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ईरानी स्त्रियों का प्रतिरोध आन्दोलन ,मुख्य प्रश्न आजादी का है

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सवाल हिजाब पहनने और न पहनने का नहीं है. सवाल यह भी नहीं है कि ईरान की स्त्रियाँ क्यों हिजाब पहनने के खिलाफ आंदोलनरत हैं, वहीं भारत में मुस्लिम स्त्रियां क्यों हिजाब पहनने का अधिकार चाहती हैं? मुख्य प्रश्न आजादी का है. क्या किसी देश के नागरिक को यह आजादी होनी चाहिए कि नहीं कि वे क्या खाएं-पीएं और क्या पहने-ओढ़ें. खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने और हंसने-बोलने का अधिकार हमारा नैसर्गिक अधिकार है और हमारे नैसर्गिक अधिकारों पर राज्य को किसी भी तरह का प्रतिबंध लगाने का कोई अधिकार नहीं है. इन पर राज्य द्वारा नियंत्रण करना या प्रतिबंध लगाना उसी तरह है जैसे  सांस लेने पर प्रतिबंध लगाना. अगर जीना हमारा प्राकृतिक या नैसर्गिक अधिकार है तो यह भी हमारा नैसर्गिक अधिकार है कि हम क्या खाएं, क्या पीएं, क्या पहनें और क्या ओढ़ें? इस अर्थ में ईरान की स्त्रियों का हिजाब पहनने के खिलाफ आंदोलन भी जायज है और भारत की मुस्लिम स्त्रियों का हिजाब पहनना भी जायज है. कारण, दोनों ही मूलतः नैसर्गिक आजादी का मामला है. न तो ईरान के आंदोलन की नजर से भारतीय मामले को देखा जा सकता है और न ही भारतीय नजरिए से ईरान के मामले को. दोनों ही देशों की महिलाओं को पहनने या न पहनने की आज़ादी मिलनी चाहिए.

*राम अयोध्या सिंह*

*स्त्री मुक्ति लीग

आज के पूंजीवादी दौर में भले ही तमाम तरह की आजादी और समानता की बात की जा रही हो परंतु ‘स्त्री मुक्ति’ का प्रश्न आज भी एक गंभीर सवाल के रूप में मौजूद है। धार्मिक रुढ़ियों, मान्यताओं और नैतिकता के बहाने स्त्री आजादी का बर्बरता और क्रूरता से हनन का एक और मामला सामने आया है। ईरान में ठीक से हिजाब ना पहनने को लेकर गिरफ्तार हुई 22 साल की महासा अमीनी की पुलिस कस्टडी में रखने के दौरान तबीयत बिगड़ी और अस्पताल में 3 दिनों तक इलाज के बाद 16 सितंबर को उसकी मौत हो गई। पुलिस व मंत्रालय की तरफ से यह बताया गया कि पूछताछ के दौरान हार्ट अटैक आने से उसकी मौत हुई है जबकि घर वालों का साफ कहना है कि महासा को दिल से संबंधित कोई समस्या पहले कभी हुई ही नहीं। वहीं अस्पताल की एक फोटो पर उसके चेहरे, गर्दन व हाथों में मारपीट के निशान पाए गए। इस घटना पर राजधानी तेहरान समेत देश के कई हिस्सों में महिलाएं सड़कों पर उतर कर हिजाब फेंककर और बाल काट कर अपना विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। ‘तानाशाही मुर्दाबाद’ के नारे लगाए जा रहे हैं। ईरान जैसे देश में जहां हिजाब पहनने पर सख्त कानून होने के बावजूद महासा के समर्थन में महिलाएं हिजाब उतारकर, उन्हें जलाकर अपना विरोध जता रहीं हैं। इस विरोध प्रदर्शन में हजारों की संख्या में महिलाएं जमा हो गई, जिससे वहां तैनात सुरक्षाकर्मियों को उन्हें रोकने के लिए फायरिंग और आंसू गैस का सहारा लेना पड़ा।

ईरान में स्त्रियों की स्थिति काफी दयनीय है, महिलाओं को अधिकार के नाम पर मिलती है तो सिर्फ बंदिशें! कानून के नाम पर सड़ी गली पिछड़ी मानसिकता और तमाम रुढ़िग्रस्त मान्यताएं और नियम मौजूद है। वहां महिलाओं का अकेले घूमना, मेकअप करना, नेल पॉलिश लगाना, गीत गाना हिजाब ना पहनना, बुर्का ना लगाना आदि अपराध की श्रेणी में आता है और ऐसे सख्त कानून केवल स्त्रियों के लिए ही लागू किए गए है। इनको ना मानने पर उन्हें सजा के तौर पर जबरन जेल भेजना, जुर्माना लगाना, कोड़े मारने जैसी निर्मम सजाएं दी जाती है व उनके साथ पाशविक व्यवहार किया जाता है। ऐसे देशों में धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा स्त्रियों पर धर्म और नैतिकता की आड़ में उनके सामान्य जीवन जीने के अधिकार पर हमला बोला जाता है, हर चीज पर पाबंदियां लगा दी जाती है।

