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जोतिराव फुले ने जान-बूझकर मराठी साहित्य में इस्तेमाल होने वाले संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया

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कार्तिक मल्ली

1873 में प्रकाशित जोति राव फुले की गुलामगिरी, जिसे आमतौर परउनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है, के पहले पन्ने पर लिखा है कि पुस्तक समर्पित है “संयुक्त राज्य के अच्छे लोगों को जिन्होंने नीग्रो दासता के खिलाफ उदात्त निस्वार्थ आत्म-बलिदान दिया.” 1865 में संयुक्त राज्य अमेरिका में दासता के उन्मूलन का संदर्भ, पुस्तक के लिए भावी तर्कों को तैयार करता है. फुले गुलमगिरी में गुलामी के बारे में होमर और भारतीय समाज में ब्राह्मणों की भूमिका पर दो पश्चिमी लेखकों को उद्धृत करते हैं.

इसके बाद किताब में अंग्रेजी में एक प्रस्तावना है जो औपनिवेशिक अधिकारियों के लिए है. यह औपचारिक गद्य शैली में लिखी गई है जो अंग्रेजी में तो पहले से प्रचलित थी लेकिन तब तक मराठी में विकसित नहीं हुई थी. फुले पौराणिक मिथकों के अनुसार ब्राह्मण समुदाय और गैर-ब्राह्मणों पर उनके वर्चस्व की बात तो करते हैं लेकिन इन मिथकों को वह इतिहास और नृविज्ञान में हुए नए विकास के चश्मे से देखते हैं. जोति राव पारंपरिक पुराण कथा के हवाले से “भारत में ब्राह्मण वर्चस्व का इतिहास” बताते हैं और आगे मनुस्मृति का हवाला देते हुए बताते हैं कि किस तरह ब्राह्मणों ने गैर-ब्राह्मणों का दमन और शोषण करने के लिए जाति को कायम रखा. प्रस्तावना औपनिवेशिक अधिकारियों के लिए एक याचिका के साथ समाप्त होती है, जिनसे फुले को उम्मीद थी कि, “वे अपने पुराने चालचलन की कमियों को देखेंगे, उन लेखकों या पुरुषों पर कम भरोसा करेंगे जो लोगों को उच्च श्रेणी के चश्मे से देखते हैं और शूद्र भाइयों को उन बंधनों से, जो ब्राह्मणों ने कुंडलियों की तरह उनके चारों ओर बनाए हैं, मुक्त करने का गौरव अपने हाथों में लेंगे.”

अंग्रेजी ​प्रस्तावना के बाद मराठी में परिचय है. लेकिन जैसे ही पुस्तक की भाषा बदलती है यह अपने गद्य रूप को तो बनाए रखती है लेकिन अब सब के बजाए यह मराठी गैर-ब्राह्मण पाठकों को संबोधित करती है. फुले लिखते हैं कि किन चालाकियों से ब्राह्मणों ने आध्यात्मिक और धर्मनिरपेक्ष अर्थों में संसाधनों पर नियंत्रण बनाए हुए गैर-ब्राह्मणों को उनकी सेवा में लगाया. इसके बाद वह पश्चिम में विकास के बारे में लिखते हैं, जहां दासता को समाप्त कर दिया गया था.

गुलामगिरी फुले के राजनीतिक दर्शन और उनके शोध और अध्ययन के विस्तार को प्रदर्शित करता है, लेकिन महत्वपूर्ण रूप से, उनके द्वारा नियोजित विभिन्न अलंकारिक शैलियों और रूप के बारे में आत्म-चेतना की ओर भी इशारा करता है.

अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के महाद्वीपों में दूर देशों के लोगों को गुलामों के रूप में बेचने के लिए पकड़े जाने की क्रूर प्रथा अस्तित्व में थी. कई उदार अंग्रेजों और अमेरिकी लोगों ने अपने जीवन की परवाह न कर इस क्रूर प्रथा को खत्म करने के लिए कड़ी मेहनत की और कई गुलामों को उनके चाहने वालों उनके माता-पिता, भाइयों, बहनों, बच्चों और दोस्तों से मिला दिया.

पुस्तक परिचय उस समय प्रचलित जाति की स्थिति के आकलन के साथ समाप्त होता है, साथ ही यह भी बताता है कि इस पर उनका क्या मानना था.

इस प्रकार ब्राह्मणों ने शूद्रों और अतिशूद्रों को विभाजित कर दिया और अब शूद्रों की कीमत पर आनंद ले रहे हैं. इसका पहले ही ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि अंग्रेजों के आने के बाद शूद्रों और अतिशूद्रों को ब्राह्मणों की शारीरिक गुलामी से मुक्ति मिली लेकिन साथ ही यह जानकर बहुत दुख होता है कि उदार ब्रिटिश सरकार ने शूद्रों की शिक्षा समस्या की अनदेखी की है. परिणामस्वरूप, वे अभी भी अज्ञानी और मानसिक गुलामी में कैद हैं, जिसे ब्राह्मणों ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से कायम रखा है.

अब पुस्तक झट से शुरू होती है इस बार निबंधात्मक गद्य में दो पात्रों, जोति राव और धोंदीबा के बीच संवाद के रूप में इस में शैलीगत बदलाव होता है.

धोंदीबा : तथ्य यह है कि यूरोप में उदार सरकारें, जैसे फ्रांसीसी, अंग्रेजी, दास व्यवस्था को प्रतिबंधित करने के लिए एक साथ आईं, यह दर्शाता है कि उन्होंने मनुस्मृति में लिखे गए ब्रह्मा के कानून की अवहेलना की. पुस्तक में बताया  गया है कि ब्रह्मा ने अपने मुंह से ब्राह्मणों और अपने पैरों से शूद्रों को बनाया, केवल ब्राह्मणों की सेवा के लिए.

जोति राव: आप कहते हैं कि अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और अन्य सरकारों ने दास व्यवस्था पर रोक लगा दी, जिसका अर्थ है कि उन्होंने ब्राह्मण कानून की अवहेलना की. लेकिन इस धरती पर बहुत सारे अलग-अलग लोग हैं! बताओ, मनुस्मृति उनकी रचना के बारे में क्या कहती है? वे ब्रह्मा के किस अंग से उत्पन्न हुए थे?

धोंदीबा : इस बारे में पढ़े-लिखे और अनपढ़ ब्राह्मणों का कहना है कि चूंकि अंग्रेज भ्रष्ट पापी हैं, इसलिए मनुस्मृति में उनका उल्लेख नहीं है.

जोति राव : ब्राह्मणों में कोई भी भ्रष्ट पापी नहीं हैं ?

धोंदीबा : दरअसल, ब्राह्मणों में ऐसे और भी लोग हैं .

जोति राव : तो फिर मनुस्मृति उनके बारे में कैसे लिखती है यदि वे भ्रष्ट पापी हैं?

धोंदीबा : यह स्वयं सिद्ध करता है कि मनु द्वारा दिया गया मनुष्य की उत्पत्ति का लेखा-जोखा पूरी तरह से गलत है, सिर्फ इसलिए कि इसे सभी मनुष्यों पर लागू नहीं किया जा सकता है.

बातचीत अपने आप में लगभग सुकराती है, जिसमें अलंकारिक प्रश्न और सिद्धांत हैं, जैसे विरोधी, धोंदीबा प्रश्न पूछते हैं और ज्योति राव स्पष्टीकरण या प्रति-प्रश्नों के साथ उनका उत्तर देते हैं. अपने संवाद के माध्यम से,पुस्तक विभिन्न पौराणिक मिथकों की हिंसक या छल की पुनर्व्याख्या करती है. यह दर्शाती है कि कैसे ये ब्राह्मणों के प्रभुत्व का वर्णन करते हैं. संवाद को 16 भागों में विभाजित किया गया है, जो प्रत्येक मिथक को शामिल करता है, धोंदीबा जिसमें प्रत्येक भाग की शुरुआत करते हैं. गुलामगिरी पर फुले का राजनीतिक दर्शन उनके शोध और उनके अध्ययन की गहराई को दर्शाता है साथ ही महत्वपूर्ण ढंग से, उनके द्वारा प्रयुक्त विभिन्न अलंकारिक शैलियों और रूप के बारे में उनकी चेतना की ओर भी इशारा करता है.

