अग्नि आलोक

कुमार गंधर्व को बेहद निजी रूप से याद करना कमाल ही है

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ऐसे समय में जब देश व प्रदेश के अधिकांश मीडिया संस्थारन सदी के अप्रतिम गायक कुमार गंधर्व को उनके सौवें जन्मे दिन पर लगभग विस्मृरत कर चुके हो, उन्हेंर बेहद निजी रूप से याद करना एक कमाल ही है। प्रस्तुत है रघुराज सिंह का यह आलेख।।

आज कुमार गंधर्व का जन्मदिन है। कला रसिक मित्र राजेन्द्र कोठारी ने विख्यात फिल्मकार जब्बार पटेल द्वारा भारत सरकार के फिल्मस डिवीजन के लिए बनाई फिल्म ‘हंस अकेला’ का वीडियो संस्करण ई-मेल पर भेज दिया है, बिलकुल सुबह-सुबह। सो आज का दिन कुमारजी पर फिल्म देखते, उनका निर्गुण और मालवी लोक गायन सुनते निकला। उन पर लिखा खूब सारा पढ़ा भी। यह वृतचित्र कुमारजी की मृत्यु के बाद बना है, उनके जीते जी उन पर कोई फिल्म नहीं बन सकी। उनके गायन की वीडियो और आडियो रिकार्डिंग लगभग सभी जगह उपलब्ध हैं।

जब्बार पटेल ने जो फिल्म बनाई वह कल्पनाशीलता के साथ बनी है। फिल्म साक्षात्कारों पर केन्द्रित है। उनके बाल सखाओं, समकालीन मित्रों, शिष्यों, संगीत के सियानों और उनके परिजनों से बातचीत दिलचस्प ढंग से शामिल है। फिल्म शुरू होती है एक भारी आवाज से जो भुवनेश कोमकली की है, कुमार गंधर्व उनके दादा थे। वे कहते है “चिरन्तन कला, मूल्यों पर पुनर्विचार कर इन कला मूल्यों को समकालीनता का सन्दर्भ देकर एक नया सौन्दर्यशास्त्र बन सकता है, यह अपने गायन से सिद्ध करने वाला नाम कुमार गंधर्व है।”

मेरी शास्त्रीय संगीत सीखने-समझने की कोई खास पृष्ठभूमि नहीं रही। शास्त्रीयता का स्पर्श लिए फिल्मों के गाने जरूर भाते थे। शास्त्रीय संगीत सुनना-समझना तब शुरू हुआ जब भोपाल में कलाओं पर केन्द्रित सालाना जलसा ‘उत्सव’ शुरु हुआ। इस उत्सव में होशंगाबाद से मित्रों की पूरी मण्डली भोपाल कार्यक्रम देखने-सुनने आती थीं। इन्हीं कार्यक्रमों में सबसे पहली बार कुमार गंधर्व को सुनने का मौका मिला। जब उन्‍हें सुनना शुरू किया तो लगा कि कुमारजी साक्षात सुनने के लिए हैं, कैसेटों में नहीं। सच कहूँ तो मैंने और मेरे जैसे बहुतेरों में लिखने-पढ़ने का तमीज़ दिनमान से और संगीत सुनने का तमीज कुमारजी से ही सीखा । उनको सुनते हुए हमेशा यह अहसास होता कि वह एक ऐसा विरल व्यक्ति हैं जिसका सारा का सारा व्यक्तित्व ही कलाकार है।

ज्यादातर गायकों की मुख-मुद्राएँ जरा भी आकर्षक नहीं होतीं। लेकिन कुमारजी जब अपना चेहरा थोड़ा ऊँचा करके हाथ सीधे गगन की ओर ले जाते थे तो लगता वे शून्य में एक अमूर्त लय रच रहे हैं। जब वे ‘गगन में आवाज हो रही’ गाते तो लगता कि आवाज़ मंच से नहीं, गगन से आ रही है। उन्होंने सूर, मीरा, तुलसी और विशेषकर कबीर को अपने गले से जैसा साधा वह विरल है। कबीर तो सभी गायकों के प्रिय रहे हैं, अब तो कबीर पाप-म्‍युजिक में भी चहेते हैं। लेकिन, कबीर को जैसा कुमारजी ने जिया वैसा किसी दूसरे ने नहीं। उन्होंने मालवी के पदों को भी अपने गायन में जिस तरह अपनाया है, वह भी एक अनूठा अनुभव है। दुर्भाग्य से उनका मालवी गायन सुगमता से सुलभ नहीं है। मालवी लोकगीतों की सीडी संगीत के बाजार में नहीं हैं। कुछ एक को केवल इन्टरनेट पर बहुत खोजने  के बाद सुना जा सकता है। जब्बार पटेल की फिल्म में मालवी लोकधुन “मंगल दिन आज, बना घर आयो” का सुंदर समावेश है।

