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*जरूरी है जीवन-क्रम में उपयोगी विषयों का सन्तुलन*

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       ~ राजेंद्र शुक्ला (मुंबई)

       बच्चों को खिलौने पसन्द आते हैं। वे मिठाई के लिए भी अधिक आग्रह करते हैं, पर यदि अभिभावक उनकी इच्छा ही पूरी करती रहें, तो इसमें वैसा हित साधन न होगा, जैसा कि उपलब्ध करते या कराते समय प्रसन्नता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

       यदि बड़ी संख्या में खिलौने मंँगाकर दिए जाएंँ, तो बच्चा उन्हीं में रम जाएगा। पढ़ने, दौड़ने आदि के अन्य उपयोगी कार्यों में से मन हटा लेगा। संख्या में बहुत होने पर वे किसी का भी पूरा रस न ले सकेंगे और न उनकी साज-संभाल कर सकते हैं। लाये हुए खिलौने जल्दी-जल्दी खोते और टूटते-फूटते रहेंगे। इससे बच्चों की आदत बिगड़ेगी और अभिभावकों के पैसे की बर्बादी होगी।

       यही बात मिठाई के संबंध में भी है। अधिक मिठाई खाने से बच्चों के दाँत खराब हो जाते हैं, पेट में कीड़े पड़ते हैं, दस्त लग जाते हैं। चटोरेपन की आदत पड़ जाने पर बच्चे बिना उचित-अनुचित का विचार किये जहांँ-तहांँ से जैसे-तैसे मिठाई पाने का प्रयत्न करने लगते हैं। शाक-भाजी, फल, दूध जैसी उपयोगी वस्तुओं की अपेक्षा होने लगती है।

       इसलिए जीवन में सभी उपयोगी विषयों का सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक माना गया है। पढ़ना अच्छी बात है, पर यदि छात्र को मात्र पढ़ने का ही ध्यान रहे व खेलकूद से मुंँह मोड़ ले अथवा खेलकूद में ही व्यस्त रहे और पढ़ाई पर ध्यान न दे, तो वह एकांँगी आदत लाभदायक नहीं, हानिकारक ही सिद्ध होगी।

       सन्तुलन बनाए रहना समग्रता को अपनाये रहना ही औचित्य की मर्यादा में आता है। उसी से हित साधन भी होता है। मनुष्य आमतौर से सुख-साधनों की अभिवृद्धि ही चाहता है। उसी के लिए प्रयत्न करता है और भगवान से प्रार्थना भी उन्हीं के लिए करता है। मिलने पर प्रसन्न भी होता है। इतने पर भी वह एकांँगी इच्छा पूर्ति व्यक्तित्व में अपूर्णता ही बनाए रहता है और इसके रहते समय पड़ने पर व्यक्ति अपने आप को कठिनाइयों से घिरा हुआ अनुभव करता है।

      जीवन एकांगी नहीं है और न वह एकपक्षीय उपलब्धियों से सन्तुष्ट रह सकता है। भरपेट भोजन मिलना बलवर्धन के लिए आवश्यक है, पर यदाकदा उपवास भी किया जाना चाहिए, ताकि पाचन तन्त्र को विश्राम मिले और थकान दूर करने के उपरान्त नई शक्ति संचय के साथ शरीर अपना कार्य ठीक प्रकार करता रहे। जो सदा ठूंँस-ठूँसकर खाते ही रहते हैं, कभी निराहार रहने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते, वे अपनी पाचन क्षमता गँवा बैठते हैं और अन्ततः घाटे में ही रहते हैं।

       विद्या पढ़ना अच्छी बात है, पर साथ ही व्यायाम में भी रुचि होनी चाहिए अन्यथा कोई व्यक्ति विद्वान भले ही बन जाए, स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल ही रहेगा। कड़ी मेहनत का अवसर आने पर हांँफ जाएगा और दूसरों का सहारा तकेगा। जीवनी शक्ति की न्यूनता के कारण आए दिन बीमार भी पड़ता रहेगा। उपचार का प्रभाव भी देर में पड़ेगा। यदि आरंभ से ही अध्ययन के साथ व्यायाम को भी जुड़ा रखा गया होता, तो असमंजस की स्थिति सामने न आती।

       अनुकूलताओं से सुविधा रहती है। उपलब्धियों से प्रसन्नता भी होती है। यह एकांगी लाभ है। इससे इतनी ही जानकारी रहती है, कि सुविधाओं का उपयोग कैसे किया जाए?  किन्तु दूसरा पक्ष अनजाना ही रह जाता है। कठिनाइयों का सामना कैसे किया जाए? उनसे बचा और निपटा कैसे जाए? इसका अनुभव, अभ्यास तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि प्रतिकूलताओं से पाला ना पड़े।

       उनसे निपटने का भी एक विशेष कौशल है। इसके लिए साहस की आवश्यकता पड़ती है, साथ ही सहने के लिए धैर्य और निपटने के लिए चातुर्य भरा पराक्रम भी चाहिए। यह विशेष गुण अभ्यास के बिना नहीं आते। अभ्यास के लिए अवसर चाहिए। यदि वह संयोगवश न आता हो तो उसे बुलाने के लिए स्वेच्छापूर्वक प्रयत्न करना चाहिए।

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