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देश को आज़ाद हुए 70 साल से ज्यादा हो गया, गौर कीजिये की इन 70 सालों मे क्या बदला?

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*कृष्ण मोहम्मद

अब तक हर व्यक्ति चुनाव मे वोट देकर खुद को ठगा हुआ महसूस पाता है, सरकार चुनाव को लेकर जबरदस्त प्रचार प्रसार करती है,
 टेलीविजन,सोशल मीडिया,दीवाल पोस्टर,रैली जैसे तमाम साधनों से,ताकि लोगों को इस लोकतंत्र मे आस्था बनी रहे,
ठीक है, आप सब कुछ कीजिये लेकिन लोगों को उनकी मुलभुत जरूरतों से वंचित मत कीजिये,
एक तरफ सारे पार्टी के लोग चुनाव के समय भाषण देते है की जाति और धर्म से हटकर वोट कीजिये,
 लेकिन उन्हें और हमें हम दोनों को पता है की भारत जाति प्रधान देश है, और लोग जाति धर्म के नाम पर ही वोट देते है,
जाति व्यवस्था इस भारत देश की सबसे बड़ी बुराई है इसका उन्मूलन होना चाहिए लेकिन सवाल है कैसे होगा?
अब तक कौन सी संसदीय राजनितिक पार्टी जाति उन्मूलन की दिशा मे काम करने के लिए काम किया?
अम्बेडकर के नाम पर हर पार्टी वोट लेती है लेकिन उनके सपने जस के तस है,इस संसदीय राजनीति की मजबूरी है की सभी जाति धर्म को लेकर चले तभी इनका वोट बैंक बना रहेगा..
दुनिया का सबसे सुन्दर लोकतंत्र कहा जाने वाला भारत देश की असलियत आज सबके सामने है,
गरीबी, उत्पीड़न, अत्याचार, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसी अन्य चीजों के मामले मे इसने सबको पीछे छोड़ दिया है,
 इस पूंजीवादी दौर मे मुनाफे की लालच इतनी अधिक है की लोगों के जीने मरने से किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है,
आप देखिये अधिकांश लोग जिनको आप चुनते है वो कैसे लोग है, जिन्हे आप 5 साल वोट देकर जिताते है वो कितना आपके सुख दुख मे साथ देते है?
 केवल चुनाव आने के समय ही ये बरसाती मेढक की तरह टर टर करते अब आपके गली मुहल्लो मे मिल जाएंगे,5 साल चुप्पी रहती है और फिर चुनाव के समय इनका वही पुराना अंदाज वोट के लिए जाग उठता है,
ये पूरा सिस्टम सड़ चूका है और यह सिर्फ पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए काम कर रहा है, एक बात समझिये चुनाव से नेता, सरकार बदलता है सिस्टम नहीं,
बाकि आप इस संसदीय व्यवस्था के भीतर रहना सही समझते है तो सुधार की राजनीति के अलावा आपको कुछ नहीं मिलेगा
 और यही सुधार वादी राजनीति जिसमे अमीर और अमीर होता जायेगा और गरीब और गरीब होता जायेगा,
एक बात और समझिये जिस पार्टी का आप समर्थन करते है उस पार्टी का उद्देश्य कभी भी व्यवस्था परिवर्तन नहीं रहा है,
अगर एक पार्टी से दूसरे पार्टी मे कोई नेता जाता है तो उसके वंहा सिद्धांत का मामला नहीं बल्कि पद पैसा पावर का मामला होता है,
कोई व्यवस्था परिवर्तन नहीं चाहता सब यही चाहते है की इस लुटतंत्र का हिस्सा बने रहे और खूब लुटे और जनता को बेवकूफ़ बना के रखे,
बहुत सारे साथियों को कन्हैया और जिग्नेश के कांग्रेस मे जाने पर दुख हुआ है एक दलित नेता और एक कम्युनिष्ट पार्टी का नेता..
एक ने जमीन के सवाल के मुद्दे को लेकर नेता बना और दूसरा रोहित वेमुला और jnu घटना पर नेता बना, लेकिन अगर वह दोनों अपनी पार्टी छोड़कर कांग्रेस मे चले गएतो अब कौन सा जनता का हित हो जायेगा?
या अपनी पार्टी मे भी बने रहते तो भी कौन सा जनता का हित हो जाता?
एक और बात बीजेपी की क्रूर नीतियों के खिलाफ अधिकांश लोग बीजेपी का विकल्प कांग्रेस मे ढूंढ़ रहे है ,
 तो उनको बताते चलूँ की पिछले कुछ सालों से छतीसगढ़ मे कांग्रेस की सरकार आदिवासियों के साथ क्या कर रही है यह किसी से छिपा नहीं है,
एक बात समझिये जंहा किसी भी पार्टी का सत्ता होता है वंहा उसका चरित्र क्रूर होता है,
 सत्ता की मलाई काटने का यह सारा खेल है, ये वो राजनितिक पार्टियां है जो थोड़े से लॉलीपॉप देकर सब कुछ लूट लेती है,
 सभी पार्टियां जनता की दुश्मन है, सब जनता को लाठी से पीटती है फर्क बस इतना है की कोई दस लाठी मारता है तो कोई 5 लाठी लेकिन मारते सभी है..
इनसे आप पूछिए भूमि, जाति उन्मूलन, शिक्षा,रोजगार पर इनका स्टैंड क्या है तो इनके पास कोई ढंग का जवाब नहीं है..
असल मे अवाम की मुक्ति का रास्ता चुनाव नहीं इंक़लाब है!
सीधी बात……….नो बकवासबात कहिले कर्रा…..गोली लगे चाहे छर्रा!
लिखने को बहुत कुछ है…लेकिन ज़मानत कौन कराएगा!
*कृष्ण मोहम्मद*

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