बात फिल्‍म की निकली है तो यू-टयूब पर सन् 1937 में बनी एक दिलचस्‍प फिल्‍म मौजूद है। यानी 86 साल पहले बनी। इसे बनाया था अपने समय की मशहूर फिल्म कंपनी वाडिया मूवीटोन्‍स ने। फिल्म में सबसे पहले एक लकड़ी का तख्ता दिखता है जिस पर अंग्रेजी में लिखा है- “शार्ट फिल्म सीरीज 1937, साँग ‘गोवर्धन गिरधारी’, माड झिंझोटी। ए फेनटेसटिकली परफेक्ट रेनडरिंग ऑफ बाई हीराबाई बडोदकरस पापुलर साँग बाय कुमार गंधर्व (उम्र दस साल)”। फिर सूट-बूट धारी उद्‌घोषक घोषणा करता है “बाल गवैया कुमार गंधर्व एक सुरीली धुन सुनायेगा, जो प्रोफेसर देवधर के इण्डियन स्कूल ऑफ म्यूजिक का एक खास चेला है। इसके भी पहले बम्बई बोर्ड ऑफ सेन्सरस का दिया सर्टीफिकेट नं. 19016 वैरायटी नं.-7 प्रदर्शित किया जाता है। बालक कुमार गंधर्व से मीरा का यह भजन सुनना एक अद्भुत अनुभव है, महिला स्वर में हीराबाई बडोदकर की हूबहू नकल। इसके अलावा शबनम विरमानी की एक लम्बी डाक्‍यूमेंट्री भी है। 96 मिनिट की “कोई सुनता है- कुमार और कबीर के साथ यात्राएँ।” इसे भी देखना लोक में व्‍याप्‍त कबीर और कुमार से एक तरह का साक्षात्कार है।

कुमारजी संगीत पर लिखने वालों के बहुत प्रिय रहे हैं। जब अशोक बाजपेयी भोपाल में थे तब पूर्वग्रह का एक अंक उन पर था। एक पुस्तक भी भारत भवन या कला परिषद से छपी थी ‘बहुरि अकेला’ है। एक बहुत ही पठनीय पुस्तक मराठी भाषी दोस्‍त बसन्त पोतदार ने भी लिखी है। पहले मराठी में और फिर हिन्दी में अनुवाद भी उन्होंने ने ही किया है। यह पुस्तक कुमारजी की संघर्षों से भरपूर और मृत्‍यु से जूझते इस गायक की विलक्षण यात्रा का बहुत ही धड़कता हुआ दस्तावेज है। इसे पढ़ना कुमार गंधर्व के साथ संवाद करना और कलाओं की विराट दुनिया के विषय में उनको गहराई से जानना है। यह किताब कई जगह इस यायावर कलाकार की आत्मकथा सी लगती है, वैसे आत्‍मकथा है नहीं।

एक जगह कुमार जी कहते हैं  “रटंतर नामक सूजन आई है संगीत की त्वचा पर, जो ज्यादा रटे वह बड़ा पोपटराव, कम रटे वह छोटा तोता खाँ । साधना, रियाज वगैरह जो बड़े-बड़े और शास्त्रीय पद माने जाते हैं न उसका सीधा अर्थ है जुगाली।” कबीर को लेकर एक जगह पुस्तक में ऐसा उल्लेख कुमारजी की ओर से है “कबीर हमारी वीकनेस, कबीर के सामने हम टोटल सरेण्डर, कबीरा की श्रैणी ही अलग, उसमें रहस्य कुछ भी नहीं, उसका विचार एकदम खुला, शब्द बिलकुल नग्‍न।” रागों को लेकर जो कुमारजी ने कहा और पोतदार ने लिखा वह अनूठा है। वे कहते है सारंग गाने के पूर्व दोपहर दो बजे देहात में जाकर गोबर से पुते आंगन में भी कभी बैठे हो क्‍या? वैसे होंगे तो ही सारंग की आत्मा अवगत होगी । गोधूलि बेला है, माटी के घर में पणती की लौ टिमटिमा रही है। बालक माँ के सामने ‘भूख लगी है’ की रट लगाए है। माँ आटा गूंध रही है। पिता दूध का लोटा लेकर घर में प्रवेश कर रहा है। देहात के झोंपड़े का यह जीवन भोगा होगा, तो ही अंदाज लगेगा कि पूरिया का मध्यम इतना आर्त क्‍यों है। कुमारजी को जानने-समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है।

संगीत आलोचक वामनराव देशपाण्डे की किताब में गोविन्दराव टेम्बे उनके संगीत के सामने प्रश्नवाचक चिह्न अंकित करते है तो दूसरे बहुतेरे विस्मयादिबोधक चिह्न लगाना पसंदकरते है। देशपाण्डे खुद तो कहते हैं कि कुमार के संगीतमें मिलावट के लिए कोई जगह नहीं है, उत्पाद तंदूर से ताजा ही निकला है। उनकी विदुषी गायक पुत्री कलापिनी कोमकली ने रेखा इनामदार सानेके साथ मिलकर ‘कालजयी कुमार गंधर्व’ पुस्तक मराठी और हिंदी-अंग्रेजी में लिखी है, जो एक दूसरे का अनुवाद नहीं हैं। इन्हें पढ़ना बकाया है।

वे संगीत की दुनिया में अमर होने की इच्छा दूर-दूर तक नहीं करते, उन्हें खुद की ओर अपने संगीत की नश्वरता पर गहरा भरोसा है। ऐसे विलक्षण प्रयोगधर्मी गायक जिसने रागों के साथ ही प्रयोग नहीं किए बल्कि संगीत की एक अन्य शैली भजन और लोक गीतों के साथ भी प्रयोग किए हैं, उनको बार-बार सुनना मुझेलुभाता है। उनको सुनना, सुनने की दुनिया में प्रयोग करने जैसा है।

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