधिक अनुभव करते हैं क्योंकि वहाँ ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है।

*शक्ति जागरण का अनुभव :*

     अपने भीतर ऑक्सीजन की मात्रा बढाने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि सोई हुई शक्तियाँ जागृत हों। शक्ति जागृत हो रही है या हुई है– इसका ज्ञान या अनुभव हमें तभी होगा जब हम अधिक-से-अधिक तीव्रता से मन को स्थिर कर श्वास-प्रश्वास लेंगे।

        तभी हमें अपने शरीर के भीतर परिवर्तन का अनुभव होगा और ऐसा प्रतीत होगा कि कोई सोई हुई शक्ति अचानक जागृत हो गयी है। श्वास-प्रश्वास के तीव्र संक्रमण से हमें अपने भीतर की स्थिति में अन्तर स्पष्ट पता चलने लगेगा। हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि हमारी चेतना, हमारा व्यक्तित्व, हमारी आत्मा विकसित हो रही है।

       मन, प्राण और हमारी आत्मा जो अब तक एक सीमा में बन्धी हुई थी, वह उस सीमा को तोड़कर ऊंचाई पर उठ रही है।

       इसी के साथ हम इस सांसारिक जीवन और जगत से निरपेक्ष होने लग जाते हैं। उदासीन और तटस्थ होने लग जाते हैं। हमारे जीवन में प्राण अर्थात् ऑक्सीजन का सर्वाधिक महत्व है। हम जितनी तीव्रता से और जितनी गति से श्वास-प्रश्वास लेंगे, उतनी तीव्रता से हम आत्मा के समीप पहुंचेंगे और उसका अनुभव भी करेंगे।

      हमें ज्ञात होना चाहिए कि शरीर और आत्मा में अत्यधिक अंतर है। हमारे व्यक्तित्व का एक प्रकार से मृत भाग है हमारा शरीर और तभी वह दृष्टिगोचर हो रहा है कि वह ठोस है, तरल नहीं और इसके विपरीत हमारे व्यक्तित्व का जो भाग तरल है, ठोस नहीं है, वह है–आत्मा। बस, शरीर और आत्मा में  इतना ही अंतर है और इस सूक्ष्म अंतर को हम तभी समझ पाएंगे जब हम अधिक से अधिक  प्राणवायु (ऑक्सीजन) ले सकेंगे।

      देह-बोध धीरे-धीरे कम होता जायेगा और आत्मबोध धीरे-धीरे बढ़ता जायेगा। योग के जितने लक्ष्य हैं, उनमें एक यह भी है। योग विज्ञान के इस सिद्धांत को आज के वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार कर लिया है कि जीवन प्राण-ऊर्जा के जलने का नाम है। जब तक प्राण-ऊर्जा अग्नि की तरह जल रही है तब-तक जीवन है।

       जहाँ भी जीवन है, वहां प्राण ऊर्जा का प्रज्ज्वलन है, चाहे वह जीवन पशु-पक्षी का हो, चाहे पेड़-पौधे का हो। जितनी मात्रा में प्राण-ऊर्जा को जलाएंगे, उतना ही हमारा जीवन गतिमान होगा और हम निरोग, स्वस्थ, और स्फूर्तिमय होंगे.

*अनाहत नाद पर ध्यान :*

       यह जगत् परमपिता परमेश्वर की कृति है । वह घट-घट में वास कर रहा है । सारा संसार उसकी शक्ति से गतिशील है । उसकी सत्ता का आभास हर वस्तु में किया जा सकता है । 

         नदी की कलकल में, पक्षियों की चहचहाट में, वायु की सांये-सांये में तथा मनुष्य के शरीर में एक संगीतमय नाद सुनाई देता है जिसे अनाहत नाद कहते हैं । अर्थात् जो बिना आहत, बिना रुकावट, अनवरत चलता रहता है । इस पर ध्यान लगाने से मन को शान्ति मिलती है ।

चन्द्रमा पर पहुँचने वाले प्रथम मानव नील आर्मस्ट्राँग ने चन्द्र की सतह पर एक संगीतमय निनाद सुना था जिससे वे आनन्द विभोर हो गये । 

       अन्तरिक्ष में गमन करने वाले वैज्ञानिकों ने अन्तरिक्ष में एक विशेष नाद का श्रवण किया है। नासा ने भी सूर्य से निकलने वाली ध्वनि को रिकार्ड किया है जो ओ३म् की ध्वनि से मिलती है। 

         वेदों में अन्तरिक्ष में संगीतमय निनाद का वर्णन मिलता है। पाश्चात्य कवियों ने इस निनाद को Music of the Spheres (अन्तरिक्ष संगीत) कह कर बखान किया है । 

        बाईबल में भी कहा गया है :

In the beginning was the Word and the Word was with God and the Word was God (John 1.1).