फुले ने निबंधों, पुस्तकों, पत्रों और यहां तक कि गाथागीतों के माध्यम से व्यापक रूप से लिखा और अपने राजनीतिक विचार और जाति-विरोधी सामाजिक दृष्टि को अपनी मातृभाषा मराठी में व्यक्त किया. उनके लेखन ने महिलाओं के अधिकार, आधुनिक शिक्षा, इतिहासलेखन, स्वाभिमान और श्रम अधिकारों जैसे विविध विषयों को छुआ और उनके ग्रंथों को महाराष्ट्र सरकार द्वारा उनके मरणोपरांत संस्थागत समर्थन मिला. फुले का काम भारतीय साहित्यिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आया, क्योंकि यह विभिन्न भारतीय भाषाओं में सार्वजनिक प्रिंट क्षेत्रों के उद्भव के साथ-साथ आया था.

सत्रहवीं शताब्दी के अंत में प्रिंट तकनीक बॉम्बे पहुंच गई थी, लेकिन दशकों तक महत्वहीन और अलग-थलग ही रही, अठारहवीं शताब्दी के अंत तक, जब तक मुख्य रूप से अंग्रेजी में निरंतर वाणिज्यिक मुद्रण शुरू नहीं हुआ. महाराष्ट्र में प्रिंट लेखन में मराठी भाषी पारंपरिक ब्राह्मणों के साक्षर वर्ग का बोलबाला था, जिससे दूसरी पहचानों की अभिव्यक्ति के लिए बहुत कम जगह बचती थी. फुले के अग्रणी कार्य को प्रिंट माध्यम से मिली असंख्य संभावनाओं द्वारा आकार दिया गया और इसलिए इसे प्रौद्योगिकी से अलग करके नहीं देखा जा सकता. इसके बावजूद, उन्हें और उनके लेखन को प्रिंट संस्कृति और मराठी साहित्य के संदर्भ में रखने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया.

मराठी का एक लंबा और दास्तानी इतिहास रहा है. शिवाजी जैसे मराठा शासकों के बीच प्रमुखता प्राप्त करने से पहले इसका उपयोग साहित्यिक और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा किया जाता था. उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक, लिखित और मौखिक रचनाओं से युक्त मराठी साहित्यिक संस्कृति पर पुणे के चितपावन या कोंकणस्थ ब्राह्मणों के एक छोटे सांस्कृतिक अभिजात वर्ग का प्रभुत्व था. पुणे में चितपावन ब्राह्मणों का सांस्कृतिक प्रभुत्व अठारहवीं शताब्दी में पेशवाओं के उदय के समय से था, जो समुदाय के सदस्य थे. मूल रूप से दक्षिणी कोंकण क्षेत्र से, चितपावन ब्राह्मण पुणे और साथ ही साथ मराठा शासित क्षेत्रों – धारवाड़ से बड़ौदा और कोल्हापुर से इंदौर तक चले गए थे. दशकों के विस्तार के बाद, 1818 में, तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा पेशवा सेना को पराजित कर दिए जाने के बाद पेशवाओं द्वारा शासित क्षेत्र का विशाल भाग बॉम्बे प्रेसीडेंसी में शामिल कर लिया गया.

इन उथल-पुथल भरे घटनाक्रमों और पेशवा दरबार के पूर्ण विघटन के बाद, स्थानीय चितपावन अपनी सामाजिक राजधानी पर कब्ज़ा करने में सफल रहे, विशेष रूप से पूर्व राजधानी पुणे में. जैसा कि इतिहासकार एलेन ई मैकडॉनल्ड ने 1968 के एक निबंध में बताया है, औपनिवेशिक प्रशासकों और उनकी नीतियों ने साहित्य में  चितपावन अभिजात वर्ग की दृढ़ता को सुनिश्चित किया. वह लिखती हैं कि बॉम्बे के गवर्नर माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने 1819 से 1827 तक “साक्षर समूहों में और क्षेत्र की सामाजिक व्यवस्था मे यथासंभव कम से कम दखल ” का प्रयास किया, जिससे ब्रिटिश अधिकारियों को सत्ता हस्तांतरण होने के बाद भी मराठी की लिखित संस्कृति पर चितपावनों को नियंत्रण स्थापित करने में मदद मिली.औपनिवेशिक अधिकारियों ने चितपावनों को क्लर्क के रूप में नियुक्त किया,उनके पारंपरिक कौशल का नए राज्य के लिए इस्तेमाल किया और प्रशासनिक और शैक्षिक ग्रंथों के मुद्रण और वितरण की सुविधा के लिए मराठी भाषा को औपचारिक रूप देने की वकालत की. लिखित मराठी के मानक का आधार पुणे के साक्षर वर्ग से आया जो काफी हद तक चितपावनों की भाषाई और शैलीगत उपयोग से प्रभावित है, जिसमें बड़ी संख्या में संस्कृत शब्दों और मूल कोंकण की कुछ विशेषताएं शामिल हैं- लेकिन पुणे की नहीं -जैसे कि नाक वाले स्वर.

1825 के बाद, एलफिंस्टन प्रशासन ने एक अनुवादक कार्यालय की स्थापना की, जिसमें मराठी में आधुनिक ग्रंथों का मसौदा तैयार करने में मदद करने के लिए पारंपरिक पंडितों को काम पर रखा गया. ये ग्रंथ बड़े पैमाने पर स्थानीय प्रशासन द्वारा अपनाए गए मानकों का पालन करते थे. ज्ञान के पश्चिमी रूपों सहित ऐतिहासिक कालक्रम ने भी अनुवाद के माध्यम से मराठी में प्रवेश करना शुरू किया. लोक गीत, भक्ति कविता, लोक रंगमंच और गाथागीत, लोकप्रिय पोवाड़ा और भरुद उच्च साहित्यिक संस्कृति की सीमाओं के बाहर व्यापक रूप से लोकप्रिय थे, लेकिन  स्थानीय बुद्धिजीवियों या ब्रिटिश लोगों द्वारा इन्हें “पाठ्य” के रूप में महत्व नहीं दिया गया फिर भी वे मौखिक रूप में बने रहे. क्षेत्रीय जातियों ने इन गैर-ब्राह्मणीय भाषा शैलियों और बोलियों का अभिव्यक्ति के लिए उपयोग करना जारी रखा, इसने मराठी भाषा की मार्मिकता और पहुंच को इस तरह से प्रदर्शित किया जिसे प्रारंभिक मुद्रित ग्रंथ नहीं कर सकते थे.

