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पांच राज्यों राज्यों के परिणाम का मुद्देवार विश्लेषण

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चंद्र प्रकाश झा 

नई दिल्ली। पांच राज्यों में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़- में बीजेपी ने धमाकेदार जीत दर्ज की है। कांग्रेस को सिर्फ एक राज्य- तेलंगाना- में जीत मिली है।

छत्तीसगढ़

हिंदुस्तान के आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्ता में लौट आई है। सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी की कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार सत्ता से बेदखल हो गई है।

चुनाव परिणामों की निर्वाचन आयोग द्वारा आधिकारिक घोषणा के बाद बघेल ने मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया। राज्यपाल ने उनको वैकल्पिक व्यवस्था होने तक इस पद पर बने रहने को कहा है।

नई सरकार का गठन कुछेक दिनों में हो जाने की आशा है। भाजपा ने विधानसभा के नए चुनाव में 90 में से 54 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। कांग्रेस सिर्फ 35 सीट जीतकर उसके पीछे रही। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने एक सीट जीती है। 

महिलाएं

नवनिर्वाचित विधायकों में 18 महिलाएं हैं जिनमें भाजपा की 8 और कांग्रेस की 10 हैं। सबसे ज्यादा 6 महिला विधायक सरगुजा संभाग से हैं। इस बार भाजपा ने 15 और कांग्रेस ने 18 महिलाओं को टिकट दिया था। पिछले चुनाव में 13 महिलाएं जीती थीं। बाद के उपचुनावों में और तीन महिलाएं जीती थीं। इस तरह इस बार महिला विधायक दो ज्यादा हैं।

राजपरिवार

छतीसगढ़ के राजपरिवार से पहली बार एक भी विधायक नहीं चुना गया। इसके सात उम्मीदवारों को कांग्रेस, भाजपा और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने चुनाव मैदान में उतारा था।

इनमें कांग्रेस नेता और बघेल सरकार में उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव, अंबिका सिंहदेव और देवेंद्र बहादुर सिंह शामिल हैं। ये तीनों पिछली विधानसभा में विधायक थे। भाजपा ने इस परिवार की संयोगिता सिंह जूदेव, प्रबल प्रताप सिंह जूदेव और संजीव शाह को और आप ने खड़गराज सिंह को चुनाव मैदान में उतरा था।

भाजपा

भाजपा ने इस चुनाव के लिए प्रचार अभियान में अपनी जीत होने पर आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं और किसानों के उत्थान के लिए काम करने का वादा किया था। भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना कोई दावेदार पेश नहीं किया था।

नया मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा के जिन नेताओं की चर्चा है उनमें पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अरुण कुमार साव, पिछली विधानसभा में विपक्ष के नेता धर्मलाल कौशिक और पूर्व आईएएस अफसर ओपी चौधरी भी शामिल हैं। इनमें से रमन सिंह के सिवाय सभी अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के नेता हैं।

कांग्रेस

कांग्रेस ने बघेल सरकार द्वारा पौने दो लाख करोड़ रुपये के खर्च से जन कल्याणकारी योजनाओं को भुनाने की असफल कोशिश की थी। मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस की तरफ से बघेल और उनकी सरकार में कुछ ही समय पहले उपमुख्यमंत्री बनाए गए टीएस सिंहदेव की चर्चा थी। सिंहदेव खुद 94 वोटों के अंतर से हार गए। बघेल सरकार के 13 मंत्रियों में से गृहमंत्री तम्रध्वज साहू समेत 9 हार गए। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज भी हार गए।

वोटिंग

वोटिंग दो चरण में 7 और 17 नवंबर को कराई गई। मतदान 76.3 फीसद रहा। करीब I1.29 फीसद वोटरों ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों पर ‘नोटा’ बटन दबाया। मतलब कि उनको कोई उम्मीदवार पसंद नहीं था।

