अग्नि आलोक

जन्माष्टमी : आधारभूत कृष्ण-सूत्र

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 सुधा सिंह

*वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनं |  देवकी परमानन्दम कृष्णं वंदे जगदगुरुम ||*

       महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण द्वारिका वापस जाने को थे. अर्जुन ने कहा :

 _”युद्धक्षेत्र में सुनी गीता ‘विचलित चित्त हो जाने के कारण भूल गया हूँ, जाने के पहले एक बार फिर से सुना दें।’_

कृष्ण बोले :

_” तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द जान पड़ती है, वह सारे का सारा धर्म उसी रूप में दुहरा देना अब मेरे वश की बात भी नहीं है। उस समय योगयुक्त हो कर मैंने परमात्म तत्व का वर्णन किया था।  खैर, सुनो एक बार एक ज्ञानी ब्रह्ललोक से मेरे पास आए थे, उन्होंने मोक्षधर्म संबंधी मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया था, वह तुम सुनो’।”_

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 यानि वह जो पल होता है, रचना के अवतरण का, जिस पल में जैेसे कोई दिव्य, रहस्यपूर्ण संभावना रचनाकार के मुख से बोलती है, उस पल को जस का तस फिर से जी पाना स्वयं भगवान के भी वश में नहीं है.

     जो सुनें उसे स्मृति या लिखित नोट के रूप में व्यक्तिगत और सामाजिक चित्त में धारण करें। दूसरी बात, स्वयं भगवान भी संवाद से सीखते हैं।

कृष्ण उन ज्ञानी से हुआ अपना संवाद दोहराते हैं, और जैसी कि महाभारत, रामायण और पुराणों की शैली है, इस संवाद में कई अन्य संवाद चले आते हैं।

      ध्यान देने की बात यह है कि अर्जुन तक यह सारा संवाद कृष्ण गीता की यथासंभव पुन: प्रस्तुति के रूप में ही पहुँचा रहे हैं। अर्जुन इसी रूप में उसे ग्रहण कर रहे हैं।

     इसीलिए इस संवाद को महाभारतकार ने ” अनुगीता” नाम दिया है।

    इसमें और बातों के साथ यह भी कहा गया है :

     *अहिंसा परमो धर्मो हिंसा चाधर्मलक्षणा!*

*प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्या: कर्मलक्षणा।*

    _अहिंसा श्रेष्ठतम धर्म है, हिंसा अधर्म का लक्षण है। देवता प्रकाश से और मनुष्य कर्म से पहचाने जाते हैं।_     

      –आश्वमेधिक पर्व, 43.21.

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