~ राजेंद्र शुक्ला (मुंबई)
अरबी कहावत है कि “जीभ को इतना मत दौड़ने दो, कि वह मन से आगे निकल जाय।” मन को यह समझने, सोचने का अवसर मिलना चाहिए कि क्या कहना चाहिए, क्या नहीं? अपनी मनमर्जी से जो चाहे सो बोलते रहना तभी क्षम्य कहा जा सकता है, जब उसे एकान्त में अपने आप से ही कहते रहना हो, किन्तु जो दूसरों के सामने या दूसरों के लिए कहा जा रहा है, उसके संबंध में यह भी विचार करना चाहिए, कि उसकी प्रतिक्रिया क्या हुई? यदि किसी कारण से उद्देश्य पूरा न हुआ हो और अच्छे संबंध बिगड़ गए, तो बोलने का श्रम ही निरर्थक नहीं गया, वरन् उल्टा परिणाम भी सामने आया। यही कारण है कि परिणाम, अवसर एवं प्रयोजन पर विचार करने के उपरान्त ही बोलना चाहिए।
कबीर ने सच ही कहा था “जो बिना विचारे बोलते हैं, सो पीछे पछताते हैं। काम अपना बिगाड़ते हैं और जग हँसाई की भर्त्सना ओढ़ते हैं।” वे यह भी कहते थे कि “ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जिससे मन का आपा खुले, अहंकार घटे। दूसरों को शीतल करें और अपने लिए भी शान्ति, शीतलता अर्जित करे।
सन्त तिरुवल्लुतावर ने कहा है- “कुमार्ग पर चलने से जिन्हें रोक सको जरूर रोको, पर इतना न बन पड़े, तो जीभ पर लगाम लगा कर रखो ही। वह जब कड़वा बोलती है, तो अनेक अनर्थ खड़े करती है और जब ठगी या शेखीखोरी में सर्प की तरह सरपट दौड़ती है, तब तो सब कुछ चौपट करके ही रख देती है।”
जापानी कहावत है कि “जबान की लम्बाई तो तीन इंच होती है, पर छह-छह फुट के दो आदमी मार सकती है। दो में से एक खुद दूसरा वह जिससे बोला गया था।”
वेन क्राफ्ट ने कटु वचनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि “वे दुष्टता और निराशा की परिणति हैं।” उन्होंने यह भी कहा है कि “जिसकी जीभ लम्बी होगी, उसकी जिन्दगी छोटी होगी।”
इस सन्दर्भ में वार्तालाप के साथ-साथ चटोरेपन की ओर भी इशारा करते हैं। खाऊ का जल्दी मरना निश्चित है। स्वाद के लोभ में अधिक खाने वाले पेट को बिगाड़ते हैं, बीमार पड़ते हैं और बिना कारण असमय ही मौत के मुंँह में घुस पड़ते हैं। यह लम्बी जीभ की ही करामात है। लम्बी अर्थात् अनियंत्रित।
जबान मुंँह से निकलवाकर वैद्य यह समझने का प्रयत्न करते हैं, कि किसे रोग है? क्या रोग है? यही बात समुदाय के बीच भी होती रहती है। वचन निकलने पर पता चलता है कि व्यक्ति का स्तर क्या है? वार्ता में न केवल विचारों का प्रकटीकरण होता है वरन् यह भी समझा जाता है, कि व्यक्ति की शिक्षा, रुचि, जानकारी तथा सुस्कारिता की स्थिति कितनी नीची या ऊंँची है।
शेखसादी अपने शिष्यों को समझाया करते थे कि “यदि बुद्धिमानी की दूसरी बातें समझ में न आए, तो इतना तो गिरह बाँध ही लेना चाहिए कि कटु वचनों से मनुष्य की केवल हानि ही हानि होती है। किसी को समझाना या सुधारना हो, तो उसके लिए मधुर वचनों का प्रयोग करने से कम में काम नहीं चलता है। तिरस्कृत होकर तो आदमी उल्टा फूंँफकारता है और सही परामर्श को मानने से भी इन्कार कर देता है।” इसलिए समझदारी इसी में है, कि जो भी बोला जाए वह सभ्यता की मर्यादा से आगे न बढ़े।
यदि आत्मश्लाघा और पर-निन्दा के तत्व हटा दिए जाएंँ, तो आम लोगों की तीन चौथाई बकवास सहज ही बन्द हो जाए। काम की बातें बहुत कम है। जो है उन्हें तर्क और तथ्य प्रस्तुत करते हुए संक्षेप में सरल शब्दों के माध्यम से कहा जा सकता है। उसके लिए बतंगड़ बनाने और अपना तथा दूसरों का समय खराब करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। ऐसी वार्ता प्रभावशाली भी होती है।
असंस्कृत वाक्य मित्रों की संख्या घटाते और शत्रुओं की संख्या बढ़ाते जाते हैं। हानि उठाने या आक्रमण सहने पर जितना आक्रोश उठता है, उससे भी अधिक कटुवचन सुनकर होता है। इस सत्य को समझा जा सके तो सम्मान पूर्वक जीने की इच्छा रखने वालों में से एक भी कटु वचनों का प्रयोग न करें।