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जीवन सत्य है या मृत्यु? निःशुल्क लें सत्य का अनुभव 

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      डॉ. विकास मानव 

जीवन सत्य है या सिर्फ़ मृत्यु : इसका निर्णय करना सर्वसाधारण के वश की बात नहीं है.

    सत्य एक होता है। यदि हम विचार पूर्वक देखें तो पता चलेगा कि मृत्यु असत्य है। उसके जैसा असत्य दूसरा नहीं है। संसार में रहकर सच्चे अर्थों में वही व्यक्ति जीवित रह सकता है और सच्चे अर्थो में जीवन का आनंद ले सकता है जिसने मृत्यु को भी जीवन समझ लिया है। 

    ऐसा व्यक्ति लाखों में कोई एक होता है और जो होता है वह ही सच्चा योगी और सच्चा महात्मा होता है। संसार में कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा जो किसी न किसी रूप में मृत्यु से भयभीत न हो। किसी न किसी रूप में मृत्यु को भुलाये रखने रखने की चेष्टा न करता हो। मृत्यु का किसी भी प्रकार स्मरण न हो–इसके लिए व्यक्ति ने बहुत सारी व्यवस्था कर रखी है।

    नृत्य, संगीत, गायन, आनंद से भरे आयोजन उसी व्यवस्था का अंग हैं। नगर के बाहर, गाँव के बाहर दूर कहीं किसी नदी के किनारे मरघट बनाना, श्मशान बनाना, वहां चिता जलाना उसी व्यवस्था का एक रूप है। 

    रोज़ किसी न किसी की मृत्यु होती है। कोई न कोई शरीर को छोड़ कर इस संसार से विदा होता ही है और तभी व्यक्ति जानता है और समझता है कि उसकी भी कभी न कभी मृत्यु होगी। श्मशान में उसका भी शव चिता में जलेगा। किसी की मृत्यु होती है तो व्यक्ति दुःखी होता है, शोक से विह्वल होकर रोता है लेकिन यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वह व्यक्ति किसी की मृत्यु पर ही रो रहा है, वास्तव में वह अपनी भावी मृत्यु भी पर रो रहा है।

   दूसरे की मृत्यु में उसकी मृत्यु की सम्भावना प्रकट हो गई होती है। वह सोचता है कि उसकी भी मृत्यु इसी प्रकार से होगी और लोग उसकी मृत्यु पर भी इसी प्रकार रोयेंगे।

मनुष्य को सोचना चाहिए कि प्रत्येक मृत्यु उसकी अपनी मृत्यु है। यदि मनुष्य मृत्यु को सदैव याद रखे तो उसे अपना जीवन इतना सुन्दर और आनंदवर्धक लगेगा कि उसकी तुलना नहीं की जा सकती। मानव जीवन में जितने दुःख हैं, जितने कष्ट हैं, उन सबका कारण है–जीवन और मृत्यु को एक साथ पकडे रखना। दोनों को सत्य समझना।

    कितना भारी भ्रम है यह ! यदि जीवन सत्य है तो मृत्यु कदापि सत्य नहीं हो सकती। यदि मृत्यु को सत्य मान लिया जाय तो जीवन सपना-सपना-सा लगेगा। लेकिन मनुष्य दोनों को पकड़ कर चलता है और यही कारण है कि उसे लगता है कि वह जीवित है और साथ ही ऐसा लगता है कि वह मरा हुआ है। 

    तात्पर्य यह है कि जीवन और मृत्यु दोनों का एक साथ अनुभव करता है वह। इसीलिए ठीक से वह न जी पाता है और न ठीक से वह मर पाता है। सच पूछा जाय तो जीवन एक कला है और मृत्यु भी एक कला है। दोनों कला हैं। जो मनुष्य उन दोनों कलाओं को अच्छी तरह जानता है और समझता है–वही सच्चे अर्थों में जीता है और वही सच्चे अर्थों में मरता भी है।