एससी-एसटी

भाजपा ने अनुसूचित जनजातियों (एसटी) यानि आदिवासियों के लिए रिजर्व 29 में से 17 सीटें जीतीं। कांग्रेस ने 2018 के पिछले चुनाव में इनमें से 25 सीटें जीती थी। लेकिन वह इस बार 11 सीट ही जीत सकी। कांग्रेस ने राज्य की लगभग तीन करोड़ की आबादी में करीब 12 फीसद अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए रिजर्व 10 सीटों में से पिछली बार 7 जीती थीं मगर इस बार एक कम छह सीटें जीती।

तेलंगाना

स्वतंत्र भारत के 29वें राज्य के रूप में तेलंगाना का गठन 2013 में हुआ था। के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने राज्यपाल को अपना इस्तीफा भेज मुख्यमंत्री आवास से मेडक चले गए जहां उनका फॉर्महाउस है। तेलंगाना की 119 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस ने 64 जीतीं। केसीआर की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को 39, भाजपा को 8, एआईएमआईएम को 7 और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) को एक सीट मिली।

केसीआर ने स्वर्णिम तेलंगाना का निर्माण करने के पुराने नारे पर नया चुनाव लड़ा। उनका अपना आकलन था कि बीआरएस 95 से 105 सीटें जीतेगी। उन्होंने एआईएमआईएम को मित्र पार्टी बताया।  राज्य में भाजपा तीसरे नंबर की पार्टी है और उसका मनोबल कर्नाटक के हालिया चुनाव में हार से गिरा हुआ है। उसे सभी 119 सीटों के लिए चेहरों की तलाश थी।

चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद रविवार देर शाम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्‌डी ने कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी के शिवकुमार की उपस्थिति में अपनी पार्टी के नवनिर्वाचित विधायकों की बैठक की। उसके बाद उन्होंने देर रात राज्यपाल से मुलाकात कर नई सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। 

भद्राचलम से बीआरएस के निर्वाचित विधायक तालम वेंकटेश्वर राव देर रात हैदराबाद पहुंच कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी से मिलकर कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस के तीन सांसद रेवंत रेड्डी, उत्तम कुमार रेड्डी और कोमती रेड्डी चुनाव जीते है। पिछला चुनाव जीतकर दल बदलने वाले 9 विधायक हारे।

कोट्टागुडेम में वनामा, पिनापाका में रेगा कंथा राव, इलांडु में हरिप्रिया, नकीरेकल में चिरुमूर्ति लिंगय्या, भूपालपल्ली के अश्वराओपेटा में जी वेंकटरमण, मेचा नागेश्वर राव, पलेरू में उपेन्द्र रेड्डी  और सुरेंदर एलारेड्डी और कोल्हापुर में हर्षवर्द्धन हार गए। निर्वाचित विधायकों में 15 डॉक्टर हैं जिनमें 11 कांग्रेस, 3 बीआरएस और 1 भाजपा के हैं।

परिवारवाद

तेलंगाना विधानसभा चुनाव में निवर्तमान मुख्यमंत्री केसीआर गजवेल सीट से जीते। उनके बेटे और बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष केटी रामाराव सिरसिला से जीते। केसीआर के भतीजे और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रहे टी हरीश राव सिद्दीपेट से जीते। कांग्रेस की तरफ से सांसद एन उत्तम कुमार रेड्डी हुजूरनगर से और उनकी पत्नी एन पद्मावती कोडाड से जीते।

विधायक हनुमंत राव हैदराबाद की मलकाजगिरी सीट से हार गए पर उनके बेटे रोहित राव मेडक सीट से जीत गए। हनुमंत राव पहले बीआरएस में थे और पार्टी ने उन्हें फिर से मयनपल्ली सीट से टिकट दिया था। लेकिन उन्होंने बीआरएस छोड़ दी। कांग्रेस ने हनुमंत राव के बेटे को भी टिकट दिया था। कांग्रेस के जी विवेकानंद चेन्नूर से और उनके भाई जी विनोद बेल्लामपल्ले से जीते।

तेलंगाना राज्य का गठन लंबे आंदोलन के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की मनमोहन सिंह सरकार ने हड़बड़ी में 2013 में आंध्र प्रदेश का विभाजन कर किया था। 

