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पत्रकारिता अब लोकतंत्र का स्तम्भ या सत्ता की रखैल : रवीश कुमार/ एनडीटीवी के बहाने

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 प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता

     पत्रकारिता क्या है? और ईमानदार पत्रकारिता? एनडीटीवी को छोड़ दें, जो रवीश कुमार कर रहे थे क्या वह पत्रकारिता थी? ईमानदार भी? चौंक के फ़तवे दे देने के पहले रूकियेगा, पूरा पढ़ियेगा। 

         रवीश कुमार बहुत अच्छे पत्रकार रहे हैं, बीते लंबे दौर से नहीं थे। रवीश की रिपोर्ट से प्राइम टाइम के बीच के किसीस दौर में रवीश पत्रकार से पब्लिक इंटेलेक्चुअल में बदल गये थे, एक बेहद ज़रूरी, सरोकारी, जनपक्षधर पब्लिक इंटेलेक्चुअल पर बस वही, पत्रकार नहीं। मैं उनकी ज़रूरत पर कोई संदेह नहीं कर रहा हूँ- वे बेहद ज़रूरी थे, हैं, और रहेंगे। पर वह अब जो कर रहे थे वह पत्रकारिता नहीं थी, फिर भले ही उनकी भूमिका किसी भी समाज के लिए बेहद ज़रूरी भूमिका थी, वह हमारे समाज के मोरल कंपास थे, हैं, और रहेंगे।

         आज इसीलिए यह भी पूछा जाना चाहिए कि पत्रकारिता असल में क्या होती है? पत्रकारिता असल मे, और अपने मूल में, उन सूचनाओं, तथ्यों को सार्वजनिक जगत में लाना होती है जिन्हें सत्ता, शासक वर्ग या अन्य कोई भी बलशाली समूह छिपाना चाहते हैं। और आसान करूँ तो पत्रकारिता तथ्यों की निष्पक्ष रिपोर्टिंग होती है जिसमें बाद में उसका विश्लेषण भी शामिल हो सकता है। 

इस जगह से देखें तो असल पत्रकारिता वे पत्रकार करते हैं जो ज़मीन पर होते हैं- जो बताते हैं कि मिड डे मील के नाम पर बच्चों को क्या खिलाया जा रहा है, जो बताते हैं कि 23 साल के रामराज के बावजूद गुजरात के औद्योगिक केंद्र सूरत में कोचिंग सेंटर में आग लगने पर दमकल विभाग के पास तीसरी मंज़िल पर पहुँच सके इतनी लंबी सीढ़ी भी नहीं थी, जो बताते हैं कि कोविद के समय गंगा कैसे शव वाहिनी बन गई थीं आदि। 

       रवीश के भीतर का पत्रकार बीच बीच में जागता था, जब वह बेरोज़गारी से त्रस्त युवाओं के व्हाट्सऐप संदेशों पर पूरा प्राइम टाइम कर देते थे और ऐसे ही और भी कार्यक्रम। और वह टीवी पर यह करने वाले आख़िरी पत्रकारों में से थे- भारत समाचार के ब्रजेश मिश्रा और उनका एक रिपोर्टर जिनका नाम याद नहीं आ रहा, अभी भी हैं। पर ऐसे बहुत कम लोग हैं!  

        रवीश को हम उनकी रिपोर्ट के पत्रकार से खींच वहाँ ले आये थे जो असल में पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स की ज़मीन है- उनकी जो उपलब्ध तथ्यों के आधार पर समाज को सही रास्ता बताते हैं। रवीश के प्राइम टाइम में लाइव आते ही, विषय के बारे में जानते ही हमें पता होता था कि आज रवीश का स्टैंड क्या होगा। 

रवीश ने उन पर थोप दी गई यह ज़िम्मेदारी बड़े शानदार ढंग से निभाई। 

       सवाल हमें अब ख़ुद से पूछना है कि पर असल में यह जिनकी ज़िम्मेदारी थी, पुरुषोत्तम अग्रवाल सर, अरुंधती रॉय, रघुरामन राजन, रोमिला थापर, आशीष नंदी (कुछ तीखी असहमतियों के बावजूद) आदि को छोड़ कर ज़्यादातर कहाँ भाग गए थे कि पत्रकारों को उनकी ख़ाली की ज़मीन भरनी पड़ी?

        (रामचंद्र गुहाओं के बारे में ना पूछियेगा जिनका हर दूसरा लेख राहुल गांधी और कांग्रेस क्यों विकल्प नहीं हो सकते इस पर होता है और जिसका सीधा अर्थ अब देश में भाजपा का कोई विकल्प नहीं है में निकलता है!) 

असल में पत्रकारिता क्या होती है यह समझना है तो एक किताब पढ़ियेगा- जॉन पिल्जर की किताब “टेल मी नो लाइज”। 

     उसमें दुनिया की सबसे शानदार पत्रकारिता के तमाम उदाहरण हैं। फिर ढूँढियेगा कि भारत में बीते लंबे दौर में वैसी क्या उसका दसवाँ हिस्सा भी हुआ है पत्रकारिता के नाम पर? 

      नहीं तो इस मौक़े को पत्रकारिता की फिर से खोज के प्रस्थान बिंदु के रूप में इस्तेमाल करियेगा। 

           बाक़ी मैं अब रवीश कुमार की नई भूमिका से ज़्यादा उत्साहित हूँ- इस देश को अभी पब्लिक इंटेलेक्टुअल्स की बहुत ज़रूरत है, और ऐसे में एक और नाम बिना पत्रकार/ऐंकर जैसे किसी और विशेषण के जुड़ना बहुत आश्वस्तिकारी!

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