अर्थात् सृष्टि के आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, शब्द ही ईश्वर था ।

        वैज्ञानिकों की खोज एवं अनुसंधान के अनुसार, अभी भी सृष्टि-सृजन (Big Bang) के समय का नाद संसार में गूँज रहा है जिसे वे Cosmic Background Radiation (अन्तः ब्रह्माण्डीय विकिरणन) कहते हैं। इस कम्पन/गूँज की तरंगों के कारण अन्तरिक्ष के तापमान में तीन डिग्री का उतार-चढ़ाव मापा गया है ।

परमात्मा की दिव्य वाणी, रेडियो स्टेशन से आकाश में फैलती ध्वनि तरंगों की तरह, हर स्थान पर निरन्तर प्रसारित हो रही है। जैसे रेडियो स्टेशन से प्रसारित होती आवाज़ को कोई भी ट्रांजिस्टर या रेडियो जो उस तरंग-सारिणी से समन्वित (attuned to the frequency) है, पकड़ लेता है, इसी प्रकार हमारी बुद्धि रिसीविंग स्टेशन की तरह से है।

    यदि हमारा अन्तः करण परमात्मा से तदात्म्य (attuned) है, तो हम उसकी दिव्य वाणी जिसे दिव्यनाद कहते हैं, पकड़ सकते हैं। अतः हमें इस संगीतमय अनाहत नाद का श्रवण करना चाहिये । 

‘सर्वचिन्तां परित्यज्य अनाहतं समाचरेत.’

अर्थात् साधक सभी चिन्ताओं से मुक्त हो कर अनाहत-नाद का ध्यान करे । 

       प्रकृति में अनाहत नाद तभी सुनाई दे सकता है जब मन को शान्त कर, जीवन को यज्ञमय बना कर, ईश्वर के विधान के अनुरूप, अपना जीवन जिया जाए। तभी शुद्ध अन्तःकरण से इस दैवी नाद के आनन्द का रसास्वादन किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

    ओ३म्’ ईश्वर का वाचक है। इसी शब्द की महिमा सब ग्रन्थों में मिलती है. सृष्टि में सुनाई देने वाले नाद के अनुरूप ‘ओ३म्’ का लयबद्ध जाप करना चाहिये.

*इनकी भी सुन लें :*

1) अक्षरो परमोनाद: शब्दब्रह्मेति कथ्यते।

   –– योगशिखा-उपनिषद्

यह शाश्वत महान् नाद है जिसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं।

2) तेरे ही हंसने की धुन में नदियां,

निनाद करती ही जा रही हैं।

   — जयशंकर प्रसाद

3) यदि कोई दु:खी मनुष्य कल-कल करती नदी या झरने के किनारे बैठे, वह अपना दु:ख भूल जाएगा। उस झरने में, उस नदी-प्रवाह में इतनी शक्ति कहां से आई? परमेश्वर की शक्ति उससे प्रकट हुई है।

    — विनोबा भावे

4) We are not sensitive to the overtones of the Reality that hums around us.

  — Will Durant

हम उस सत्ता की ध्वनि के प्रति संवेदनशील नहीं , जो हमारे आसपास गुंजायमान हो रही है।

      — विल ड्यरां

5) The subtle melody of universal life is eternal and constant, yet only those who are in consonance with it can perceive it.

   —  Lao Tzu

विश्वव्यापी चेतना का संगीत शाश्वत एवं एकरस है, इसकी अनुभूति केवल वही कर सकते हैं जो इससे तदात्यम में है।

     — लाओ ज़ू

6) May brooks and trees and singing hills join in chorus too,

And every gentle wind

that blows send happiness to you.

     –– Irish Blessings

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