प्रारंभ में, भारत में मुद्रित ग्रंथ यूरोपीय पाठकों के लिए थे, जिनमें औपनिवेशिक प्रशासक, व्यापारी, मिशनरी और ओरिएंटलिस्ट विद्वानों का एक नवोदित वर्ग शामिल था. इस स्तर पर, भारतीय बड़े पैमाने पर कुशल और अकुशल श्रमिकों के रूप में, या भाषाई और साहित्यिक प्रवेश की पेशकश करने वाले विद्वानों के रूप में मुद्रण प्रक्रिया में लगे हुए थे. अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में स्थानीय मुद्रण परिदृश्य में मुंबई के पारसियों का प्रवेश महत्वपूर्ण रहा. जैसे ही इस समुदाय की व्यापारिकता और ब्रिटिश वाणिज्यिक हितों के सहयोग ने लाभ देना और अपने मालिकों के लिए अथाह धन कमाना शुरू किया, तो पारसियों ने आधुनिकता से जुड़ने की मांग की, अंग्रेजों से निकटता ने उनकी आंखें खोल दी थीं. 1812 में, एक पारसी उद्यमी फरदुनजिक मरज़बान ने भारत में “भारतीय” द्वारा संचालित पहला वाणिज्यिक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया. उन्होंने पारसियों और गुजराती-भाषी व्यापारियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली लिपि में धातु का एक फॉन्ट बनवाया, जिसे अब केवल गुजराती लिपि के रूप में जाना जाता है. उन्होंने अपने समुदाय के उपयोग के लिए गुजराती-भाषा की पुस्तकों को छापना शुरू किया. 1817 में मुंबई में स्थापित अमेरिकन मिशन प्रेस ने भी मराठी में धार्मिक सामग्री मुद्रित की जो बॉम्बे प्रेसीडेंसी के भीतर मिशन स्टेशनों में प्रचारित होती थी. 1835 के बाद, थॉमस ग्राहम ने प्रेस और टाइप ढलाई कारखाने का नेतृत्व किया और अपने टाइपो ग्राफिक नवाचारों के माध्यम से मराठी में मुद्रित पुस्तकों की गुणवत्ता में सुधार किया.

गणपत कृष्णजी ने 1841 में पहली बार एक पंचांग मुद्रित किया. मुद्रित ग्रंथों के लिए व्यापक पाठकों ने गुजराती की तरह अभी पूरा आकार नहीं लिया था. ग्राहम और मरजबन के पूर्व प्रशिक्षु कृष्णजी द्वारा 1840 में गणपत कृष्णाजी प्रेस की स्थापना के बाद यह परिदृश्य बदल गया. साभार : विकिमीडिया कॉमन्स

मुंबई, मुद्रित पुस्तकों के विकास के साथ-साथ भारतीय लिपियों में मुद्रण में तकनीकी नवाचार के लिए भी फायदे की जगह थी. औपनिवेशिक सरकार द्वारा संकलित धार्मिक पुस्तकें मराठी में छापी जा रही थीं, लेकिन मुद्रित पुस्तकों लिए के पाठकों ने अभी भी गुजराती की तरह व्यापक आकार नहीं लिया था. लेकिन ग्राहम और मरज़बान के पूर्व प्रशिक्षु गणपत कृष्णजी के 1840 में गणपत कृष्णाजी प्रेस की स्थापना के बाद यह परिदृश्य बदल गया.. महत्वपूर्ण रूप से, उनके प्रेस में छपी और प्रकाशित पुस्तकें वाणिज्यिक प्रसार के लिए लक्षित पहली मराठी पुस्तकें थीं, जो औपनिवेशिक हितों और मिशनरी क्षेत्रों से इतर रुचि रखने वाले पाठकों को लक्षित करती थीं. पहला मराठी मासिक दिग्दर्शन भी उनके प्रेस में छपा था.

मराठी में व्यावसायिक छपाई, उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से लेकर फॉन्ट गढ़ाई में शामिल श्रम तक, गैर-ब्राह्मण कारीगर जातियों के सदस्यों द्वारा नियंत्रित किया जाता था, विशेष रूप से भंडारी समुदाय द्वारा जो कोंकण क्षेत्र के मूल निवासी थे और पारंपरिक रूप से ताड़ी निकालने वाले थे. कृष्णजी, और प्रसिद्ध प्रेस और टाइप ढलाई करखाने, निर्नय सागर प्रेस के संस्थापक जावजी दादाजी जिन्हें संस्कृत की धार्मिक पुस्तकों के सुपाठ्य संस्करणों के लिए जाना जाता है – दोनों ही भंडारी थे. दादाजी की एक जीवनी के अनुसार, वह इस तथ्य का प्रचार करते थे कि उनकी पुस्तकों में “गाय के घी से बनी स्याही” का उपयोग किया जाता है ताकि पाठकों को आश्वस्त किया जा सके कि ब्राह्मणवादी अनुष्ठान शुद्धता के मानदंडों से कोई विचलन नहीं हुआ है. इस अगस्त में, इतिहासकार प्राची देशपांडे ने बातचीत के दौरान बताया, कथित अशुद्धता एक कारण था जिससे ब्राह्मण छपाई प्रक्रिया में प्रत्यक्ष भागीदारी से दूरी बनाए रहे, या संकोच करते रहे. अपनी गैर-ब्राह्मण जाति के बावजूद भी कृष्णजी और दादाजी सहित अधिकांश मुद्रक, पाठ्य उत्पादन के ब्राह्मण-प्रधान ढांचे के भीतर ही काम करते थे. उन्होंने जो ग्रंथ छापे, वे मुख्य रूप से हिंदू धार्मिक कार्यों और मराठा इतिहास के प्रतिकृति थे. समाजशास्त्री वीणा नरेगाल ने अपनी पुस्तक लैंग्वेज पॉलिटिक्स, एलीट्स एंड द पब्लिक स्फीयर में इन मुद्रकों की सीमाओं के बारे में बताते हुए लिखा है कि “संरचनात्मक बाधाओं ने ऐसे लोगों को स्थानीय भाषा पढ़ने वाले लोगों का दायरा बढ़ाने के वैकल्पिक प्रयास शुरू करने से रोका. मुद्रक-प्रकाशक के रूप में वे प्रकाशन के लिए, पुस्तकों की रचना के लिए ब्राह्मणों और अन्य उच्च-जतियों पर निर्भर रहे .” मुद्रण के इन प्रारंभिक वर्षों में, संपादकीय नियंत्रण और पाठ्य रचना पारंपरिक रूप से साक्षर वर्गों का क्षेत्र रही, जबकि पाठ्य उत्पादन की तकनीकी प्रक्रिया में शामिल श्रम गैर-ब्राह्मण जातियों के सदस्यों को रोजगार देता रहा.

प्रभाकर अखबार जैसे सुधारवादी प्रकाशन भी सामने आए,  जिसे इतिहासकार रोजालिंड ओ’हानलॉन “पश्चिम भारत में सुधारवादी अभिव्यक्ति के लिए मुख्य मुखपत्र” के रूप में वर्णित करते हैं. हालांकि, महाराष्ट्र के पारंपरिक साहित्यिक अभिजात वर्ग को हटाने के बजाय, मुद्रण में औपनिवेशिक प्रशासन ने बड़े पैमाने पर अपनी जगह को मजबूत किया. उदाहरण के लिए, इतिहासकार गॉर्डन जॉनसन ने देखा कि “अंग्रेजी साक्षरता ने चितपावनों को प्रशासन और व्यवसायों में एक मजबूत स्थान दिलाया, लेकिन स्थानीय भाषा में साक्षरता ने उन्हें महाराष्ट्र में संचार के नए तरीकों का एक आभासी एकाधिकार दे दिया.”

महाराष्ट्र में प्रिंट की शुरुआत से संचार के नए तरीकों का भी विकास हुआ. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जैसे-जैसे पत्रकारिता संवाद के एक माध्यम के रूप में उभरी, इसमें भी इन प्रमुख समूहों, विशेष रूप से पुणे के चितपावनों का वर्चस्व होने लगा. 1891 की जनगणना के अनुसार, ब्राह्मणों की आबादी पुणे की आबादी का लगभग चार प्रतिशत थी, फिर भी, 1902 में, मराठी समाचार पत्रों में अस्सी प्रतिशत से थोड़ा अधिक संपादकीय पदों पर और पिचानवे प्रतिशत समाचार पत्रों के वितरण पर उनका नियंत्रण था. समाजशास्त्री गेल ओमवेट ने एक औपनिवेशिक समाज में सांस्कृतिक विद्रोह पर एक टिप्पणी की कि “जनसंख्या का 4% हिस्सा बनाने वाली जातियों के लिए, यह अनुपातहीन प्रतिनिधित्व से अधिक; यह एकाधिकार था.” पत्रकारिता में उनके एकाधिकार ने, जैसा कि साहित्य के साथ होता है, उन्हें यह तय करने की अनुमति दी कि किन मामलों को व्यापक सार्वजनिक मुद्दे बनाए और किसके दृष्टिकोण को आवाज दें.

