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बिना सस्पेंस की सस्पेंस फिल्म ‘जाने जान’

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Rohit Devendra का खूबसूरत रिव्यू

हिंदी फिल्मों का टीचर चौड़ी मोहरी वाले पायजामे और धूसर रंग वाले कुर्ते पहनता है। पुरानी डिजाइन की साइकिल से चलता है। साइकिल की गद्दी पर कम बैठता है। ज्यादातर उसे पकड़कर पैदल-पैदल चला करता है। आमतौर पर आदर्श, सत्य और ईमानदारी की बातें करता है। वह ना तो कभी ‘ब्रेकिंग बैड’ के टीचर जैसा तेज दिमाग का हुआ है और ना ही ‘मनी हाइस्ट’ के प्रोफेसर जैसा शातिर और फिलॉसफर। सुजॉय घोष को पहली बधाई तो इस बात पर मिलनी चाहिए कि उन्होंने टीचर को उसके निरीह होने के कैरीकेचर से निकाला। उसे शूट पहनाया। कराटे की ट्रेनिंग दिलवाई। किसी की हत्या करके उसकी लाश ठिकाने लगाते दिखाया।

नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हुई फिल्‍म ‘जाने जान’ जैपनीज नॉवेल ‘द डिवोशन ऑफ सस्पेक्ट एक्स’ की ऑफिशियली एडाप्‍शन है। हममें से शायद ही किसी ने वह नॉवेल पढ़ी हो। मैंने नहीं पढ़ी। फिल्म देखते हुए इसके शीर्षक में छिपा हुआ डिवोशन आखिरी के दस मिनटों में समझ में आता है। यह बहुत गहरी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म नहीं है। हत्या किसने की है यह कोई राज नहीं है। बहुत टर्न और ट्विस्ट के बिना भी यह फिल्म हमें ढाई घंटे अपने साथ रोककर रखती है, यह इसकी ताकत है। फिल्म कठिन है।

किरदारों की साइकाॅलजी को पन्ने पर उतारना कई दफा आसान होता है पर उसे विजुलाइज करना कठिन। सुजॉय इस कठिन काम को आसान करते हैं। जैसा वह ‘ बदला ‘ में कर चुके हैं और जैसा अनुराग कश्यप ‘  दोबारा ‘ में नहीं कर पाते हैं।

फिल्म एक हत्या हो जाने के बाद की तफ़तीश पर टिकी होती है। तफ़तीश का तरीका मुंबईया फिल्मों जैसा नहीं है। पुलिस को बहुत अधिक ताकतें या उसे ज़रूरत से ज्यादा स्मार्ट होते हुए नहीं दिखाया गया है। ना ही पुलिस की वर्दी, बूट, काली मूछें और काले चश्‍में ‌एक किरदार की तरह बार-बार यहां आते-जाते हैं। फिल्म की असली ताकत किरदारों के साइको को पकड़कर अंत तक ले जाना है। जहां आखिरी के दस मिनट में ‌फिल्म चरमोत्कर्ष जैसा सुख देती है। बहुत सारे सवाल जो आपको अनकॉसेंस माइंड में चला करते हैं फिल्म उन्हें उसे तसल्ली से शांत करती है जिस तसल्ली से यह पूरी फिल्म बनाई गई है। एक सस्पेंस फिल्म होते हुए भी इसके बैकग्राउंड म्यूजिक में ठान-ठान या किर्र-कुर्र की आवाजें नहीं हैं जिससे आप थोड़ा सहम जाएं।  

फिल्म की मुख्य ताकत जयदीप अहलावत के द्वारा निभाया गया स्कूल टीचर का किरदार है। हत्या को छिपाने और उसे प्लान करने वाले आदमी से ज्यादा उसकी पर्सनॉल्टी में लेयर इस बात में दिखती हैं कि उसका किसी के साथ डिवोशन का स्तर किस लेवल का है। अपने किरदारों में अव्वल दर्जे की खालिस हरियाणवी बोलने वाले जयदीप ने अधेड़ उम्र के गंजे व्यक्ति के रुप में क्या बेहतरीन काम किया है। वह प्रभावित तो करते ही हैं कई दफा आतंकित भी करते हैं। जब वह चुप हैं तो ज्यादा बोलते हुए लगते हैं।

जयदीप के बाद कोई दूसरा किरदार प्रभावित करता है तो वह फिल्म की सिनेमेटोग्राफी हैं। पश्चिम बंगाल का हिल स्टेशन कलिंमपोंग, जहां यह फिल्म शूट हुई एक किरदार की तरह साथ चला करता है। फिल्म में कोहरे का धुंधलापन, शाम ढलते ही छोटे कस्बे का मौन, गिनती के लोग, सेट लाइफ स्टाइल सब कुछ सजीव सा लगता है। हिल स्टेशन पर शूट करते हुए भी यह फिल्म हिल स्टेशन को ग्लैमराइज नहीं करती। जितना फिल्म के हिस्‍से में आ जाता है उसे नेचुरल रुप से रख लिया जाता हैं। करीना और विजय वर्मा अच्छे एक्टर हैं। उन्होंने भी उसी हिसाब से काम किया है।

एक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म में हत्या किसने और कैसे की इस सवाल को जवाब जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही ज़रुरी यह भी होता है कि हमनें यहां तक पहुंचने तक रास्ता क्या लिया है। सुजॉय की यह फिल्‍म यकीनन  ख़ूबसूरत रास्ता  लेती है।

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