जीवन की धारा कभी टूटती नहीं मनुष्य अपने शरीर से अपनी आत्मा को अलग करना जान जाय–इसी का नाम समाधि है। वास्तव में ध्यान और समाधि शरीर को आत्मा से अलग करने की एक यौगिक कला है। इस कला द्वारा मनुष्य शरीर और आत्मा अलग-अलग जान-समझ सकता है।

     शरीर क्या है और आत्मा क्या है ? समाधि में इन दोनों का ज्ञान अलग-अलग होता है। दोनों की भिन्नता समझ में आती है। दोनों का महत्व समझ में आता है। समाधि में मृत्यु से जब साक्षात्कार होता है तो मनुष्य को पहली बार यह समझ में आता है कि मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व पूर्ववत है।समाधि का बस एक मात्र यही अर्थ है कि स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश करना और लौटना तो उसके अनुभव को लेकर लौटना।

      वास्तव में मृत्यु के बाद जो अनुभव होता है वह जीते जी समाधि से प्राप्त हो जाता है। मृत्यु और समाधि में बस इतना ही अंतर है कि मृत्यु में शरीर से आत्मा अलग हो कर पुनः शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती जबकि समाधि की अवस्था में शरीर से आत्मा जैसे निकलती है, वैसे ही शरीर में प्रवेश भी करती है।मनुष्य की मृत्यु न जाने कितनी बार हुई है।

     उसका जन्म भी न जाने कितनी बार हुआ है लेकिन जन्म और मृत्यु–इन दोनों अवस्थाओं में वह मूर्छित ही रहता है। इसी कारण वह दोनों के अनुभवों से वंचित रह जाता है।

     मृत्यु का अनुभव आवश्यक है। जीवन-काल में ही मृत्यु के अनुभव को प्राप्त कर लेने का अर्थ है–मृत्यु के भय से मुक्ति और मृत्यु के बाद के जीवन पर विश्वास। जो मृत्यु के अनुभव को प्राप्त कर लेता है–वह यह समझ जाता है कि जीवन की धारा कहीं और है और वह कभी टूटती नहीं। जीवन सतत है। मृत्यु के पहले जो जीवन है वही जीवन मृत्यु के बाद भी है।

     मृत्यु से जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता, केवल शरीर बदल जाता है और सबकुछ पूर्ववत ही रहता है।

 मृत्यु के स्वरुप से परिचित होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। मृत्यु को जानने-समझने और उसका अनुभव प्राप्त करने का जो मार्ग है वह है–ध्यान और समाधि।

        _ध्यान की चरम अवस्था है समाधि। काम (संभोग) की भी चरम अवस्था है समाधि. अगर संभोग इतना लम्बा चले की स्त्री बेसुध हो जाये; उसके बाद लिंग से थोड़ा और योनिपूजन कर पुरुष भी बेसुध हो जाये. तो इस वाह्य निश्चेतना की अवस्था में अंतश्चेतना शिखर पाती है. तब परमानंद की, समाधि की, सत्य की अनुभूति होती है : जो भी बेसुध हुआ उसे._

    हम ध्यान से भी और संभोग से भी मंज़िल देते हैं. कौन सा मार्ग लेना है, यह आपका निर्णय है. ज़ाहिर है संभोग-पथ स्त्री ही चुन सकती है. मैं ‘गे’ नहीं हूँ.

       एक-न-एक दिन शरीर से आत्मा को अलग होना ही है। शरीर को छूटना ही है। समाधि में मनुष्य अपनी इच्छा से अपने शरीर से अलग होकर यह जान समझ लेता है कि मृत्यु हो गई। उसकी आत्मा उसके शरीर से अलग हो गई। मृत्यु का अर्थ इतना ही है कि अभी तक जो आत्मा शरीर के भीतर रह कर यात्रा कर रही थी अब उसमें से निकल कर किसी दूसरे शरीर द्वारा अपनी यात्रा पर निकल पड़ी है। 

