गंगाधर ढोबले
जब भूगोल पानी और पहाड़ों की सरहदें बनाता है, तब इतिहास घटता है और इतिहास के घटने के साथ भूगोल भी बदलता रहता है। इसका सबूत है पिछले 75 वर्षों से किसी न किसी रूप में चल रहा सिंधु जल विवाद। इसकी जड़ में है भारत का विभाजन। यह विभाजन पाकिस्तान की कटुता और शत्रुता की बुनियाद पर हुआ है। इससे सिंधु का गौरवशाली इतिहास मटियामेट हो गया। कभी वैदिक काल (ईसा पूर्व 1500 से 500 वर्ष) में वेदों की रचना करने वाले सिंधु के तटों ने सिकंदर (ईसा पूर्व 233 वर्ष) से लेकर मुगलों, अंग्रेजों से होकर नेहरू तक, कई रणसंग्राम और राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे। यह सिलसिला आज भी कुछ भिन्न रूप में चल रहा है और शायद आगे भी चलता रहेगा।
भारत की चिंता
इस पृष्ठभूमि का ताजा संदर्भ है सिंधु जल संधि पर नए सिरे से वार्ता की भारत की मांग। भारत की चिंता के मुख्य विषय हैं- इस परिक्षेत्र में बढ़ती आबादी, पाकिस्तान से निरंतर आता आतंकवाद, जल बंटवारे में भारत के प्रति अन्याय, विवाद की स्थिति में फैसले के प्रावधान समय के अनुरूप बनाना, पर्यावरण की समस्या और स्वच्छ ऊर्जा के विकास को बढ़ावा देकर कार्बन उत्सर्जन को कम करना।
पाक प्रायोजित आतंकवाद
उरी में भारतीय फौजी ठिकाने पर हुए आतंकी हमले के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘सिंधु में जल और खून एक साथ नहीं बह सकते।’ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने सिंधु का पानी बंद करने की चेतावनी दी थी। ऐसे जल-अस्त्र का प्रयोग संभव है, क्योंकि फिरोजपुर हेडवर्क जैसी सतलुज का पानी उलीचने वाली परियोजना प्रवाह के ऊपर की दिशा में है, जबकि पाकिस्तान का हुसैनीवाला हेडवर्क जैसी परियोजना प्रवाह की निचली दिशा में। भारत ज्यादा पानी उठा ले या प्रवाह को रोककर कहीं और मोड़ दे, तो पाकिस्तान के प्रॉजेक्ट ठप पड़ जाएंगे।
असमान बंटवारा
वर्ल्ड बैंक के नेतृत्व में 1951 से लेकर 1959 तक दोनों देशों के बीच चर्चाओं के दौर चले थे। अंत में 19 सितंबर 1960 को कराची में संधि हुई। सिंधु जल क्षेत्र में कुल छह नदियां हैं। इनमें पश्चिम की सिंधु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान को मिलीं, जबकि पूरब की सतलुज, ब्यास और रावी भारत के हिस्से में आईं।
भारत ने भी दिया अंशदान
पाकिस्तानी इलाके की नदियों का लगभग 80% पानी पाकिस्तान के हिस्से में आया, जबकि भारत को 20% मिला। पूरब की नदियों का 70% पानी पाकिस्तान को और केवल 30% पानी भारत को मिला। 6 नदियों को मिला दिया जाए तो लगभग 75% पानी पाकिस्तान को और केवल 25% भारत को मिला। यही नहीं, पाकिस्तान के पंजाब इलाके में जल परियोजनाओं के लिए वर्ल्ड बैंक के साथ भारत ने भी 6 करोड़ 20 लाख पाउंड का अंशदान दिया।
बदलाव का वक्त
संधि का समय ध्यान में रखने लायक है। संसद सत्र 9 सितंबर 1960 को खत्म हुआ और इसके 10 दिन बाद संधि पर हस्ताक्षर हुए। 30 नवंबर 1960 को संसद के अधिवेशन में इस पर जबरदस्त हंगामा हुआ। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी समेत कई विपक्षी सदस्यों ने सरकार से पूछा कि क्यों भारत के हितों को तिलांजलि दी गई? तत्कालीन पीएम जवाहरलाल नेहरू का जवाब था कि ‘मानवीयता के आधार’ पर पाकिस्तान को रियायत दी गई। इस अन्याय को छोड़ने का समय अब आ गया है।
वर्तमान विवाद
2005 में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की किशनगंगा और रतले जल विद्युत परियोजनाओं की डिजाइन पर आपत्ति उठाई थी। किशनगंगा नदी को पाकिस्तान में नीलम कहा जाता है और वह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और भारत की अस्थायी सरहद है। भारत का कहना था कि यदि कोई विवाद हो तो संधि में मौजूद चार विकल्पों का एक-एक कर इस्तेमाल किया जाए।
चार विकल्प
पहला विकल्प है, स्थायी सिंधु जल आयोग के समक्ष विवाद पेश करना, दूसरा- वर्ल्ड बैंक द्वारा नामित तटस्थ विशेषज्ञ से सलाह लेना, तीसरा- वर्ल्ड बैंक को फैसले के लिए मामला सौंपना और चौथा विकल्प है- स्थायी ‘कोर्ट ऑफ आर्बिट्राज’ गठित करना। भारत चाहता था कि पहले तीन विकल्पों का इस्तेमाल होने के बाद ही अंतरराष्ट्रीय कोर्ट तक पहुंचा जाए। माना जाता है कि दोनों पक्ष ‘तटस्थ विशेषज्ञ’ पर लगभग सहमत हो गए थे, लेकिन 2016 में पाकिस्तान ने ‘कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन’ की मांग कर दी और मामला उलझ गया।
पाकिस्तान की मनमानी
वर्ल्ड बैंक का कहना था कि ‘तटस्थ विशेषज्ञ’ और कोर्ट, दोनों के परस्पर विरोधी फैसले आ सकते है, इसलिए यह जायज नहीं है। लेकिन, 2022 में वर्ल्ड बैंक ने पाकिस्तान की मांग मान ली और दोनों का गठन कर लिया। इस समांतर न्याय व्यवस्था का भारत ने विरोध किया और हेग स्थित ‘कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन’ में अपने दो जज नहीं भेजे। भारत के बिना ही अब वहां मामला चल रहा है। 2023 में भारत ने संधि पर नए सिरे से वार्ता का प्रस्ताव दिया। पाकिस्तान को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं है।
वर्ल्ड बैंक की दबंगई
यह शायद दुनिया की पहली और आखिरी जल संधि है, जो वर्ल्ड बैंक ने कराई। वर्ल्ड बैंक की भूमिका को समझने के लिए 60 के दशक के हालात पर गौर करना होगा, जैसे कि पाकिस्तान की कश्मीर में घुसपैठ, स्वतंत्र भारत में सेना की स्थिति, शीत युद्ध के चलते भारत का रूस की ओर झुकाव और इससे पश्चिमी देशों का भारत के खिलाफ पाकिस्तान को समर्थन। लेकिन, पिछले 75 बरसों में सीन काफी बदल चुका है। भारत अब अपनी बात रख सकता है और उसके लिए यही सही समय है।