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*उसूलों पर जहां आंच आये टकराना ज़रूरी है*

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*इक़बाल अब्बासी*

टॉकीज में फिल्म देखे हुए सालों बीत गए, इतना लम्बा वक्त निकालना आसान नहीं है और *कोयला* फिल्म के बाद से कभी शाहरुख के लिए सिनेमा का रुख किया भी नहीं था, लेकिन जब *जवान* फिल्म के रिव्यू पढ़े तो रहा नहीं गया और दोस्तों की टोली के साथ स्क्रीन पर देखने पहुंच गए। फिल्म देखी तो अच्छा लगा, सबसे अच्छी बात जिस मुद्दे पर फिल्म बनाई गई है, उसके लिए हिम्मत की जरूरत है और ये हिम्मत शाहरुख में यकीनन साउथ के लोगों के होने की वजह से आई। हालांकि ‘पठान’ के वक्त भी वो कई लोगों को जवाब दे चुके हैं। खैर, फिल्म में एटली कुमार की स्टोरी और डायरेक्शन बहुत ही अच्छा है और मौजूदा दौर में जब बॉलीवुड की ज्यादातर टीम सरकार से सवाल पूछने के बजाए, उसके इशारे पर फिल्म बना रही है, ऐसे में सरकार से सवाल करती फिल्म बनाना ‘देशभक्ति’ का प्रमाण ही कहा जाएगा। यहां वसीम बरेलवी का शेर याद आता है-

*उसूलों पर जहां आंच आये टकराना ज़रूरी है*

*जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा ऩजर आना ज़रूरी है।*

फिल्म कुछ रॉबिन हुड स्टाइल में है। छोटे से लोन के लिए किसान को परेशान किया जाता है, ज़िल्लत दी जाती है, वो आत्महत्या कर रहा है, वहीं हजारों करोड़ के लोन लेने वाले अरबपतियों का लोन माफ कर दिया जाता है। सरकारी अस्पतालों की हालत बद से बदतर है, संसाधनों की कमी को जिस बारीकी से दिखाया गया है, वो देश की मौजूदा सच्चाई को बयां करती है। फिर उंगली (वोट) की ताकत का सही इस्तेमाल करने से पहले उम्मीदवार से किस तरह सवाल करना है, ये सिन तो मौजूदा वक्त की नब़्ज पर हाथ है। मेरी निजी राय है फिल्म हर किसी को देखनी चाहिए, खासकर उन नौजवानों को जो अपना पहले वोट डालने की तैयारी में है। क्योंकि उनका वोट उनका भविष्य तय करेगा।

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