फुले ने “गुलामगिरी” में कहा है कि कर्मकांडी शुद्ध समाचार पत्र की उन सभी अतिशूद्रों के बारे में क्या राय है कैसे जान सकते हैं जिनसे उनका कभी कोई लेना-देना नहीं था?” उन्होंने यह भी कहा कि ब्राह्मणों द्वारा मराठी अखबारों का इस्तेमाल गैर-ब्राह्मणों को उनके हितों के खिलाफ काम करने के लिए किया गया था. वह मुद्रण और पत्रकारिता को नियंत्रित करने वाले दो पक्षों-ब्राह्मण संपादकों और ईसाई मिशनरियों (उदाहरण के लिए, ज्ञानोदय, एक मराठी मासिक, अमेरिकी मिशन द्वारा प्रकाशित किया गया था) को संदर्भित करते हुए, “अखबारों, कों भट और मिशनरी” बतौर भी संदर्भित करते हैं. अपनी 1883 की पुस्तक कल्टीवेटर्स व्हिपकॉर्ड के प्रकाशन में देरी होने पर, उन्होंने यह भी कहा कि “शूद्रों के बीच हम कायर प्रकाशक हैं.” गुलमगिरी के अंत में, फुले ने कोल्हापुर से प्रकाशित मिशनरी आवधिक शुभवर्तमन और चर्च संबंध नानविधा संग्रह में अपने साथी शूद्रों से की गई एक अपील के जवाब का भी उद्धरण दिया हैं: “यह लेख हमें इसलिए भेजा गया है क्योंकि पुणे के स्थानीय पत्रकारों ने अपने अखबारों में इसे छपने नहीं दिया.चूंकि श्री फुले ने हमारे समाचार पत्र में लेख प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की है, इसलिए हमने इसे इस अंक में शामिल किया है.”

इस माहौल में फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ अपना काम शुरू किया. पुणे के एक स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में शिक्षित, फुले अंग्रेजी भाषा में सहज थे. उन्होंने थॉमस पेन की मानवतावादी पुस्तक  “राइट्स ऑफ मैन” का उन पर और उनके विचारों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में लिखा है. फुले की जाति व्यवस्था की आलोचना दर्शन और ऐतिहासिक आख्यानों की पुनर्व्याख्या में निहित थी, और पारंपरिक और पश्चिमी दोनों शैलियों की एक श्रृंखला में व्यक्त की गई थी. जैसा कि प्राची देशपांडे ने क्रिएटिव पास्ट्स: हिस्टोरिकल मेमोरी एंड आइडेंटिटी इन वेस्टर्न इंडिया, 1700-1960 में देखा है, उनका लेखन “पूरी तरह से आधुनिक था और जाति के धार्मिक रूप से झुकाव वाले सुधारवादी समालोचनाओं से एक क्रांतिकारी विराम का प्रतिनिधित्व करता था,” समानता की मानवतावादी धारणाओं की अपील करने की बजाए जाति को धार्मिक रूप से अस्वीकृत या अन्यायपूर्ण दिखाने की कोशिश करता था. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फुले ने इन विचारों को प्रिंट के माध्यम से व्यापक प्रसार के लिए लिखित रूप में व्यक्त किया. इसके विपरीत, जाति व्यवस्था के पहले के आलोचकों ने अभिव्यक्ति के मौखिक रूपों पर भरोसा किया और उनका संदेश “पुस्तकों” की बजाए मौखिक रूप से प्रसारित किया गया था. ऐसा करके, फुले जाति-विरोधी विचारों को लिखित शब्दों में आधुनिक मराठी साहित्यिक संस्कृति के दायरे में लाए. ऐसा कर फुले ने जाति विरोधी विचारधारा को मुद्रित शब्दों की परिधी में ला दिया. और इस प्रकार आधुनिक मराठी साहित्य संस्कृति की परिधी में भी. इस तरह के लेखन को आर्थिक लेखन या व्याकरण पर लेखन की बराबरी पर रखा जा सकता है.

वह रूप में भी नयापन लिए हुए थे. ट्रुतिया रत्न -तीसरा गहना- 1855 में लिखी गई उनकी पहली लिखित कृति एक संवाद के रूप में है. फुले के लेखन में दासता के खिलाफ अफ्रीकी-अमेरिकी प्रतिरोध के साथ एक परिचित और गहरा सम्मान प्रदर्शित होता है. गुलामगिरी में लगे होने के अलावा, उन्होंने 1885 में प्र​काशित पत्रिका सतसार के दूसरे संस्करण में अंकल टॉम के केबिन का भी हवाला दिया. उसी वर्ष, फुले ने पुणे में समान विचारधारा वाले सहयोगियों के साथ मिलकर सत्यशोधक समाज की स्थापना की. सत्या शोधक समाज एक जाति-विरोधी लामबंदी और सामुदायिक संगठन के साथ गैर-ब्राह्मण पहचान और विचार के विकास के लिए बनाया गया एक मंच था.

फुले की राजनीति का विस्तार तब हुआ जब उन्होंने में मराठी में लिखा. उनके लेखन ने पुणे के चितपावन साहित्यिक अभिजात वर्ग द्वारा निर्धारित “सही” या “परिष्कृत” मराठी के भाषाई मानदंडों को चुनौती दी और इसकी जगह गैर-ब्राह्मण भाषा को प्रतिबिंबित किया. वह मराठी की प्रामाणिक साहित्यिक सूची से अच्छी तरह परिचित थे, लेकिन उन्होंने देशपांडे को  चित्रित कर इसे उलटने और यहां तक कि इसका सामना करने का फैसला किया. “उनके लेखन में प्रभावशाली किसानी भाषा है. वह “जोती” नाम से जाने जाते हैं. एक स्थानीय मराठी नाम, जिसे उन्होंने अंग्रेजी और मराठी दोनों में इस्तेमाल किया, इसे आमतौर पर ज्योति के रूप में लिखा जाता है. ऐसा करने वालों में महाराष्ट्र सरकार भी शामिल है, जो एक अधिक संस्कृत निष्ठ मराठी में फिट होने के लिए उनके नाम में एक सचेत और पूर्वव्यापी “सुधार” को दर्शाता है.

