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*मिथकीय कथनों में हक़ीक़त का अन्वेषण*

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       ~ पुष्पा गुप्ता 

मिथक इतिहास नहीं है. इसके लिए आपको तथ्यों की तलाश करनी पड़ती है. जब धरती पर मनुष्य नहीं था, तब उसके इतिहास की शुरुआत भी नहीं हुई थी. सबसे पहले मनुष्य ने खेती करना शुरू किया और इसी के साथ उसका विकास भी हुआ.

      मानव सभ्यता का विकास नदी के किनारे हुआ क्योंकि वहां उसे खेती के लिए जरूरी संसाधन नदियों के कारण उपलब्ध हुआ. अग्नि व पहिया के आविष्कार से विकास को और गति मिली.

      यह स्थापना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के इतिहास विभाग के प्रोफेसर रह चुके डाॅ. महेश विक्रम की है. सिगरा स्थित चाइल्ड लाइन में “भारतीय इतिहास : मिथक व यथार्थ” विषय को खंगालते हुए उन्होंने कई तथ्यों की तरफ इशारा किया.

       मसलन उन्होंने यह रेखांकित किया कि खेती का आविष्कार स्त्रियों ने किया. कहा कि पुरूष शिकार करते थे और उसके पीछे-पीछे भागते हुए दूर चले जाते थे. इधर, गुफ़ा में अकेले उनकी स्त्रियां रह जाती थीं. जबकि उनके साथी पुरूष को सूर्यास्त के कारण वापस आने में अक्सर देर हो जाती थी.

      इस बीच किसी स्त्री ने अपनी गुफ़ा के पास किसी बीज को अंकुरित होते हुए देखा होगा, जिससे उसके मस्तिष्क में बीजों को अंकुरित करने का ख्याल आया होगा.

यह प्रोफेसर विक्रम का अनुमान हो सकता है. सवाल यह है कि क्या अनुमान के सहारे हम मिथक में ऐतिहासिक तथ्यों को खोज सकते हैं ? शायद हां..! चूंकि तब भाषा का विकास नहीं हुआ था तो सिर्फ अनुमान के सहारे ही हम सच की तलाश कर सकते हैं. 

      उनका मानना था कि बिना राजसत्ता के समर्थन के धर्म व संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं किया जा सकता है. यह सच है. इसके अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं. संभव है कि प्रचीनकाल में कोई ऋषि जंगल में तपस्या कर रहे हों और यज्ञ के दौरान उनका वहां के मूल निवासियों से विवाद हुआ होगा.

       फिर वह राजा के पास गुहार लगाए और राजा उनके समर्थन में अपनी सेना लेकर चल दिए. ऐसे अनेक मिथक इतिहास को खंगालने पर मिल जाएंगे. इससे यह साबित होता है कि धर्म का प्रचार राजसत्ता की मदद से होता है.

       चंद्रगुप्त के समय में चाणक्य को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि चाणक्य एक महान अर्थशास्त्री था. बाद में अशोक ने बौद्धधर्म को स्वीकार कर लिया और उसका प्रचार-प्रसार भी कराया. लेकिन उनकी इस मान्यता को एक श्रोता ने खारिज करते हुए चाणक्य की ऐतिहासिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया.

       उसका कहना था कि सम्राट अशोक के समय तक संस्कृत भाषा का विकास ही नहीं हुआ था तो चाणक्य ने संस्कृत में अपना ग्रंथ कैसे लिखा ? क्योंकि अशोक के जितने शिलालेख मिले हैं, उसमें संस्कृत में कोई संदेश नहीं है. ब्राह्मी लिपि या पाली का जिक्र मिलता है लेकिन संस्कृत भाषा का नहीं.

मिथक में इतिहास की तलाश करते करते बात भाषा विज्ञान तक पहुंच गई. संस्कृत में वेद, उपनिषद व पुराण की रचना का काल क्या है ? यह एक गंभीर सवाल है.

     बहस को उलझता देख संगोष्ठी के आयोजक मनीष शर्मा ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि सवाल अनेक प्रकार के पैदा होंगे और हमारी कोशिश होगी कि उसका जवाब खोजा जाए. उनका कहना था कि इस तरह की गोष्ठियां आगे भी जारी रहेंगी.

       वैसे अपनी टिप्पणी में प्रोफेसर महेश विक्रम ने कई मिथकों को रेखांकित करते हुए वर्तमान परिवेश की तरफ भी इशारा किया और अपनी बातें रखीं. उन्होंने एक सार्थक विमर्श की शुरुआत की है.

     शहर में वैचारिक स्तर पर व्याप्त सन्नाटे के बीच यह एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है और इस तरह की बहसों की आज बहुत जरूरत है.

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