     जैसे एक यात्री किसी सवारी पर बैठ कर यात्रा करता है और बीच में उस सवारी को छोड़ कर किसी अन्य सवारी में बैठ कर आगे की यात्रा करता है। उसी प्रकार आत्मा भी अपनी अनंत यात्रा-काल में एक शरीर को छोड़ कर किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर अपनी आगे की यात्रा पर निकल पड़ती है।

मृत्यु का ज्ञान ही मृत्यु का अभाव है कि मनुष्य दूसरे की मृत्यु का साक्षी होता है, अपनी मृत्यु का नहीं। इसलिए कि उस समय वह बेहोश होता है, मूर्छित रहता है और वह नहीं जान पाता है कि उसके साथ कौन-सी घटना घटी ? अपनी मृत्यु की घटना से वह अपरिचित ही रह जाता है। 

     इसलिए यह आवश्यक है कि मनुष्य स्वेच्छा से ही मृत्यु में प्रवेश करे। मृत्यु कैसे घटित होती है ? कैसा होता है उसका अनुभव ?–इन सारी बातों को भली भाँति जान-समझ लेने के बाद ही एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती है मनुष्य को और वह यह कि एक बार मृत्यु का साक्षात्कार कर लेता है तो फिर मृत्यु पर उसका अधिकार हो जाता है। 

    फिर मृत्यु उसके लिए मृत्यु नहीं रह जाती। मृत्यु का रहस्य अनावृत हो जाता है उसके लिए और उसके लिए हो जाती है मृत्यु असत्य। तब पूर्णरूप से जीवन ही सत्य होता है उसके लिए। फिर कभी उसकी मृत्यु होती ही नहीं। जीवन की धारा में बराबर बहता जाता है वह। 

     बस बीच- बीच में जैसे नदी में नाव बदलते हैं, वैसे ही वह भी शरीर बदलता जाता है। लेकिन शरीर बदलते समय बराबर बोध होता रहता है उसे जीवन का। वह इस बात को जानता रहता है कि एक शरीर को छोड़ रहा है और दूसरे में प्रवेश कर रहा है। पहले शरीर और दूसरे शरीर के बीच में जो अंतराल रहता है, उस अंतराल में भीे जीने का बोध रहता है उसे।

       मृत्यु का ज्ञान ही मृत्यु का अभाव है। इसलिए योगियों का कहना है कि–ज्ञान मुक्ति है, ज्ञान शक्ति है, ज्ञान भक्ति है, ज्ञान मोक्ष है। जिस क्षण हम मृत्यु के ज्ञान को उपलब्ध हो जाते है, उसी क्षण जिसे वास्तविक जीवन कहते हैं, उससे हमारा सम्बन्ध जुड़ जाता है।मृत्यु के समय शरीर छूटने के साथ-साथ संसार भी छूट जाता है और संसार के साथ ही सारे नाते-रिश्ते ,सारे सम्बन्ध भी छूट जाते हैं। 

     सब कुछ छूट जाता है। केवल बचती है हमारी चेतना। जो बात मृत्यु के समय होने वाली है, वही बात ध्यान के समय होनी चाहिए। जो मरने पर छूटने वाला है, उसे हम ध्यान के समय छोड़ दें। मन में यह भाव हो कि हम संसार के लिए मर चुके हैं, अपने लिए भी मर चुके हैं और दूसरों के लिए भी मर चुके हैं। सारे विचार, सारे भाव सब छूट गए हैं हम से। 

     अब हम हैं ,हमारी चेतना है अर्थात् मैं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। एकांत में बैठ कर यही भाव मन में लाएं। इसका धीरे-धीरे अभ्यास हो जाने पर यह भाव अपने आप घनीभूत होने लगेगा और पूर्णरूप से घनीभूत होने पर वह समाधि बन जायेगा। 

     कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के भाव का घनीभूत होना ही समाधि की अवस्था है।

     समाधि में केवलI चेतना रह जाती है, अपना बोध रह जाता है। सांसारिक बोध सारे समाप्त हो जाते हैं, केवल रह जाता है “मैं.

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