फुले ने जान-बूझकर मराठी साहित्य में इस्तेमाल होने वाले संस्कृत शब्दों को भी छोड़ दिया, जिनको समझ पाना एक नए साक्षर पाठक के लिए कठिन होता. यहां तक कि उन्होंने अपने पात्रों की भाषा में गाली-गलौज और अपशब्दों को भी शामिल किया, जिससे कुछ प्रभावशाली समीक्षकों को सामाजिक रूप से झटका लगा. उनकी भाषा में फारसी शब्द भी शामिल थे जिन्हें औपचारिक लेखन में टाला जाता था लेकिन बोलचाल में उपयोग किया जाता था. उनकी भाषा में कृषि और व्यापार से जुड़े आजीविका के कई संदर्भ शामिल हैं, जो गैर-ब्राह्मण जीवन शैली के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाता है. यह केवल एक शैलीगत चुनाव नहीं था; फुले इन जातियों के सदस्यों को सीधे संबोधित कर रहे थे, उनसे एक ऐसी भाषा में बात कर रहे थे जो उनकी  खुद की भाषा थी. उदाहरण के लिए, 1855 मे बॉम्बे हाई कोर्ट के जज और समाज सुधारक एमजी रानाडे को संबोधित एक पत्र का, फुले ने मराठी-प्रभावित दक्खिनी बोली में एक पंक्ति का निष्कर्ष निकाला, जिसका इस्तेमाल स्थानीय मुसलमानों द्वारा किया जाता था: “साडे होके बुड्डे का ये पहला सलाम लेव,” जिसे जीपी देशपांडे ने जोतिराव फुले के चयनित लेखन के परिचय में “इस बूढ़े व्यक्ति की सलामी स्वीकार करें” के रूप में अनुवादित किया है. यह प्रतीत होता है कि इस उछाली हुई पंक्ति का साहित्यिक महत्व है; जैसा कि देशपांडे कहते हैं, ” फुले को छोड़कर, गरीब मुस्लिम किसान या कारीगर उन्नीसवीं सदी तक मराठी लेखन में बिल्कुल भी शामिल नहीं हैं.” पत्रकार और शोधकर्ता तेजस हराद ने मुझे बताया कि फुले उसी तरह लिखते जिस तरह बोलते. उन्होंने पारंपरिक रूप से साक्षर अल्पसंख्यक, जिनके भाषाई छपी किताबों पर हावी थी, के बजाए पुणे के गैर-ब्राह्मण जनता की भाषा को प्रतिबिंबित किया। हरद ने कहा कि फुले आसानी से अपने समकालीनों या अपने से पहले वालों की छपी रचनाओं की शैली के इर्द-गिर्द लिखना चुन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं करने का एक सचेत निर्णय लिया होगा.

उनकी कोशिशें भी आलोचनाओं से बच न सकीं. उनमें से उल्लेखनीय थे विष्णुशास्त्री चिपलुनकर, एक प्रभावशाली चितपावन साहित्यिक आलोचक और निबंधकार जिन्होंने फुले के लेखन और भाषा पर हमला किया, यहां तक कि जातिवादी शब्दों का सहारा भी लिया. अकादमिक सूरज थुबे लिखते हैं कि” चिपलुनकर अक्सर अपने प्रकाशन में फुले का उपहास उड़ाते थे,एक बार फिफ्टी टू के लिए लिखे एक लेख में, उन्हें  मानवता का लिबास ओढ़े सबसे दयनीय कलाम घिस्सू कहा था.” फुले के ब्राह्मणवाद विरोधी और वैदिक परंपराओं की उनकी आलोचनाओं के जवाब में, उन्होंने फुले की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर धूर्तता से कटाक्ष किया, उन्हें ‘शूद्र जगद्गुरु’ या शूद्र विश्व नेता करार दिया; और ‘शूद्र धर्मसंस्थापक’ कहा.

प्राची देशपांडे के अनुसार चिपलूनकर ने “संस्कृत पर आधारित आधुनिक मराठी भाषा के लिए भी तर्क दिया.” इतिहासकार क्रिश्चियन ली नोवेट्ज़के का सुझाव है कि फुले की भाषा के प्रति चिपलुनकर की शत्रुता गैर-ब्राह्मण भाषा के लिखित मराठी में पैर जमाने के प्रयासों का विरोध करने की उनकी इच्छा से आई है. अफसोस की बात है कि मराठी साहित्य के कई इतिहासकार, जो ज्यादातर चितपावन थे, ने फुले की साहित्यिक योग्यता पर चिपलुनकर के आकलन का बड़े पैमाने पर समर्थन किया और फुले को मराठी साहित्य के इतिहास से बाहर रखने का विकल्प चुना. उदाहरण के लिए 1939 में प्रकाशित जीसी भाटे की “आधुनिक मराठी साहित्य का इतिहास”, उन्नीसवीं शताब्दी के बाद मराठी में हुए साहित्यिक प्रयासों का व्यवस्थित विश्लेषण करने वाली पहली अंग्रेजी किताब थी. “आधुनिक” मराठी से उनका मतलब मुद्रित रूप में मराठी से है, जिसका उन्होंने बॉम्बे प्रेसीडेंसी में निरंतर मराठी मुद्रण की शुरुआत होने से पहले गोवा, सेरामपुर और तंजौर में अलग-अलग मुद्रण प्रयासों का पता लगाया. पुस्तक में मराठी के मुद्रण इतिहास में विभिन्न शैलियों, प्रारूपों, वैचारिक संबद्धता और क्षेत्र में विभिन्न अवसरों का विस्तृत विवरण शामिल है. भाटे आधुनिक मराठी लेखकों को युग के अनुसार वर्गीकृत करते हैं, उनके लेखन और विचारों की खोज करते हैं. हालाँकि, उनके द्वारा सूचीबद्ध 128 मराठी लेखकों में से 114 ब्राह्मण थे. फुले को भी भाटे की किताब में शामिल किया गया है लेकिन उन्हें काफी हद तक नकारात्मक चित्रित किया गया है. भाटे ने उन्हें एक कट्टर और उपद्रवी के रूप में खारिज कर दिया, उन्हें “विवाद का शौकीन, और एक अच्छा खिलाड़ी के रूप मे चित्रित किया. भाटे ने फुले का वर्णन “अपमानजनक” ढंग से किया, जबकि छत्रपति शिवाजी भोंसले के गाथागीत को “अप्रासंगिक तरीके” से ब्राह्मणों को गाली देने के रूप में चित्रित किया है, जो फुले के “पूरी तरह से कट्टर” स्वभाव को प्रकट करता है. फुले के कई अन्य लेखों की उपेक्षा करते हुए, भाटे ने केवल इन दो कार्यों और गुलमगिरी का उल्लेख किया है.उन्होंने फुले के लेखन से उनके साहित्यिक गुणों को नकारते हुए, उनको केवल टकराव तक ही सीमित कर दिया. दूसरी ओर भाटे, चिपलुनकर की मराठी भाषा पर उनकी स्पष्ट पकड़ के लिए प्रशंसा करते हैं: वह आगे लिखते हैं कि विष्णु शास्त्री की ”साहित्यिक और सार्वजनिक भलाई और अपने देश के लिए आत्म बलिदान की भावना देख कर उनके उत्साह और ऊर्जा से कोई भी दंग रहता.” एमके नाडकर्णी की किताब, ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ मराठी लिटरेचर, फुले के लेखन पर पूरी तरह से प्रकाश डालती है. हालांकि, इसमें चिपलुनकर का उल्लेख “कई शिक्षाप्रद और आलोचनात्मक निबंधों” के लेखक के रूप में किया गया है.

 प्रिंट तकनीक फुले और उनके मिशन के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी, वह सीधे ही मुद्रण प्रक्रिया में शामिल हो गए.  उनकी सभी पुस्तकें पहले मिशनरी और सरकारी प्रेस में छपती थीं और बाद में निजी प्रेस से- गुलमगिरी सरकारी स्वामित्व वाले पुणे सिटी प्रेस में छपी थी, राजा छत्रपति शिवाजी भोसले की गाथा (1869) मिशनरी ओरिएंटल प्रेस से छपी थी. सार्वजनिक सत्य धर्मपुस्तक (1891) वाणिज्यिक सुबोध प्रकाश प्रेस में छापी थी.