आप सोच कर देखिए की महासा ने ऐसा क्या गुनाह किया था? उसे किस बात की सजा मिली? बस यही कि उसने ठीक से हिजाब नहीं पहना था। ईरान सरीखे देशों में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। यहां धार्मिक कट्टरपंथी प्रशासन के साथ मिलकर धर्म के नाम पर खोखले नियम कानून बनाते है और उसे निर्मम तरीके से स्त्रियों पर जबरन लागू करवाते है। और अगर कोई उसका विरोध करता है या सामान्य तौर पर ऐसी पिछड़ी मानसिकता से आजादी चाहता है तो उनके साथ उसी बर्बरता से पेश आया जाता है जैसा कि महासा के साथ हुआ‌। अपनी मर्जी से कपड़े पहनने की बस इतनी सी चाह उसकी जिंदगी पर भारी पड़ गई। सवाल यह है कि ऐसी धार्मिक कट्टरवादी मानसिकता आए दिन न जाने कितनी स्त्रियों के जीवन जीने के अपने निजी तरीकों, अपनी आजादी, अपने सपनों का गला घोंटने को विवश करती है। महासा की मौत सिर्फ मौत नहीं बल्कि धार्मिक कट्टरपंथ के पैरों तले रौंदे हुए जिंदगी की हत्या है। 

ऐसी मार्मिक घटना सत्ता की तानाशाही व धार्मिक कट्टरपंथीयों की बर्बरता का प्रमाण है जो स्त्रियों की आजादी का हनन करती है, लगातार उसका शोषण करती हैं और इतने से भी मन ना भरे तो पाशविक व्यवहार तक करने से नहीं चूकती। ऐसी पाशविकता कि उसकी जान तक चली जाए! देश और दुनिया के हर कोने में स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है लेकिन ईरान की यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है। हम एक ऐसे समय समाज में रह रहे हैं जहां किसी देश में स्त्रियों को अपनी मर्जी से कपड़े तक पहनने की आजादी नहीं है मानो वह कोई इंसान नहीं महज़ आज्ञा मानने वाला एक शरीर हो। ईरान की यह घटना एक ऐसे बंद समाज और उसकी पिछड़ी मानसिकता को दर्शाती है जहां 7 साल की उम्र से लड़कियों व महिलाओं को हिजाब पहनना अनिवार्य है। भारत में भी कट्टरपंथी फासीवादी ताकतों के सत्ता में आते ही स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं ने और जोर पकड़ा है। सोचिए धर्म के आधार पर कपड़े पहनने, कहीं आने-जाने की पाबंदी केवल स्त्रियों के लिए ही क्यों? मानवीय अधिकारों का ऐसा हनन केवल स्त्रियों के साथ ही क्यों? स्त्रियों के उत्पीड़न के कई मामले कई रूपों में आज के समस्त देशों में देखे जा सकते हैं, जो यह दर्शाता है कि पूरी दुनिया में कमोबेश स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानकर हमेशा उनका बर्बरता के साथ शोषण व उत्पीड़न किया जाता रहा है।

‘स्त्री मुक्ति लीग’ इस अमानवीय घटना का विरोध करती है एवं तात्कालिक तौर पर यह मांग करती हैं कि हिजाब के सख्त कानून को लेकर कोई ठोस कदम उठाया जाए। साथ ही स्त्रियों को कपड़े पहनने व रहन सहन की आजादी हो इसके लिए संघर्षरत है। महासा के समर्थन में तेहरान समेत अन्य देशों में महिलाओं द्वारा हिजाब उतार फेंकने और बाल काटने के जरिए किए जा रहे विरोध प्रदर्शन का हम समर्थन करते है। सड़कों पर अपनी आवाज बुलंद करने के साथ ही आज जरूरत है एक ऐसे स्वस्थ समाज की नींव रखने की जो समानता और न्याय पर आधारित हो। जहां स्त्रियों को इंसानी दर्जा दिया जाए, जहां उनकी आजादी का हनन ना हो, जहां स्त्रियों को गुलाम बनाए रखने और केवल उपभोग करने की वस्तु न समझा जाए। और वर्तमान व्यवस्था में यह संभव नहीं। आज धार्मिक कट्टरपंथी इतने बड़े पैमाने पर सक्रिय है जिससे स्त्रियों का शोषण और उन पर हो रहे अत्याचार को मनमाने ढंग से अंजाम देना आसान हो गया है। जरूरत है इस व्यवस्था को बदलने की और इसके लिए मिलकर सड़कों पर उतर कर संघर्ष करने की।

*स्त्री मुक्ति लीग*

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