किसी ज़माने में तेलंगाना में कम्युनिस्ट पार्टी बड़ी ताकत होती थी। कम्युनिस्टों ने किसानों को संगठित कर हैदराबाद के तत्कालीन निज़ाम और सामंती सत्ता के खिलाफ 1946 से 1951 तक सशत्र संघर्ष किया था जिसका विवरण स्वीडन के नोबेल पुरस्कार विजेता गुन्नार मिर्डल और अल्वा मिर्डल के पुत्र जान मिर्डल की पुस्तक ‘इंडिया वेट्स’ में है।

राहुल गांधी

इसी बरस तेलंगाना में राहुल गांधी की एक रैली के दौरान हाल में दिवंगत हुए पूर्व कम्युनिस्ट नेता एवं लोक गायक गदर उनसे गले मिले थे। तेलुगु, उर्दू भाषी पृथक तेलंगाना राज्य का गठन 2013 में केंद्र में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे शासन-काल में किया गया था। कांग्रेस और भाजपा को छोड़ आंध्र प्रदेश के लगभग सभी दल इसके विरोध में थे।

आंध्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. किरण कुमार रेड्डी ने आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम के विरोध में फरवरी 2014 में मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस से भी इस्तीफा देकर अलग पार्टी बना ली। वह बाद में कांग्रेस में लौट आये। किरण रेड्डी सरकार के इस्तीफा देने के बाद आंध्र प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर उसका विभाजन कर दिया गया।

तेलंगाना में आंध्र के 10 उत्तर पश्चिमी जिलों को शामिल किया गया। प्रदेश की राजधानी हैदराबाद को दस साल के लिए तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की संयुक्त राजधानी बनाया गया। तेलंगाना विधानसभा की कुल 119 सीटें हैं।

मिजोरम

ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट जेडपीएम ने कांग्रेस-एमएनएफ के एकाधिकार को तोड़ दिया। एग्जिट पोल में किसी को बहुमत नहीं मिलने के कयास लगाए गए थे। मिजो नेशनल फ्रंट को 40 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत हासिल करने की उम्मीद थी। 

मुख्यमंत्री बनने की तैयारी में लगे ललदुहोमा की पार्टी जेडपीएम ने 40 में से 27 सीटों पर जीत दर्ज की। मिजो नेशनल फ्रंट 10 सीटों पर सिमट कर सत्ता से बेदखल हो गई। भाजपा को 2 और कांग्रेस को एक सीट मिली।

ललदुहोमा ने कहा कि वह कल या परसों राज्यपाल से मिल कर नई सरकार बनाने का दावा पेश कर देंगे। शपथ ग्रहण इसी महीने पूरा हो जाएगा। ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट ने कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट के वर्चस्व को तोड़ दिया है। उसने 40 सीटों की विधानसभा में 27 जीत कर नई सरकार बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा ने इस्तीफा दे दिया।

1987 में पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने के बाद से मिजोरम में कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) का वर्चस्व रहा है। 1998 के विधानसभा चुनावों के बाद एमएनएफ के ज़ोरमथांगा मुख्यमंत्री बने, जिससे कांग्रेस का 10 साल का शासन समाप्त हो गया। 2008 और 2013 में कांग्रेस के जीतने तक एमएनएफ ने एक दशक तक शासन किया।

कांग्रेस का नेतृत्व लंबे समय से पांच बार के मुख्यमंत्री ललथनहवला ने किया, जिन्हें पहली बार 1984 में शीर्ष पद मिला था। एमएनएफ की स्थापना 1955 में हुई थी। यह मिज़ो पहाड़ी क्षेत्र के लिए स्वायत्तता की मांग करने वाला विद्रोही संगठन बन गया। यह अंततः मिज़ो नेशनल फ्रंट बन गया।

मिज़ो नेशनल फ्रंट 1966 में अलगाववादी आंदोलन शुरू किया और 1986 में मिज़ोरम शांति समझौते पर हस्ताक्षर होने तक लगभग 20 वर्षों तक सरकार से लड़ाई लड़ी। सेरछिप सीट से जीते लालदुहोमा ने कहा कि मिजोरम वित्तीय संकट से जूझ रहा है, हमें निवर्तमान सरकार से यही विरासत मिलने वाली है।

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