1874 में, बॉम्बे के एक तेलुगु भाषी व्यवसायी और सत्यशोधक समाज के सदस्य रामय्या वेंकय्या अय्यवरु ने फुले को बारह सौ रुपए का एक प्रिंटिंग प्रेस दान किया. कास्ट, कंफ्लिक्ट एंड आइडियालॉजी में रोज़लिंड ओ’हानलन लिखते हैं, महात्मा जोतिराव फुले का प्रेस चलाने का शुरुआती इरादा उन्नीसवीं सदी के पश्चिमी भारत में निम्न जातियों  का विरोध दर्ज करना था.  “दयालु अंग्रेजी सरकार के सामने यह प्रकाशित करना था कि सत्य शोधक समाज के उद्देश्य क्या हैं, और सरकार के ब्राह्मण सेवकों से शूद्र लोगों को किन कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है.” समाज के एक युवा सदस्य, कृष्णराव भालेकर समाज के सदस्यों के लेखन को छापने के लिए प्रेस का उपयोग करने के इच्छुक थे. फुले इसका विरोध कर रहे थे और छपाई के मुद्दे पर दोनों में कटुता आ गई थी. ओ’हानलन लिखते हैं कि प्रेस के खर्चे ने समाज पर एक वित्तीय बोझ बड़ा दिया, अंततः उन्होंने इसे देने का फैसला कर दिया. निराश होकर, भालेकर ने अपना खुद का प्रेस खरीदा और 1877 में दीनबंधु को छापना शुरू किया. यह पहला मराठी अखबार था जो मजदूर जनता के लिए लिखा गया था. यह देखते हुए कि इसके अधिकांश पाठक निरक्षर थे, इसका प्रसार सीमित था. 1879 में यह पुणे में बंद हो गया और बाद में बॉम्बे से फुले के सहयोगी एनएम लोखंडे द्वारा चलाया गया.

लोखंडे के नेतृत्व में, ‘दीनबंधु’, बॉम्बे प्रेसीडेंसी में बाल गंगाधर तिलक के  ‘केसरी’ जो पारंपरिक ब्राह्मण दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता था के बाद दूसरा सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला मराठी अखबार बन गया था. यह संभव है कि फुले का सत्य शोधक समाज की प्रेस में शामिल होने का विरोध इस संशय के कारण हुआ हो -इस बात को लेकर कि क्या यह अपने पाठकों तक पहुंच पाएगा, या फिर ​कीमती संसाधनों को भी तहस—नहस कर देगा. 1885 मे सत्य शोधक समाज प्रकाशन ने स्वाभिमान विवाह के लिए दिशा-निर्देशों और प्रतिज्ञाओं की रूपरेखा तैयार की, जिसने ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों को समाप्त कर दिया और इसके बजाय दोनों भागीदारों के बीच आपसी सम्मान पर ध्यान केंद्रित किया. इसके पहले पन्ने में फुले को इसका श्रेय दिया जाता है लेकिन प्रकाशन का श्रेय लोखंडे को दिया जाता है. प्रेस को दीनबंधु प्रेस के रूप में दर्ज किया गया है – संभवतः वही प्रिंटिंग प्रेस जिसका अखबार के लिए इस्तेमाल किया गया था.

उसी वर्ष फुले ने पुणे में सौजन्या मित्र प्रेस से छपी एक पत्रिका सतसार- द एसेन्स ऑफ ट्रुथ- का प्रकाशन करते हुए नियतकालीन लेखन में कदम रखा. पत्रिका, साप्ताहिक होने का इरादा रखती थी, अंततः प्रिंट में केवल दो मुद्दे थे. पहले संस्करण की प्रस्तावना में, फुले लिखते हैं कि “हम किसी भी असमान्य समय पर इस पत्रिका में आगे के मुद्दों को प्रकाशित करने के लिए बाध्य नहीं होंगे,” जैसे कि वह एक ऐसी कल्पना कर रहे थे जो कि संभव नहीं थी.

हालांकि फुले का काम, राजनीति, लेखन और प्रिंट माध्यम का उपयोग आधुनिकता के कारण था, लेकिन उन्होंने प्रिंट से पहले के पारंपरिक मौखिक रूपों का रणनीतिक उपयोग भी किया. उन्होंने उन सामाजिक शैलियों का इस्तेमाल किया जो पश्चिमी में बहुत आम थीं, जैसे कि निबंध, लेकिन उन्होंने इसमें पारंपरिक मराठी मौखिक शैलियों जैसे पोवाड़ा –गाथा गीत -या अभंग- भजन- को आधुनिक मानवतावादी भावना से मिला दिया. उन्होंने लगभग दो सौ अखंडों की रचना की , उन्होंने एक नयी रचना की, राजनीतिक वैज्ञानिक मधुरा दामले लिखते हैं, ” जो तुकाराम जैसे भक्ति कवियों की छंदात्मक रचनाओं और अभंगों से प्रेरणा लेती है और फिर भी उस परंपरा से अलग है.”

पोवाड़ा शैली का मराठी में एक विशेष महत्व रहा है. प्राची देशपांडे ने इसका “गौरव गाथा एक समकालीन, मुख्य रूप से मौखिक और काव्यात्मक रूप” के रूप में वर्णन किया है, जो व्यापक रूप से लोकप्रिय रही और पिछली शताब्दी से जिसका मराठा सैन्य कौशल का गुणगान करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. फुले का दूसरा प्रकाशन, द बैलाड ऑफ किंग छत्रपति शिवाजी भोसले 1869 में लिखी गई जिसे  पोवाड़ा के रूप में लिखा गया था और इसे गाया जाने का इरादा था. ओमवेट ने एक औपनिवेशिक समाज में सांस्कृतिक विद्रोह में लिखा है कि, फुले ने पौराणिक राजा को हिंदू धर्म के रक्षक के बजाय एक किसान राजा के रूप में चित्रित किया, जिसमें ” शूद्र राजा” के रूप में उनकी भूमिका और दक्कन के किसानों के बीच उनके समर्थन के लोकलुभावन आधार पर जोर दिया गया.

फुले के अधिकांश लेखन कार्यों में मौखिक ताल  मुख्य थी . हरद और प्राची देशपांडे दोनों का मानना था कि ऐसा इसलिए था क्योंकि इन लेखों को मराठी भाषी क्षेत्र में अनपढ़ गैर-ब्राह्मण पाठकों के लिए जोर से पढ़ा जा सके और नए साक्षर शूद्र पाठकों के लिए भी पढ़ना आसान हो. देशपांडे उनके लेखन में दोहराव और अनुप्रास शैली के प्रभाव पर भी ध्यान आकर्षित करते हैं .” ट्रुतिया रत्ना ,गुलामगिरी और कल्टीवेटर में विभिन्न पात्रों के बीच तीखे संवाद हैं, जो निबंध- के साथ-साथ बोलचाल की भाषा को दर्शाते हैं. फुले किसी संस्मरण को छापने से पहले उसके कुछ पाठ अपने पाठकों को पढ़ के सुनाते थे. 

हैदराबाद के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नोवेट्ज़के और माया पंडित-नारकर बताते हैं कि फुले ने लिखित मराठी के उभरते मानदंडों के बारे में साहित्यिक सिद्धांत और बातचीत में भाग नहीं लिया, जिसमें उनके कई समकालीन शामिल थे. उनकी भाषा अधिक कार्यात्मक और मुख्य रूप से संचार के लिए अभिप्रेरित थी. उन्होंने 1885 में एमजी रानाडे द्वारा आयोजित मराठी लेखकों के एक सम्मेलन का हिस्सा बनने से भी इनकार कर दिया. रानाडे को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, “ये उच्च जाति के लेखक जो हमेशा वास्तविकता से मीलों दूर हैं और जो केवल औपचारिक और अर्थहीन भाषण दे सकते हैं. ये कभी नहीं समझ सकते कि हम शूद्रों और अतिशूद्रों को क्या भुगतना पड़ता है और हमें किन विपत्तियों से गुजरना पड़ता है, हम अपनी किताबों में जो कहने की कोशिश कर रहे हैं वे उससे सहमत नहीं हो सकते.” 

