अमिता नीरव
अपने उपन्यास के सिलसिले में मैं बेनजीर भुट्टो की हत्या को समझ रही थी, उस श्रृंखला में पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए संघर्ष और उन वजहों की तरफ चली आई, कि आखिर एक साथ जन्मे दो देशों में से क्यों एक देश लगातार लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहा है?
आखिर क्या वजह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र धूप-छाँव की तरह आता औऱ चला जाता है। इस मसले पर भारत और पाकिस्तान दोनों ही जगह किए जा रहे विश्लेषणों को समझ रही थी। इसमें तमाम दूसरी वजहों के अलावा जिस आखिर वजह ने अटकाया, वो था संविधान।
पाकिस्तान के संविधान के अनुसार वहाँ स्टेट की सॉवरेन्टी अल्लाह में है, जबकि भारत के संविधान के अनुसार स्टेट की स़ॉवरेंटी जनता में है। हालाँकि ये मामला बहुत बारीक है और इसकी समझ उन्हें ही हो पाएगी जो राजनीति और राजनीतिक व्यवस्था को थोड़ा भी समझते हैं।
मगर इस बहुत बारीक मसले के परिणाम बहुत गहरे, गंभीर औऱ दूरगामी है, इसे समझने के लिए पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास के साथ भारत के राजनीतिक इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन करने की जरूरत है। यहाँ ये याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या नाममात्र है।
कुल मिलाकर पाकिस्तान इस्लामिक देश है, जहाँ मोटा-मोटी सिर्फ मुसलमान ही रहते हैं। उसके बावजूद लगातार वहाँ लोकतंत्र हिचकोले ले रहा है। इसके उलट हमारे यहाँ सिर्फ धार्मिक ही नहीं, भाषागत, जातिय, संस्कृतिगत, भौगोलिक, राजनीतिक, मानवीय सूचकांक आदि-आदि के स्तर पर विविधता है।
इतनी विविधता के बावजूद भी यदि यहाँ किसी भी हाल में बचा है, यदि लोकतंत्र बचा हुआ है तो इसलिए कि हमारा संविधान हमें लोकतंत्र में दीक्षित करता है, करता रहा है। आगे के आसार बुरे से भी बुरे हैं, काहे कि आप राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के उत्सव को आस्था का परिणाम समझने वाले क्यूट लोग हैं।
अयोध्या मसले पर पिछले दो महीनों से लगातार पूरे देश को उद्वेलित किया जा रहा है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, स्थानीय सरकारें अलग-अलग स्तर पर इसी सिलसिले का कोई-न-कोई आदेश प्रसारित करती हैं। बीजेपी सहित हिंदुत्ववादी संगठनों की सारी इकाइयाँ एक्टिवेट हो जाती हैं।
किस दिन क्या, कैसे करना है ये रूलबुक घर-घर पहुँचाई जाती है। हर घर में भजन-भंडारा, पूजा, प्रभात-फेरी, दीए जलाना, पटाखे चलाने आदि-आदि का आह्वान किया जाता है। स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटीज में इसी सिलसिले के तमाम आयोजन करने के आदेश आते हैं। सरकार छुट्टी घोषित करती है।
प्रधानमंत्री, संवैधानिक पद पर रहते हुए राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन का मुख्य हिस्सा होते हैं। तमाम मीडिया, जिसमें प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, डिजिटल औऱ सोशल सब शामिल है, लगातार रामधुन गा रहे थे और देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा था जैसे कुछ अभूतपूर्व घट रहा है।
आखिर यदि ये आस्था का मामला होता तो लगातार इस किस्म का माहौल बनाने की जरूरत ही क्या थी? पहले भी लिखा था कि जब राम मंदिर का फैसला आया था, वो दिन देश में एक आम सा दिन था। कहीं कोई हलचल, उत्सव, खुशी, उन्माद नहीं था। जबकि फैसला मंदिर के पक्ष में आया था।
तब ही दक्षिणपंथी ताकतों ने शायद ये समझ लिया था कि यदि मंदिर को लेकर माहौल नहीं बनाया जाएगा तो मंदिर को लेकर की गई तीस साल की कवायद का कोई फायदा नहीं होगा! और जो लोग अलग होकर देख पा रहे हैं वो वे जानते हैं कि सरकार का प्रचार तंत्र गोएबल्स के प्रचारतंत्र से भी ज्यादा सशक्त है।
और वे राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा को देशव्यापी उत्सव में तब्दील करने में सफल होंगे। आज लोग कह रहे हैं कि ये आस्था का मसला है। इतने दिनों से चल रहा हंगामा, सरकार के तमाम आदेश और हर दिन नशे के डोज की तरह आ किए जा रहे, नए आह्वान को आप नहीं देख पा रहे हैं तो आप बहुत मासूम हैं।
व्यक्तिगत हैसियत में काम करते लेखक, पत्रकारों की राम मंदिर मामले पर लगातार भावुक अपील, राम मंदिर के नाम पर पेंट की गईं मीडिया की वैन्स। यहाँ तक कि दीए जलाने की किट, झंडे सब मुफ्त बाँटती सरकार औऱ बीजेपी के संगठन में आपको राजनीति नहीं दिखती हैं तो ये आपकी कमी है।
मुझे यदि चीजें गहराई से दिखाई देती है तो ये मेरा गुनाह नहीं है।