पुष्पा गुप्ता
पिछले दिनों संसद में भगवती देवी का नाम भगवतिया देवी के रूप में उद्धृत किया गया. किसी को क्षोभ नहीं हुआ. बसपा के एक मुस्लिम सांसद को उग्रवादी और कुछ और कहे जाने पर प्रतिक्रिया जरूर हुई. होनी भी चाहिए. भाजपा सांसद ने दंडनीय अपराध किया है.
लेकिन मुझे भगवती देवी को भगवतिया देवी कहने पर भी उतना ही क्षोभ है. यह अपराध राजद सांसद ने किया है. क्या वह माननीय सांसद अपने आका लालू प्रसाद को भी सार्वजानिक रूप से ललुआ कह सकेंगे और यदि कहेंगे तो यह उचित होगा?
मैंने लोकसभा का रिकॉर्ड देखा. मुझे लगा शायद वह भगवतिया देवी के नाम से ही हों . लेकिन नहीं. अपने रिकॉर्ड में वह भगवती देवी हैं. वह अनुसूचित जाति से आने वाली राजनेता रहीं हैं. सुना था पहली दफा राममनोहर लोहिया ने राह चलते उनकी बेबाक टिप्पणियां सुनीं और उन्हें अपनी पार्टी में आने का न्योता दिया.
1969 में वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से बिहार विधान सभा की सदस्य बनीं और 1996 में जनता दल का उम्मीदवार बन लोकसभा सदस्य बनीं. विधानसभा में गरीबों के सवाल पर वह हमेशा मुखर रहीं. उन पर भ्रष्टाचरण के कोई आरोप नहीं लगे. लोकसभा में भी उनकी मुखरता बनी रही.
इस महिला राजनेता को भगवतिया कहे जाने की किसी ने कोई भर्त्सना नहीं की. अब यह हमारा लोकतान्त्रिक रिवाज है. यही अब भारतीय संस्कृति है.
हमारे अवचेतन में बहुत कुछ होता है और समय पर स्वयं सक्रिय हो जाता है. हम किसी को परकटी, कटुआ और भगवतिया यूँ ही नहीं कहते . ये सब हमारे संस्कार के हिस्से हैं. इन से लम्बी लड़ाई लड़नी होगी. लेकिन पहले हमें स्वीकार करना होगा कि हम कुछ गलत कर रहे हैं. अपना दोष किसी को दीखता कहाँ है !
मुझे स्मरण आता है कराई मुशहर का किस्सा. वर्ष 1952 में बिहार से सोशलिस्ट पार्टी के तीन लोकसभा सदस्य जीते थे – कराई मुशहर, बिजेश्वर मिश्र और सुरेशचंद्र मिश्रा. कराई जी पूर्णिया इलाके से चुने गए थे. जब लोकसभा पहुंचे, तब सदस्यों के लिए निर्धारित कुर्सियों पर बैठना उन्हें असहज लगा. वह जमीन पर बैठ गए.
जवाहरलाल नेहरू की नजर उन पर पडी. वह स्वयं उन्हें उठाने केलिए तत्पर हुए. कराई जी का कहना था कुर्सी तो मालिकों के लिए होती है. वह तो जन -मजूर हैं. आज तक नीचे ही बैठे हैं.
पहली लोकसभा में ही भारतीय जनजीवन का यह दृश्य उभरा था. नेहरू ने पता किया किनकी पहल से इन्हें टिकट मिला. वह जेपी और लोहिया की पसंद थे. नेहरू ने इस बात की प्रसंशा की. नेहरू हर बालिग को मतदान की वकालत 1928 से ही कर रहे थे.
1946 में संविधानसभा को उन्होंने बोगस करार दिया था. सिर्फ ग्यारह फीसद लोगों के वोट से चुनी गई संविधानसभा उन्हें बोगस लगी थी,जो बिलकुल उचित था. आम्बेडकर को संविधान की एक ही चीज पसंद आई थी कि इसमें हर बालिग को मतदान का अधिकार मिला था.
रमेश बिधूड़ी, मनोज झा, कराई मुशहर और भगवती देवी इस लोकतंत्र के चेहरे हैं. संसद के इसी पवित्र सदन में कभी एक राष्ट्रकवि ने दूसरे राष्ट्रकवि को बनिये का बच्चा कहा था. कांग्रेस के केके तिवारी ने रामधन को चमार का बच्चा कहा था.
पत्रकारों से सवाल किए जाने पर श्री तिवारी ने पूरे इत्मीनान से कहा कि वह भी मुझे ब्राह्मण का बच्चा कह सकते हैं,मुझे कोई शिकायत नहीं होगी. यही सब तो हमारी संसदीय परंपरा रही है.
कल बिधूड़ी की टिप्पणी की खूब आलोचना हुई ,लेकिन भगवती को भगवतिया कहा जाना किसी को बुरा नहीं लगा. आखिर यह आज का समाजवादी संस्कार है.