फुले वाडा, पुणे में फुले और सावित्रीबाई का एक चित्र. मराठी आधुनिक साहित्य में उनका स्थान पूरी तरह से चित्रित किया जाना बाकी है। हालांकि, मुद्रण के माध्यम ने निस्संदेह उनकी और उनके अनुयायियों की सेवा की, जिन्होंने उनकी शिक्षाओं को धारण करके उनकी विरासत को आगे बढ़ाया. कारवां के लिए स्टीफन चिनॉय

गुवाहाटी आईआईटी की एक प्रोफेसर रोहिणी मोकाशी-पुणेकर अपनी  किताब बहुभाषी भारत में, लिखती हैं कि फुले के गद्य के अनुवाद “कुल मिलाकर, उनके गद्य की बीहड़ता को को सुगम बनाते हैं,” यह आगे बताती हैं “उनके तीखे और कठिन विभिन्न भाषाई कार्यों को अनुवाद की एकल जनभाषा में  समाहित करना मुश्किल है”. वह फुले के ऊपर अंग्रेजी के मिशनरी साहित्य के प्रभाव का पता लगाने का भी प्रयास करती हैं. जैसे उन्नीसवीं सदी के मिशनरी लेखक बाल चन्द्र नामेदेव के अध्ययन में  जिसमें उन्होंने संवाद की शैली को लिया है. हालांकि, उनका तर्क है कि “फुले की संवाद शैली पर एक और प्रभाव हो सकता है, जो मराठी साहित्य की दिशा में इंगित होता है. मराठी साहित्य में कविता के पारंपरिक रूपों में, भारूद नाटक कविता की एक शैली है जिसमें कई वारकरी कवि संत सामाजिक और धार्मिक अनुभव पर अपने विचार व्यक्त करते थे. भक्ति अभंग के विपरीत, जिसे वारकरियों द्वारा जोर से गाया जाता था,  भारूद नाटकीय है और इसका अभिनय निम्न वर्ग के दुबले-पतले कलाकारों द्वारा किया जाता है, जो अक्सर संख्या में केवल दो होते हैं. इस माह की शुरुआत में हुई एक बातचीत में मोकाशी- पुणेकर ने त्रुतिय रत्न के रूप पर भी विस्तार से प्रकाश डाला, जो नाटक फुले के जीवनकाल में कभी प्रकाशित नहीं हुआ था, लेकिन संभवतः सत्य शोधक समाज के कार्यक्रमों में अभिनीत किया गया था. उन्होंने कहा, इस नाटक को पहला आधुनिक मराठी नाटक माना जा सकता है, जो मंच के निर्देशों और पौराणिक कथाओं से अलग है.

नोवेट्ज़के ने फुले के लेखन को तीन अलग-अलग भागों में प्रदर्शित किया: अंग्रेजी गद्य, मराठी गद्य और मराठी कविता और अक्सर एक ही पाठ के भीतर उनके बीच कुछ हद तक अदल-बदल के साथ. उन्होंने बताया “पहले दो के साथ, उन्होंने अंग्रेजी-मराठी में सामाजिक विषयों को लक्षित करने और प्रतिक्रियाओं को भड़काने के लिए लिखा” .”तथ्य यह है कि वह उन प्रमुख आवाजों में से एक हैं जो गैर-ब्राह्मण साहित्यिक संस्कृति की पिछली परंपरा का विस्तार करते हैं और इस संस्कृति के नए मुहावरे गढ़ते हैं, विशेष रूप से अंग्रेजी भाषा के माध्यम से, जो उनके राजनीतिक कामों में एक सहयोगी है.” भारतीय साहित्य में फुले का मौखिक विधाओं का उपयोग समकालीन धाराओं के विपरीत है, जो सामाजिक बहस के लिए उपन्यास को प्राथमिकता देता है. हालांकि उपन्यास एक ऐसा माध्यम था जिससे फुले परिचित थे, फिर भी उन्होंने कभी भी इसे लिखने का विकल्प नहीं चुना.

फुले का काम सत्यशोधक समाज द्वारा पूरे महाराष्ट्र में अपनी क्षेत्रीय बैठकों के माध्यम से और अपने सहयोगियों के लेखन और प्रकाशनों द्वारा किया गया. फिर भी उनका काम उतना विस्तार नहीं पा सका. यह इसलिए हो सकता है, क्योंकि फुले के स्वभाव का जोश और मौलिकता देने वाली कई विशिष्टताएं उन्हें अंग्रेजी अनुवाद में, या यहां तक कि मूल मराठी में पढ़ने मे भी चुनौतीपूर्ण लेखक बनाती हैं. फुले के अनुवाद इस कठिनाई को स्वीकार करते हैं. 1912 में छपी गुलामगिरी के दूसरा संस्करण में , अय्यवरु की प्रस्तावना में इसका संकेत मिलता है : “मूल पाठ ऐसी भाषा में था जिसे समझना आसान नहीं था. इसलिए हमने शब्दों के सही और गलत रूपों पर ध्यान देकर इसे समझना थोड़ा आसान बना दिया है.” जीपी देशपांडे ने फुले का अनुवाद करने की चुनौतियों के बारे में भी लिखा है, जिसमें कहा गया है कि “उनकी मराठी भाषा की ताकत और तीखे पन का अनुवाद करना असंभव है .” अम्बेडकर जो फुले के विचारों से बहुत प्रभवित थे, ने भी फुले के कार्यों का अंग्रेजी में अनुवाद करने की योजना बनाई थी, एक ऐसा प्रयास जिसे वे अंततः करने में असमर्थ रहे. हरद ने मुझे बताया कि फुले के लेखन की तुलना में फुले के समकालीन ब्राह्मण लेखकों को पढ़ना अक्सर आसान होता है, क्योंकि आज मानक मराठी के मानदंड उनकी भाषा के अनुरूप हैं. वास्तव में, फुले की कृतियों के अंग्रेजी में कुछ ही अनुवाद हैं. महाराष्ट्र सरकार आयोग द्वारा फुले की संकलित रचनाओं का अनुवाद पीजी पाटिल के द्वारा कराया गया है जो अनुवाद की गुणवत्ता में निम्न माना जाता है. ओ’हानलन द्वारा अपनी पुस्तक, कास्ट, कॉन्फ्लिक्ट, एंड आइडियोलॉजी और मधुरा दामले की इंडियन लिटरेचर, साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एक द्विमासिक पत्रिका में उद्धृत फुले की कविताओं  का अंग्रेजी में अनुवाद केवल पाटिल द्वारा किया गया है.

ट्रांसलेशन टुडे के साथ एक साक्षात्कार में , पंडित-नारकर , जिन्होंने गुलामगिरी का अंग्रेजी में अनुवाद किया, ने कहा कि ” फुले एक अनुवादक का दुःस्वप्न है.” उन्होंने मुझे बताया कि फुले ने अपने लेखन में कई मुहावरों का इस्तेमाल किया, विशेष रूप से जब वो पूर्व-औद्योगिक कृषि का उल्लेख करते हैं और जो आज मौजूद नहीं है, क्योंकि उनका सामाजिक संदर्भ काफी हद तक गायब हो गया है. उन्होंने बताया कि इन शब्दों और वाक्यांशों को समझाना मुश्किल है क्योंकि वे पुराने मराठी शब्दकोशों में भी दर्ज नहीं हैं- जैसे कि मोल्सवर्थ की ए डिक्शनरी ऑफ मराठी एंड इंग्लिश , जो 1857 में प्रकाशित हुई थी, जिसे आज शोधकर्ताओं द्वारा संदर्भित किया जाता है. फुले ने सक्रिय रूप से भी शब्दों का निर्माण किया और उनके प्रतीकात्मक रूप का उनके शाब्दिक अर्थ में उपयोग किया. उनका मुहावरा लेखन विभिन्न प्रभावों को दिखाता है, जिसमें मिशनरी गद्य, पारंपरिक मौखिक शैली, द्खिन सल्तनत में फारसी इतिहास लेखन से प्रेरित इतिहास लेखन की मराठा- बखर परंपरा और बोलचाल की मराठी की विभिन्न बोलियाँ शामिल हैं. वह समकालीन  घटनाओं के बारे में भी लिखते हैं जो अच्छी तरह से प्रलेखित भी नहीं हैं, इन संदर्भों को संदर्भित करने के लिए पाठक और अनुवादक दोनों ही को इस से परिचित होने की आवश्यकता होती है.

पंडित-नारकर ने उल्लेख किया कि 1890 में फुले के निधन पर स्थापित मराठी साहित्यकारों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई और उन्होंने उनके काम और उपस्थिति को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. साथ ही, बड़े गैर-ब्राह्मण आंदोलन में उनका खड़ा होना बहस का एक स्रोत था और जैसा कि ओ’हानलन लिखते हैं, “उनका  अडिग कट्टरवाद और उनकी अड़ियल व्यक्तिगत शैली ने उन्हें उनके जीवन के अंतिम वर्षों के दौरान अलग-थलग छोड़ दिया है.

जैसे-जैसे मुद्रण अधिक सुलभ होता गया और साक्षरता गैर-ब्राह्मण जातियों में भी पंहुची तो गैर-ब्राह्मणों के स्वामित्व वाले प्रेस क्षेत्र के कई शहरों और कस्बों में फैल गए, जो विकेन्द्रीकृत बौद्धिक जाल के हिस्से के रूप में तितर-बितर होकर लेख और अखबार प्रकाशित कर रहे थे. इनमें से कुछ, सत्य शोधक समाज से प्रभावित लेखकों द्वारा स्थापित थे और सीधे फुले को नाम से संदर्भित करते और उनके काम में लगे हुए थे. स्पष्ट रूप से, भालेकर, लोखंडे और सत्य शोधक समाज के युवा सदस्यों की मुद्रित करने की प्रेरणा बढ़ती हुई पाठक संख्या से प्रेरित थी.

सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्रद्धा कुम्भोजकर, वर्तमान में एक परियोजना पर काम कर रहे हैं जिसमें मराठी में गैर-ब्राह्मण समाचार पत्रों को संग्रहित करना शामिल है, उन्होंने मुझे बताया कि सत्य शोधक समाज के सदस्यों ने बड़े पैमाने पर फुले और उनके काम को सीधे तौर पर संदर्भित करने से परहेज किया, यह कहते हुए कि यह संभवतः उनके लेखन के टकराव शैली की प्रतिक्रिया थी. उनमें से कुछ ने जोती शब्द का परोक्ष संदर्भ के बजाय इसे “लौ” के शाब्दिक अर्थ के रूप में उपयोग किया. इन प्रकाशनों ने सामाजिक सुधार और जाति-विरोधी विचारों के लिए विवाद के रूप में भी काम किया, जिसमें गोपाल बाबा वालंगकर जैसे दलित नेताओं सहित विविध गैर-ब्राह्मण पृष्ठभूमि के कई लेखक शामिल थे. सूरज थुबे यह भी बताते हैं कि 1873 और 1930 के बीच “सत्य शोधक आंदोलन के सिद्धांतों को समर्पित” लगभग 60 समाचार पत्रों की स्थापना की गई थी.

1910 मे दीनबंधु ने प्रकाशन बंद कर दिया. उस वर्ष भालेकर के जैविक पुत्र (उनके भतीजे द्वारा गोद लिया गया) मुकुंदराव द्वारा दीनमित्र शुरू किया गया था. जो सत्य शोधक समाज की शिक्षाओं के लिए एक महत्वपूर्ण मुखपत्र बन गया. 1967 में दीनमित्र बंद हो गया. कुंभोजकर ने बताया कि दो अखबार उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में सत्य शोधक समाज के काम की अच्छी अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं. ओमवेट ने देखा कि दीनमित्र ने ग्रामीण महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज के लिए समर्थन के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जो कांग्रेस से जुड़े उच्च-जाति के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों के बीच तिलक के बढ़ते समर्थन के साथ-साथ थी. साथ ही, नरेगाल ध्यान आकर्षित करते हैं कि कैसे सत्य शोधक समाज के सदस्यों द्वारा सूचना प्रसार और लामबंदी का सबसे महत्वपूर्ण साधन नाटक और पद्य रूपों का सार्वजनिक प्रदर्शन ही बना रहा. जैसा कि ओमवेट लिखती हैं, ” इन वर्षों में सत्य शोधक संदेश का प्रसार तीन रूपों में हुआ: नेताओं के व्याख्यान और निर्देशात्मक दौरे; पुस्तकों और समाचार पत्रों का प्रकाशन और लोकप्रिय गीत और नाट्य  रूपों का उपयोग.”

थुबे और कुम्भोजकर ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे इन छोटे पैमाने के प्रकाशनों की बिखरी हुई प्रकृति के कारण इन्हें ढूंढ पाना इनके अध्ययन को और कठिन बना देती है, खासकर जब उनमें से अधिकांश केवल निजी अभिलेखागार में ही जीवित हैं. कुम्भोजकर ने कोल्हापुर के शासक शाहू की ओर भी ध्यान आकर्षित किया जो गैर-ब्राह्मण आंदोलन के संरक्षण के लिए जाने जाते थे और उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान कई गैर-ब्राह्मण पत्रों को वित्तपोषित किया. उन्होंने दीनमित्र का समर्थन करने की भी पेशकश की थी लेकिन पाटिल ने विनम्रता से मना कर दिया और इसके बजाय वित्तीय सहायता के लिए पाठकों से सहायता और सदस्यता की ओर रुख करना पसंद किया.

फुले के अनुवाद कठिन हैं उनको ढूंढ पाना मुश्किल है. 1911, 1912 और अंत में, 1921 में गुलामगिरी का पुनर्मुद्रण हुआ, जिसके बाद इसे पाना मुश्किल था, जब तक कि इसे 1961 में सत्य शोधक समाज द्वारा पुनर्मुद्रित नहीं किया गया. आखिरकार 1969 में, मुख्यमंत्री के रूप में यशवंतराव चव्हाण के कार्यकाल के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने एक परियोजना के अंतरगत फुले के विभिन्न मराठी और अंग्रेजी लेखन- को एकत्र किया और उनका संकलन प्रकाशित किया. 1990 में फुले की मृत्यु शताब्दी मनाने के लिए शरद पवार सरकार ने गुलामगिरी का एक अंग्रेजी अनुवाद जारी करने का संकल्प लिया, जिसे नेल्सन मंडेला को उनकी बॉम्बे की यात्रा पर योजनाबद्ध प्रस्तुत किया जाना था. 1991 में जोतिराव के चयनित लेखन का एक और खंड लेफ्टवर्ड बुक्स ने एक दशक बाद प्रकाशित किया. मोकाशी-पुणेकर के अनुसार, जीपी देशपांडे ने 1980 के दशक के उत्तरार्ध से उनके अंग्रेजी में अनुवाद करने से पहले मराठी में फुले की साहित्यिक पहुंच को बढ़ावा देने का सक्रिय प्रयास किया.

फुले द्वारा मराठी साहित्य का आधिकारिक और आलोचनात्मक मूल्यांकन किए जाने के परिणामस्वरूप, उनकी मृत्यु के बाद से कई दशकों तक उनकी रचनाएं प्रिंट से बाहर रहीं और उनके लेखन का अनुवाद करने में कठिनाई हुई, मराठी आधुनिक साहित्य में उनका स्थान पूरी तरह से समाप्त हो गया. हालांकि, प्रिंट के माध्यम ने निस्संदेह उनकी और उनके अनुयायियों की मदद की, जिन्होंने उनकी शिक्षाओं को जज्ब करके उनकी विरासत को आगे बढ़ाया. इसने एकजुटता चाहने वाले समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ गैर-ब्राह्मण आंदोलन पर शोध करने वाले विद्वानों की भी सहायता की.

(अनुवाद : परिजात)

कार्तिक मल्ली एक स्वतंत्र शोधकर्ता और लेखक हैं, जिनका काम दक्षिण भारत में भाषा, लेखन, इतिहास और पहचान पर केंद्रित है.

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